बुन्देला ठाकुरों का उद्भव उत्कर्ष एवं ओरछा राज्य का इतिहास | Orcha History in Hindi
बुन्देला ठाकुरों का उद्भव उत्कर्ष एवं ओरछा राज्य का इतिहास
बुन्देला ठाकुरों का उत्कर्ष एवं ओरछा राज्य का इतिहास -
बुन्देलखण्ड का परिचय
देश के केन्द्रीय भाग में स्थित भू-भाग को मध्यकाल में
बुन्देलखण्ड नाम से जाना जाता था। वर्तमान में यह भू-भाग मध्यप्रदेश एवं
उत्तरप्रदेश के प्रांतों के विभिन्न जिलों में विभाजित है। मध्यप्रदेश के अंतर्गत
बुन्देलखण्ड के प्रमुख जिले हैं, दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, नरसिंहपुर, सागर एवं इसी प्रदेश के जबलपुर, सतना, रायसेन, विदिशा, गुना, ग्वालियर, भिण्ड, शिवपुरी आदि
जिलों का लगभग आधा भाग बुन्देलखण्ड प्रदेश के भू-भाग का हिस्सा माना जाता है।
उत्तरप्रदेश के झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा, महोबा और
चित्रकूट आदि जिले बुन्देलखण्ड भू-भाग के हिस्से माने जाते हैं। यह समस्त क्षेत्र
मध्यकाल में बुन्देलखण्ड की राजनीतिक इकाई का बोध कराता था । यह सीमायें
सत्ता-संघर्ष के दौर में घटती-बढ़ती भी रहती थीं, परन्तु भाषाई बोलचाल, रहन-सहन, खान-पान, लोक व्यवहार, रीतिरिवाज एवं
परंपराओं की दृष्टि से यह भू-भाग वर्तमान में भी बुन्देलखण्ड अंचल की पुरातन
संस्कृति की एकता को रेखांकित करता है। यह क्षेत्र पथरीली चट्टानों, घने वनों, पर्वत श्रृंखलाओं
एवं बरसात में तेज गति से बहने वाले नदी-नालों का क्षेत्र था। इन पर्वतीय
क्षेत्रों में धौ, महुआ, छिवला एवं
कांटेदार झाड़ियों के वन बहुतायत से पाए जाते थे। यहाँ के कृषक को सदैव रोजी-रोटी
के लिए दो मोर्चों पर लड़ना पड़ता था, एक मोर्चा जमीन का अनुपजाऊ होना था और दूसरा मोर्चा था यहाँ
की सामंती सत्ता की प्रवृत्ति मध्यकालीन बुन्देलखण्ड का भू-भाग उत्तर में यमुना, दक्षिण में
नर्मदा, पूर्व में टोंस
एवं पश्चिम में चम्बल नदियों के बीच का भाग माना जाता था, बुन्देलखन्ड की
सीमाओं के सम्बन्ध में यह पद बहुत प्रसिद्ध रहा है, -
इत जमुना उत नर्मदा, इत चंबल उत टोंस ।
छत्रसाल सों लरन की रही न काहू होंस।। '
बुन्देला ठाकुरों का उद्भव Origin of Bundela Thakur
- बुन्देला ठाकुरों का उद्भव अयोध्या के राजा रामचन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र लव के वंश से माना जाता है। आठवीं सदी में कर्तराज नाम का राजा काशी में हुआ था। उसने अशुभ ग्रहों के निवारण के लिए शांति पाठ करवाया था। जिसके कारण उसके वंशज ग्रहनिवार कहलाये, जो बाद में अपभ्रंश होकर गहिरबार नाम से प्रसिद्ध हुए थे। इसी गहिरबार वंश के पंचम बुन्देला के पुत्र वीर बुन्देला ने तेरहवीं सदी के मध्य में मऊ - माहोनी में अपनी नवीन राजधानी कायम कर बुन्देलखन्ड में अपना राज्य स्थापित किया था। यह मऊ-माहोनी पहूज नदी के किनारे उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में मध्यप्रदेश की भिण्ड जिले की मिहोना तहसील की सीमा से लगा हुआ है। वीर बुन्देला के नाती अर्जुन पाल ने बुन्देलों की इस राजधानी मऊ-माहोनी के आसपास के भू-भागों पर कब्जा कर अपने राज्य को दृढ़ता प्रदान की थी। अधिकांश लेखक यही मानते हैं कि बुन्देला ठाकुर, विंध्यक्षेत्र या विन्ध्यावटी पर्वत अंचल के भू-भाग में राज्य स्थापित करने के कारण "विन्ध्येला" और बाद में "बुन्देला" नाम से प्रसिद्ध हुए थे। और उनके राज्य के भाग बाद में बुन्देलाओं के राज्य स्थान होने के कारण बुन्देलखण्ड प्रदेश के नाम से आगे के इतिहास में जाने पहचाने गए थे। माना जाता है कि 14 वीं सदी के अंत से इस भू-भाग का नाम "जेजाकभुक्ति" के स्थान पर बुन्देलखण्ड पड़ा था ।
बुन्देलों की प्रगति
- अर्जुनपाल बुन्देला के तीन पुत्र थे, वीरपाल, सोहनपाल, दयापाल । अर्जुनपाल के सन् 1231 ई. में निधन के बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र वीरपाल बुन्देलखण्ड की तत्कालीन राजधानी मऊ-माहोनी का शासक बना था। माना जाता है कि वीरपाल बुन्देला ने अपने भाई सोहनपाल और दयापाल को मऊ-माहोनी से निष्कासित कर दिया था। इन भाईयों में सोहनपाल विशेष महत्वाकांक्षी था और वह इस भू-भाग में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहता था। अतः वह बेतवा नदी के समीप स्थित गढ़कुड़ार के शासक हुरमतसिंह के पास अपने भाई वीरपाल के विरुद्ध सहायता माँगने के लिए गया । यह गढ़कुड़ार स्थान मऊ-माहोनी से पूर्व दिशा की ओर लगभग सौ किलोमीटर के करीब दूर था। बुन्देलखण्ड के अंतर्गत उस समय गढ़कुड़ार में खंगारों का एक शक्तिशाली राज्य था। माना जाता है कि इस समय खंगार शासक हुरमतसिंह ने सोहनपाल की सहायता के बदले उससे उसकी बेटी धर्मकुँवर की शादी अपने बेटे नागदेव के साथ करने की शर्त रखी थी। सोहनपाल को खंगार शासक हुरमतसिंह की यह शर्त अपमानजनक लगी थी और इस प्रस्ताव से वह विचलित होकर उसका घोर विरोधी हो गया था। जातिगत् स्वाभिमान एवं दम्भ ने सदैव इतिहास में अनोखी घटनाओं को जन्म दिया था। यहाँ भी यही हुआ, पवाया के शासक पुन्यपाल परमार एवं शाहबाद के शासक मुकुटमणि धंधेरा (चौहान) के सहयोग से सोहनपाल बुन्देला ने कूटयुद्ध की चतुराई से गढ़कुड़ार के खंगार शासक हुरमतसिंह को मारने में सफलता प्राप्त की और उसके राज्य को जड़ से उखाड़ फेंका था। यह युद्ध तेरहवीं सदी के मध्य में हुआ माना जाता है। पवाया, प्राचीन पद्मावती है, जो सिंध और पार्वती नदी के संगम पर ग्वालियर जिले की भितरबार तहसील में स्थित है और शाहबाद, कोटा के समीप राजस्थान के बारां जिले में स्थित है। बुन्देले, परमार ओर धंधेरे ठाकुरों का यह राजनीतिक गठजोड़ इतिहास काल में पूरे बुन्देलखण्ड भू-भाग की सत्ताई राजनीतिक ईकाई के रूप में सामर्थ्यवान बना रहा था। यह नाता इतिहास में तीन कुरी के ठाकुरों के नाम से प्रसिद्ध रहा और आपस में वैवाहिक संबधों के माध्यम से विकसित व पल्लवित होता रहा था। आगे सोहनपाल बुन्देला के उत्तराधिकारी सहजेन्द्र, नानकदेव, पृथ्वीराज, रामचंद, मेदनीमल, अर्जुनदेव और मलखानसिंह बुन्देला गढ़कुड़ार से ही अपना शासन चलाते रहे थे ।
बुन्देलखण्ड में समकालीन राजनीतिक स्थिति
- जब बुन्देलखण्ड में बुन्देलों का उद्भव मऊ-माहोनी के क्षेत्रों पर पहूज एवं बेतवा नदी के बीच हो रहा था उस समय बुन्देलखण्ड से चंदेलों की शक्ति का पतन प्रारंभ हो चुका था। अजमेर के प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज चौहान तृतीय ( 1178-1193 ई.) ने चंदेल शासक परमर्दिदेव पर सन् 1182-83 ई. में आक्रमण कर बुन्देलखण्ड के महोबा से लगे भू-भागों पर अपना अधिकार जमा लिया था। इस समय बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध सत्ता केंन्द्र महोबा, कालिंजर और अजयगढ़ थे। ओरछा इस समय नगण्य स्थिति में चारों ओर घोर जंगलों एवं नदी, नालों, नदों से घिरा अविकसित रूप में था। चंदेल और चौहान राजपूतों ने आपस में लड़कर अपनी शक्ति का अवमूल्यन किया था। इसका परिणाम यह निकला कि गोर के शासक मुहम्मद गोरी के हाथों सन् 1182 ई. में पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई और देश में मुस्लिम शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ था। भारतीय इतिहास का यह दुखदाई प्रकरण माना जाता है, क्योंकि राजपूत शासकों ने कभी संगठित सैनिक शक्ति का परिचय नहीं दिया था।
- दिल्ली में मुहम्मद गोरी के बाद उसके उत्तराधिकारी इलबारी वंश के कुतुबुद्दीन ऐबक ने सत्ता संभाली थी। दिल्ली के इसके बाद के शासक अपने को सुल्तान मानते थे, अतः इस काल (1206-1526 ई.) को इतिहास में सल्तनत काल लिखा जाता है। दिल्ली के शासक, पूरे देश के केन्द्रीय शासक के रूप में माने जाते थे, इतिहास इसी धारणा को लेकर चलता है। परन्तु आंचलिक सत्ता के पहरुए शासक भी अपने राज्य को अपना देश मानते थे । प्रादेशिक - इतिहास का महत्व वर्तमान में केन्द्रीय मुगल- इतिहास से अधिक है। क्योंकि आंचलिक इतिहास निर्माण में इस देश की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की सीधी भागीदारी थी। इस कारण आंचलिक इतिहास जनता का इतिहास माना जाता है। इस आंचलिकता में कला-संस्कृति और लोक प्रवृत्ति की आत्मा बसती है।
- ऐबक ने 1202-03 ई. में बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध दुर्ग कालिंजर पर आक्रमण किया था। इस समय चंदेलों ने तुर्कों से जमकर लोहा भी लिया था, लेकिन अन्तोगत्वा उन्हें ऐबक का संरक्षण स्वीकार करना पड़ा था। ऐबक बुन्देलखण्ड में सत्ता का ज्यादा विस्तार नहीं कर सका था। इस काल में कालिंजर का दुर्ग ही बुन्देलखण्ड की सत्ता का नेतृत्व करता दिखाई दे रहा था । और बेतवा नदी के समीप के ओरछा के क्षेत्रों पर गढ़कुड़ार के हुरमतसिंह खंगार का शासन था। दिल्ली की सत्ता का बुन्देलखण्ड पर राजनीतिक प्रभाव इस समय शैशव अवस्था में था और चंदेल शासक कालिंजर के आसपास अपनी सत्ता बनाए रखने में सफल सिद्ध हो रहे थे। सन् 1231 ई. में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने कालिंजर पर पुनः आक्रमण किया, यह आक्रमण लूटपाट तक ही सीमित रहा था। दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने भी सन् 1247 ई. में कालिंजर पर आक्रमण किया था। दिल्ली के सुल्तानों के ये सभी प्रयास कालिंजर की लूटपाट तक ही सीमित रहे थे। बुन्देलों की सत्ता का विकास लगातार बेतवा और पहूज नदी के प्रांगण के क्षेत्रों में बढ़ रहा था। उन्होंने गढ़कुड़ार पर अधिकार कर खंगार शासकों का अन्त कर दिया था। दिल्ली के अस्थिर प्रारंभिक तुर्की शासक बुन्देलखण्ड क्षेत्र के लिए कोई सही राजनीतिक नीति का निर्धारण नहीं कर सके थे। दिल्ली का सुल्तान सिकन्दर लोधी (1489-1517 ई.) एक धर्मान्ध शासक था। उसने बुन्देलखण्ड के नरवर, चन्देरी और बुन्देलखण्ड के निवासियों के आस्था के केन्द्र तीर्थस्थल मथुरा में मंदिरों की तोड़फोड़ कर अपनी धर्मान्धता का परिचय दिया था । बुन्देलखण्ड के निवासियों पर इसका तीखा पड़ा था। यहाँ की जनता बुन्देलों को अपना संरक्षक तथा सनातनी धर्म की रक्षा करने वाले के रूप में मानती थी। इस कारण क्षेत्र की जनता मुस्लिम आक्रान्ताओं को सहयोग नहीं करती थी। फलस्वरूप अनुकूल राजनीतिक वातावरण एवं जंगलों की अधिकता बुन्देलों की सत्ता के प्रसार में सहायक सिद्ध हुई थी।
- पानीपत के मैदान में अप्रैल, 1526 ई. में इब्राहीम लोदी की बाबर के हाथों पराजय ने दिल्ली सल्तनत का अन्त कर मुगल साम्राज्य की नींव भारत में रख दी थी। चंदेरी की ओर आक्रमण के लिए जाते समय दिसम्बर, 1527 ई. के अन्त में बाबर ने कालपी, एरच भान्डेर के भागों पर मुगल अधिकारियों की नियक्ति कर बुन्देलखण्ड के भागों को अपने संरक्षण में करने का प्रयास किया था। जनवरी, 1528 ई. में चंदेरी के मेदनीराय का पतन और हजारों राजपरिवार की महिलाओं के जौहर ने बुन्देलखण्ड एवं उससे लगे मालवा के क्षेत्रों की बहुसंख्यक हिन्दू जनता पर आघातिक प्रभाव डाला था। बाबर के पुत्र हुमायूँ ने भी सन् 1530 ई. में कालिंजर पर आक्रमण किया था और हुमायूँ के पलायन काल में शेरशाह सूरी (1540-45 ई.) ने भी मई, 1545 ई. में कालिंजर पर आक्रमण किया था, परन्तु इस आक्रमण समय बारूद में विस्फोट होने के कारण उसके प्राणपखेरु उड़ गए थे। इस समय तक बुन्देलखण्ड में बुन्देलों की प्रसिद्ध राजधानी ओरछा की नींव जरूर पड़ चुकी थी। परन्तु बुन्देलखण्ड की प्रमुख ताकत का केन्द्र कालिंजर को ही माना जा रहा था। बुन्देलखण्ड में चंदेलों का पराभव और बुन्देलों का आगमन हो रहा था ।
ओरछा में राजधानी का स्थापित होना
मलखान सिंह के निधन के बाद रुद्रप्रताप बुन्देला उसका
उत्तराधिकारी हुआ था और उसने बुन्देलों की नवीन राजधानी ओरछा की नींव 3 अप्रैल, सन् 1531 ई. को रखी थी।
बेतवा नदी की भुजाओं में स्थित ओरछा नगर को बुन्देली जनमानस "ओड़छा" नाम
से पुकारता है। ओरछा पहले पड़िहार या प्रतिहार राजपूतों का स्थान था और इसका
पुराना नाम गंगापुरी था । रुद्रप्रताप बुन्देला ने ओरछा के नवीन नींव सघन वनों के
बीच और जीवनदायनी बेतवा के आँचल में रख कर, वहाँ बुन्देलों की सुरक्षित सैनिक छावनी बनाई थी।
रुद्रप्रताप गढ़कुड़ार और ओरछा दोनों जगह से अपना शासन चलाता था। उसने अपने राज्य
का विस्तार कालिंजर से कालपी तक के क्षेत्रों में कर लिया था। यह काल दिल्ली
सल्तनत के इब्राहिम लोदी (1517
- 1526 ई.) के पतन का एवं मुगल वंश के संस्थापक बाबर (1526-1530) के आगमन के बीच
की राजनीतिक उथल-पुथल का था । रुद्रप्रताप बुन्देला ने अपने साहस और वीरता के चलते
बुन्देलाओं के राज्य विस्तार का कार्य सफलता के साथ संपन्न किया था। परन्तु 1531 ई. के अंत में
वह स्वर्ग सिधार गया। राजा रुद्रप्रताप बुन्देला का राज्य काल 1501 - 1531 ई. के मध्य रहा
था। यहाँ, यह उल्लेखनीय है
कि बुन्देलखण्ड के सभी बुन्देला राज्य रुद्रप्रताप के नौ पुत्रों से अपनी उत्पत्ति
मानते हैं । "
भारतीचंद ( 1531- 1554 ई.)
रुद्रप्रताप के बाद उसका पुत्र भारतीचंद ओरछा का शासक हुआ। इसके समय ओरछा को बुन्देलखण्ड की राजधानी बनने का पूरा गौरव प्राप्त हो गया था। ओरछा का दुर्ग, परकोटा, राजमंदिर, रानीमहल और शहरपनाह इसके समय में ही निर्मित हुए थे और बुन्देलखण्ड क्षेत्र से संबंधित समस्त भू-भाग पर भारतीचंद ने कब्जा जमा लिया था। दिल्ली की गद्दी के लिए इस काल में हुमायूँ और शेरशाह सूरी के बीच संघर्ष चल रहा था, जिसमें शेरशाह सूरी (1540-1545 ई.) में सफलता प्राप्त की थी। शेरशाह ने बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध दुर्ग कालिंजर पर रीवा के शासक वीरभान बघेला को पकड़ने के लिए आक्रमण किया था। वीरभान बघेला, शेरशाह के कोप से बचने लिए कीरतसिंह चंदेल के पास जाकर कालिंजर में छिपा था । कालिंजर का यह युद्ध नवम्बर 1544 से मई 1545 ई. तक चलता रहा था और अंत में बारूद में विस्फोट के कारण 22 मई, 1545 ई. को शेरशाह की वहीं मृत्यु हो गई भारतीचंद ने इस युद्ध में अपने भाई मधुकरशाह और कीरतसिंह को सैनिक टुकड़ी के साथ कालिंजर के चंदेल शासक की मदद के लिए भेजा था। इस घटना से भारतीचंद के साहसी और महत्वाकांक्षी होने की बात सामने आती है। इस्लामशाह सूर (1545-1553 ) ने जतारा (वर्तमान टीकमगढ़ जिले की तहसील) को विजित कर इसका नाम बदलकर, इस्लामाबाद कर दिया था। भारतीचंद ने पुनः जतारा पर कब्जा कर उसका नाम इस्लामाबाद के स्थान पर जतारा ही प्रचलित किया था। इस प्रकार भारतीचंद ने ओरछा को बुन्देलखण्ड की राजधानी के रूप में स्थापित कर प्रांतीय स्वतंत्रता का अलख जगाया था।
मधुकरशाह (1554 - 1592 ई.)
भारतीचंद के बाद उसका भाई मधुकरशाह बुन्देला ओरछा की गद्दी
पर बैठा। मधुकरशाह ने ओरछा राज्य के विस्तार के लिए आसपास के क्षेत्र सिरोंज, ग्वालियर, नरवर आदि के मुगल
आधीनता वाले भागों पर लगातार धावे किए थे। फलस्वरूप अकबर बादशाह ने मधुकरशाह को
दण्डित करने के लिए गढ़ा के सूबेदार सादिक खाँ और ग्वालियर के फौजदार आसकरन कछवाहा
को भेजा था। मधुकरशाह ने बार-बार अकबर बादशाह के क्षेत्रीय अधिकारियों को चुनौती
देकर सन् 1574, 1588 एवं 1591 ई. के मुगल
धावों को बुन्देलखण्ड के भागों पर आमंत्रित किया था। प्रत्येक बार मधुकरशाह मुगल
चुनौती के सिर पर आ जाने पर चतुराई से क्षमायाचक बन कर बच जाते थे । मआसिर-डल -
उमरा का लेखक शाहनबाज खाँ लिखता है, "यह अपने उपायों, नीति, साहस और वीरता से प्रसिद्धि प्राप्त कर सब पूर्वजों से आगे
बढ़ गया था। कुछ समय बीतने पर इसने आसपास की चारों ओर की बस्तियों पर अधिकार कर
लिया। ऐश्वर्य, सेना और राज्य के
बढ़ने से इसका अहंकार बढ़ गया और इसने अकबर बादशाह के विरुद्ध विद्रोह किया । इसे
दण्ड देने के लिए अकबर ने दो बार सेनायें भेजी। कभी यह अधीनता मान लेता था और कभी
विद्रोह कर बैठता था। इस वर्णन से यह आभास होता है कि मधुकरशाह बुन्देला विद्रोही
और स्वच्छंद प्रकृति के थे,
वे बुन्देलों का
बुन्देलखण्ड में एक शक्तिशाली प्रांतीय राज्य स्थापित करना चाहते थे। इस क्षेत्र
के आसपास पदस्थ मुगल क्षेत्रीय अधिकारियों को वे पसन्द नहीं करते थे। मुधकरशाह और
उनकी रानी गणेशकुँअरि दोनों ही धार्मिक प्रवृति के थे और वे अपने माथे पर बड़ा सा
तिलक लगाते थे, जो आज भी
"मधुकरशाही तिलक" के नाम से प्रसिद्ध है। ओरछा के समकालीन महाकवि केशव
ने अपने ग्रंथ वीरचरित् में लिखा है-
सैदखान तिन लीन्यो लूटि । अबदुल्लह खाँ पठयो कूटि
गनो न राजा राउत वादि। हारयो जिन सौ साहि मुराद ।।
अर्थात् मधुकरशाह ने सैयदखान को लूटा, अब्दुल्लाखाँ को
मार भगाया था, वे किसी राजा
सामंत से नहीं दबे थे और उन्होंने शाहजादा मुराद को भी पराजित कर दिया था। केशव का
यह समसामयिक वर्णन, तत्समय की जन
मानसिकता की अभिव्यक्ति है,
जिसमें मधुकर शाह
की शौर्य को चित्रित किया गया है ।
वीरसिंहदेव बुन्देला (1605-1627 ई.)
- मधुकरशाह के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र रामशाह बुन्देला (1592 - 1605 ई.) ओरछा के शासक हुए (1592-1605 थे। मधुकरशाह के आठ पुत्रों में एक पुत्र वीरसिंहदेव को, वर्तमान में दतिया जिले में स्थित छोटी बड़ोनी की जागीर मिली थी। वीरसिंहदेव ने 1592 ई. में बड़ोनी पहुँचते ही आसपास के ग्वालियर, नरवर, पवाया, करहरा, आदि के मुगल क्षेत्रों में लूटमार कर अनेक मुगल थानों पर कब्जा कर लिया। उनकी इन विद्रोही गतिविधियों को दबाने के लिए अकबर ने लगातार वीरसिंहदेव पर मुगल सेनायें भेजीं। परन्तु वह हर बार मुगल सेनाओं को चकमा देकर सघन वनों में भाग जाने में सफल हुआ। इस बीच वीरसिंहदेव ने अकबर के विद्रोही पुत्र शाहजादा सलीम से सम्पर्क कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया। शाहजादे के कहने पर वीरसिंहदेव ने दक्षिण से आगरा की ओर जाते समय अकबर के विशिष्ट मंत्री अबुल फजल का वध नरवर आंतरी के बीच सराय बरार में 9 अगस्त, 1602 ई. को कर दिया। शाहजादे का मानना था कि अबुल फजल बादशाह को उसके विरुद्ध बरगलाता रहता है। इस घटना के बाद सलीम जहाँगीर बादशाह के नाम से अक्टूबर, 1605 ई. में गद्दी पर बैठा और उसने सार्वजनिक रूप से यह कहते हुए कि वीरसिंहदेव की वजह से उसे यह गद्दी प्राप्त हुई है, वीरसिंहदेव को ओरछा की गद्दी सौंप पूरे बुन्देलखन्ड का राज्य उसे दे दिया। वीरसिंहदेव के अग्रज रामशाह को जो इस समय ओरछा का शासक था, इस समय मुगल दबाब के कारण बार- चंदेरी की जागीर से संतोष करना पड़ा ।
- जहाँगीर बादशाह के संरक्षण के चलते वीरसिंहदेव का मुगल राजनीति में उस समय अच्छा सम्मान था। वह बुन्देली ललित कलाओं का जन्मदाता और अग्रगण्य लोककल्याणकारी शासक था। बादशाह ने स्वयं वीरसिंहदेव के विषय में लिखा है, "राजा वीरसिंहदेव को तीन हजारी मनसब मिला। यह बुन्देला राजपूत मेरा बढ़ाया हुआ है। बहादुरी भलमानसी और भोलेपन में अपने बालों से बढ़कर है। "वीरसिंहदेव ने अपने राज्यकाल में जहाँगीर बादशाह के समय के सभी प्रमुख अभियानों में भाग लेकर मुगलनिष्ठा का परिचय दिया था।
जुझार सिंह बुन्देला (1627-1635 ई.)
- वीरसिंहदेव बुन्देला के बाद सन् 1627 ई. में उसका ज्येष्ठ पुत्र जुझारसिंह बुन्देला ओरछा की गद्दी का उत्तराधिकारी हुआ। एक मुगल सत्ता विरोधी विद्रोही के रूप में दिसम्बर, 1635 ई. में वह भागमभाग की स्थिति में मारा गया था। और सत्ता विरोधी उसके रुख के कारण ओरछा के राजपरिवार की महिलाओं को भीषण कष्ट उठाने पड़े तथा अपमान भी सहन करना पड़ा था। तत्कालीन इतिहासकारों का मानना है कि उसके पिता वीरसिंहदेव ने अपने शासनकाल में जहाँगीर बादशाह की कृपा से अकूत धन अर्जित किया था। जहाँगीर का उत्तराधिकारी शाहजहाँ चाहता था, कि जुझारसिंह से वह अवैध धन वसूल किया जाय। एक दूसरी धारणा यह भी है, कि जुझारसिंह बुन्देलखण्ड में अपनी सत्ता के क्षेत्र का विस्तार करने का इच्छुक और महत्वाकांक्षी था। मुगल सत्ता और जुझारसिंह बुन्देला के बीच इन कारणों से संदेह की स्थिति बनी थी। अतः वह जून, 1628 ई. में राजधानी से ओरछा भाग आया था और युद्ध की तैयारी करने लगा। शाहजहाँ ने जुझारसिंह पर चारों तरफ से दबाव बनाने के लिए महाबतखाँ खानखाना, मालवा के सूबेदार खांनजहाँ लोदी और ओरछा के आसपास के सेना नायकों - शासकों को चढ़ाई करने के आदेश दिए। इस मुगल दबाव के आगे जुझारसिंह झुक गया और उसने पुनः मुगल आज्ञा मानकर समर्पण कर दिया था। परंतु सन् 1635 ई. में जुझारसिंह पुनः दक्षिण भारत के मुगल अभियानों से भागकर ओरछा आ गया और अवज्ञा कर विद्रोही हो गया। उसने गोंडवाने पर आक्रमण कर वहाँ के शासक प्रेमनारायण को मार डाला। इस पर क्रुद्ध होकर शाहजहाँ ने औरंगजेब के नेतृत्व में ओरछा पर आक्रमण करने की आज्ञा दी, इस मुगल अभियान में चंदेरी, दतिया के बुन्देला शासकों ने भी मुगलों का साथ दिया था। इस समय मुगल सेनाओं ने ओरछा के मंदिरों में भी तोड़फोड़ की थी। जुझारसिंह मुगलों के दबाव के कारण प्राण बचाकर गोंडवाना होकर गोलकुण्डा की ओर जाना चाहता था, परन्तु इस बीच दिसम्बर, 1635 ई. में वह मारा गया था। उसकी मृत्यु के बाद मुगल फौजों को बुन्देलखण्ड के तमाम कुओं से वीरसिंह बुन्देला का छिपाया हुआ धन प्राप्त हुआ था। इससे यह पता चलता है, कि शाहजहाँ की यह चढ़ाई बुन्देलखण्ड की सत्ता को तहस-नहस कर कमजोर करने की थी। ओरछा के इतिहास में जुझारसिंह का नाम एक दाग के रूप में पढ़ा जाता है, क्योंकि उसने अपने लोकप्रिय, जनता के पूज्य देवतुल्य भाई हरदौल को शक के आधार पर बिश देकर मरवा डाला था। आज पूरे बुन्देलखण्ड में हरदौल के अनेकों चबूतरे हैं, जिन्हें ग्राम्य देवता के रूप में पूजा जाता है।
- चंदेरी का शासक देवीसिंह बुन्देला ओरछा वंश का ही था और वह शाहजहाँ बादशाह का वफादार भी था। अतः शाहजहाँ ने देवीसिंह बुन्देला को ओरछा का राज्य सौंप दिया। परन्तु वह ओरछा की विद्रोही जनता पर काबू नहीं कर पाया और 1636 ई. में ही हटा दिया गया। इसके बाद जुझारसिंह बुन्देला के अल्पायु पुत्र को ओरछा का शासक बनाया गया। परन्तु वह और उसके समर्थक ओरछा राज्य के सामंतों पर काबू नहीं कर सके, पूरे क्षेत्र में अराजकता का वातावरण बन गया था। इस कमजोर स्थिति का लाभ उठाते हुए नुना - महोबा के जागीरदार चम्पतराय बुन्देला जो स्वभाव से उग्र व जन्मजात विद्रोही था, ने ओरछा पर कब्जा जमाने का प्रयास किया। ओरछा की इन्हीं अराजक स्थितियों से तंग होकर, शाहजहाँ ने वीरसिंहदेव बुन्देला के द्वितीय पुत्र पहाड़सिंह को, जो मुगल मनसबदार -सेनापति के रूप में दक्षिण भारत में कार्यरत् था, सन् 1641 ई. में ओरछा का शासक नियुक्त कर दिया था।
राजा पहाड़सिंह बुन्देला और उसके उत्तराधिकारी
- पहाड़सिंह बुन्देला (1641 - 1653 ई.) के समय से ओरछा के शासकों ने पूरी तरह से बुन्देलखण्ड में मुगल सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में शासन चलाया था। मुगलों की यह नीति थी कि वे बुन्देला शासकों को मनसब प्रदान कर, सेनानायक का पद देकर सुदूर दक्षिण भारत या पश्चिमी भारत में चल रहे मुगल युद्ध अभियानों में भेजकर बुन्देलखण्ड क्षेत्र से काटकर रखते थे। बुन्देले शासक-सेनानायकों के साथ बुन्देलखण्ड के क्षेत्रीय साधन सैनिक, मजदूर, रसद, कामदार - उत्पादक सभी प्रकार के लोग जाते थे। पहाड़सिंह के पूर्व के ओरछा के शासकों में जो जुझारूपन और संगठन क्षमता वह पूरी तरह विलुप्त हो चुकी थी। मुगलों की ओर से पहाड़सिंह ने चम्पतराय बुन्देला के विद्रोह का दमन कर, उन्हें मुगलों के प्रति वफादार बनाने में सहयोग दिया था। सन् 1645, 1648, 1652 ई. में बल्ख, काबुल, कंधार के युद्ध - अभियानों में पहाड़सिंह ने मुगलों की ओर से भाग लिया था।" पहाड़सिंह को मुगल बादशाह शाहजहाँ ने 5000 जात और 2000 सबार का मनसब दिया था और उनका निधन, 1635 ई. में हुआ था।
- पहाड़सिंह के बाद उनका उत्तराधिकारी उनका पुत्र सुजानसिंह बुन्देला (1653-1672 ई.) ओरछा की गद्दी पर बैठा था। सुजान सिंह को 3000 हजारी जात, 2500 सबार का मनसब मुगलों की ओर से मिला हुआ था। उन्होंने मुगलों की ओर से 1655 ई. में कश्मीर में, 1657 ई. में दक्षिण में और 1661 ई. में कूच बिहार के युद्धों में भाग लिया था । बुन्देलखण्ड में चम्पतराय बुन्देला के दमन में भी उन्होंने योगदान दिया था। सन् 1658 ई. में औरंगजेब मुगल बादशाह हो गया था, वह जिद्दी स्वभाव का और हिन्दू - भारतीय जनता के प्रति अनुदार था। फलतः बुन्देलखण्ड में जनविद्रोह होने लगे थे। सुजानसिंह बुन्देला के कोई संतान नहीं थी, अतः उसके बाद उसका भाई इन्द्रमणि बुन्देला (1672-1675 ई.) में ओरछा की गद्दी पर बैठा। इसके समय ओरछा सेंगर राजपूतों ने आक्रमण किया था, परन्तु इन्द्रमणि ने इस आक्रमण को विफल कर दिया । इन्द्रमणि बुन्देला ने मुगलों के साथ कश्मीर एवं दक्षिण के मुगल अभियानों में भी भाग लिया था ।
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