पन्ना राज्य के उद्भव और उत्कर्ष का इतिहास | Panna Origin History

पन्ना राज्य के उद्भव और उत्कर्ष का इतिहास

पन्ना राज्य के उद्भव और उत्कर्ष का इतिहास | Panna Origin History


 

पन्ना राज्य के उद्भव और उत्कर्ष का इतिहास

चंपतराय बुन्देला 

  • चंपतराय बुन्देला पन्ना के शासकमहाराजा छत्रसाल बुन्देला का पिता था। वह ओरछा के संस्थापक रुद्रप्रताप के तीसरे पुत्रउदयाजीत का पौत्र था। उसे ओरछा राज्य की महेबा की छोटी सी महत्वहीन जागीर मिली थीजिसे नुना-महेबा या महेबा चक भी कहा जाता है। यह स्थान टीकमगढ़ जिले की जतारा तहसील के अंतर्गत स्थित है। चंपतराय का जन्म सन् 1600 ई. में और मृत्यु 1661 ई. में हुई थी। उसकी सक्रियता का काल मुगल बादशाह शाहजहाँ और औरंगजेब के बीच का रहा था। मुगल विरोधी गतिविधियों का संचालन कर उसने बुन्देलखण्ड के सामंतों-जागीरदारों को शक्ति के रूप में परिवर्तित किया था। चंपतराय ने अपनी सक्रियता के चलते 1636-1641 ई. के काल में ओरछा पर भी अधिकार कर लिया था। ओरछा की जनता को काबू में करउसने मुगल सत्ता को चुनौती दे डाली थी । यद्यपि भुलावे में आकर ओरछा के चतुर शासक पहाड़सिंह बुन्देला (1641-1653 ई.) ने चंपतराय को मुगल सेवा स्वीकार करने के लिए तैयार कर लिया था। परंतु वह अंत में मुगलों की चालाकी को समझकर पुनः विद्रोही हो गया था। छत्रसाल बुन्देलाउसका यशस्वी पुत्र थाजिसने बुन्देलखण्ड के पूर्वी डंगाई भाग में नवीन पन्ना - राज्य की स्थापना की थी । 

 

छत्रसाल बुन्देला का उत्कर्ष 

  • बुन्देलखण्ड के इतिहास में महाबली नाम से विख्यात छत्रसाल बुन्देला का जन्म 4 मई, 1649 ई. को हुआ था। बचपन में ही उसने शस्त्र-संचालनमल्लयुद्ध और घुड़सवारी में दक्षता प्राप्त कर ली थी। वह स्वभाव से श्रद्धाभावीधार्मिक प्रवृत्ति का था। मात्र 16 वर्ष की आयु में छत्रसाल ने दक्षिण भारत के मुगल अभियान के सेनानायक मिर्जाराजा जयसिंह की सेना में कार्य करना स्वीकार कर लिया था। परन्तु मुगलों की सेवा में उसका मन नहीं लगा था। वह बुन्देलखण्ड में अपनी स्वतंत्र सत्ता जमाने का इच्छुक था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह दक्षिण के मुगल अभियान के दौरान चतुराई से खिसककर मराठा छत्रपति शिवाजी से सलाह-मशविरा करने के उद्देश्य से सन् 1667 ई. के अंत में मिला था। छत्रपति ने छत्रसाल को प्रेरित कियातमाम प्रकार की राजनीतिक-कूटनीतिक की शिक्षाएँ दीं और बुन्देलखण्ड में जाकर स्वतंत्रता युद्ध छेड़ने के लिए उससे कहा। छत्रसाल बुन्देला के मन में पहले से ही मुगल सत्ता के प्रति आक्रोश थाअतः उसने निश्चय किया कि वह अपने अंचल में जाकर हिन्दू धर्म संस्कृति की रक्षा करेगा और मुगलों को उस अंचल से निकालकर ही दम लेंगा। छत्रसाल बुन्देला के मन में छिपी हुई विद्रोह की अग्नि को मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज ने ही धधकाया था।

 

  • कवि गोरेलाल ब्रह्मभट्ट उर्फ लाल कवि ने अपने काव्यग्रंथ प्रकाश में लिखा है किशिवाजी ने इस समय छत्रसाल की कमर में तलबार बाँध कर कहा था कि जाओ तुरकों को अपने अंचल से निकाल बाहर करोसेना का संगठन तैयार करो और भवानी का नाम लेकर प्रदेश के शत्रुओं से जूझ पड़ो । ब्रजनाथ अर्थात् गोपाल कृष्ण सदैव तुम्हारी रक्षा करेंगे। छत्रसाल को शिवाजी द्वारा दिए गए गुरूमंत्र में स्पष्ट रूप से यह राजनीतिक भाव छिपा दिखता हैकि यदि बुन्देलखण्ड के बुन्देले ठाकुर एकजुट होकर अपने अंचल में मुगलों पर टूट पड़ेंगेतो मुगलों को मराठा प्रदेश के युद्ध अभियानों में बुन्देलों की सैनिक सहायता नहीं मिल पाएगी। दूसरेमुगलों को बुन्देलखण्ड के बुन्देलों से भी उनके क्षेत्र में जब जूझना पड़ेगातो उनकी सैनिक शक्ति विखण्डित होकर कई जगह बँट जाएगी। मराठा छत्रपति शिवाजी का छत्रसाल को संघर्ष के लिए प्रेरित उत्प्रेरित करने की समझ में स्पष्ट रूप से शिवाजी की राजनीतिक- कूटनीतिक दूरदृष्टि दिखाई देती है। जदुनाथ सरकार ने भी इसी प्रकार की भावना का समर्थन करते हुए लिखा है," छत्रसाल एक दिन मुगल शिविर से शिकार खेलने के बहाने भाग निकला और अपनी स्त्री के साथ महाराष्ट्र के लिए अज्ञात और घूमघुमाव के मार्गों से होता हुआ महाराष्ट्र पहुँचा। उसने सम्राट के विरुद्ध शिवाजी की सेवा में रहने की इच्छा प्रकट की। शिवाजी ने उसका सम्मानपूर्वक अभिनन्दन कियाउसकी वीरता की प्रशंसा कीपरन्तु उन्होंने उसे यह परामर्श देकर वापस कर दिया कि वह औरंगजेब के विरुद्ध बुन्देलखण्ड में विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देउन्होंने ये शब्द कहे, "यशस्वी सरदार अपने बैरियों पर विजय प्राप्त करो और उन्हें आधीन करो। अपनी जन्मभूमि को पुनः प्राप्त करो और उस पर शासन करोयही वांछनीय है कि अपने राज्य में युद्ध आरंभ कर दो जहाँ तुम्हारी ख्याति के कारण अनेक अनुगामी मिल जायेंगे। जब कभी तुम पर मुगल आक्रमण करने का विचार करेंगे मैं उनका ध्यान हटा दूँगा और तुम्हारे साथ क्रियाशील सहयोग देकर उनकी योजनाओं को विफल कर दूँगा” .

 

छत्रसाल की प्रगति

 

छत्रसाल ने दक्षिण में उपस्थित दतिया के शासक शुभकरन बुन्देला के समक्ष अपना प्रस्ताव रखा कि हम सब लोग मिलकर मुगलों को बुन्देलखण्ड से बाहर निकालने का प्रयास करें। पर शुभकरन यह साहस नहीं दिखा सका उसने उल्टे छत्रसाल के मन की विद्रोही आग को शांत करने का प्रयास किया। इस समय छत्रसाल स्वतंत्रता संघर्ष के लक्ष्य को हासिल करने के लिए सैनिक साधनों को जुटाने का प्रयास कर रहा था । इसी समय 1669 ई. के मध्य में ग्वालियर के फौजदार फिदाईखाँ ने औरंगजेब के आदेश से ओरछा के शासक सुजानसिंह की अनुपस्थिति में वहाँ के मंदिरों को गिराने का प्रयास भी किया। उल्लेखनीय है कि इस समय ओरछा का शासक सुजानसिंह मुगल सेवा के आधीन दक्षिण भारत में कार्य कर रहा था। समकालीन कवि लाल ने इस घटना का उल्लेख करते हुएलिखा है-

 

ढाहि देवालय कुफर मिटाऊंतिनके ठौर मसीत बनाऊं । 

पातिसाहि का नाउं चलाऊ तबै फिदाईखान कहाऊं ।

जो कहु बीच बुन्देला आवै तौ हमसौं वह फतै न पावै ।

यों मानी मनसूबनि मौजैंजोरन लगे ग्वालियर फौजें ।

 

इसी समय छत्रसाल को अपने चचेरे भाई बलदीवान से सहयोग का आश्वासन भी मिल गया था। छत्रसाल के मुगल विरोधी संगठन गढ़ने के प्रयासों को लगातार सफलता मिली थी। उसने बुन्देलखण्ड में वापस आकर पहाड़ियों और जंगलों से सुरक्षित स्थान मऊथ को अपना सुरक्षित सैन्य ठिकाना बनाया। उसके बाद उसने मालवा के धंधेरखंड और बुन्देलखण्ड के धामौनी के मुगल क्षेत्रों में लगातार धावे कर मुगल थाने लूटे और उन साधनों से अपने सैनिक संगठन को विकसित किया ।

 

पन्ना में राजधानी 

  • मुगलकालीन परगनेधामौनी में मुगल फौजदार रहता थायह स्थान छत्रसाल के मऊ सैनिक ठिकाने से दक्षिण की ओर 45 कि.मी. के करीब थावर्तमान में धामौनी सागर जिले मेंझाँसी - सागर मार्ग से लगा हुआ है। छत्रसाल ने धामौनी के आसपास के मुगल क्षेत्रों में जमकर गुरिल्ला धावे किए। उसके घावों से घबड़ाकर बादशाह औरंगजेब ने अप्रैल, 1673 ई. में रुहिल्लाखाँ को धामौनी का फौजदार नियत कर आसपास के बुन्देला शासकों को आदेश दिया कि वह छत्रसाल की सत्ता विरोधी गतिविधियों पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित करें। पर अथक परिश्रम व प्रयास करने पर भी रुहिल्लाखाँ छत्रसाल को पराजित न कर सका था। छत्रसाल बुन्देलखण्ड के नदी-नालोंवनों पर्वतोंटोहों खोहों - आदि से गहरे से जुड़े हुए थे। उसका बुन्देलखण्ड का भौगोलिक ज्ञान और उसकी सैनिक प्रतिभा उसे सदैव विजयी बनाती रहती थी। छत्रसाल की सफलताओं से उत्साहित होकर अनेक ठाकुर सामंत जागीरदार उसके समर्थक बन उसकी सेना में लगातार शामिल हो रहे थे। अब छत्रसाल ने मुगल सूबा आगरा के जिला नरवर के मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण कर उनसे धन वसूल कर लिया। मुगल सत्ता समर्थक ओरछा के क्षेत्रों पर भी उसने धावे कर उन पर अपना अधिकार जमाकर अपनी सत्ता का इस समय विस्तार किया। पन्ना में गौड़ आदिवासी भी रहते थेघनघोर वनों से घिरे इस स्थान पर इनका ही प्रभाव था। छत्रसाल ने अपने "डंगाई राज्य" की राजधानी के लिए इस स्थान को उपयुक्त समझ यहाँ 1675 ई. में अपने राज्य की नवीन राजधानी स्थापित की थी। बुन्देलखण्ड में डांग का तात्पर्य से होता है। माना जाता है कि यहाँ की खदानों से पन्ना- हीरा आदि रत्न निकलने के कारण इस स्थान का नाम पन्ना पड़ा था। वर्तमान में यह मध्यप्रदेश का एक जिला मुख्यालय है। छत्रसाल ने अपनी मुगल सत्ता विरोधी नीति जारी रखी और सन् 1677 ई. में मालवा सूबा की रायसेन सरकार के क्षेत्रों से धन वसूली कर ली. इसी क्रम में राठमहोबाग्वालियरधामौनीसागरदमोह आदि के मुगल क्षेत्रों से भी उसने धन वसूली की। छत्रसाल की चपलताउसका बड़ा गुण थी। वह निर्भीक था। और सदैव गतिमान रहता था। पन्ना के आसपास के तमाम मुगल क्षेत्रों को उसने अपने राज्य का अंग बना लिया था। शक्तिशाली गुगल फौजदार तहाब्बरखाँ भी उसका कुछ न बिगाड़ सका था। 

 

छत्रसाल की मुगल सत्ता से आँख मिचौली 

  • सन् 1679 ई. तक छत्रसाल ने डंगाई क्षेत्र अर्थात् पूर्वी बुन्देलखण्ड में एक विस्तृत राज्य स्थापित कर लिया था। इस राज्य का विस्तार उत्तर में कालपीदक्षिण में सागर-सिरोंज और पश्चिम में ओरछा -दतिया राज्य की सीमा तक था। इस राज्य की रक्षा के लिए तथा व्यवस्थित एवं संगठित करने के उद्देश्य से छत्रसाल ने पतनोन्मुख मुगल सत्ता के प्रति "आँख मिचौली" की सत्ता नीति का अनुसरण किया था। इस काल में वह लगातार मुगल सत्ता के संरक्षण को कभी करता दिखा तो कभी अस्वीकार करते लगातार आसपास के मुगल प्रतिनिधियों से जूझते उनके क्षेत्रों में घुसकर धन वसूल करता दिखा। मध्यकालीन बुन्देलखण्ड के इतिहास में छत्रसाल बुन्देला से अधिक चतुर राजनीतिज्ञकूटनीतिज्ञ कोई नहीं हुआ है। उसने मुगल सत्ता का विरोध और मुकाबलाउन्हीं की कुटिल चालों से किया ।

 

  • सन् 1679 ई. में इलाहाबाद के सूबेदार हिम्मतखाँग्वालियर के फौजदार अमानुल्लाखाँ व क्षेत्र के अन्य पड़ोसी जागीरदारों की सेनायें भी उसका कुछ न बिगाड़ सकी थीं। उसने इसी बीच 1680 ई. के आसपास कालपी के मुगल क्षेत्रों से धन वसूली कर ली थी। मालवा सूबे के गागरोन के समीप खैरागढ़ के मुगल फौजदार शेख अनवर को छत्रसाल ने पराजित कर उससे दो लाख रूपये वसूल कर लिये थे । औरंगजेब के आदेश पर धामौनी के फौजदार सदरुद्दीन ने 1680 ई. के मध्य में जब छत्रसाल पर आक्रमण किया। उस समय वह स्वयं हयमलिक के हाथों बंदी हो गया था और धन देकर ही वह अपने प्राण बचा पाया था। इसी क्रम में छत्रसाल ने चित्रकूट के मुगल प्रतिनिधि हमीदखाँकोटरा के फौजदार सैयद लतीफभेलसा के अब्दुस समदधामौनी के बहलोलखाँ आदि को पराजित किया था। वह लगातार अपने राज्य के समीप के मुगल पदाधिकारियों पर दबाब बनाये रखने में विश्वास रखता था।

 

  • औरंगजेब अपने प्रमुख सेनानायकों के साथ सन् 1681 ई. में दक्षिण भारत के मराठा विरोधी अभियानों का नेतृत्व करने के लिए स्वयं वहाँ जा पहुँचा था। इधर छत्रसाल ने इस सुयोग का लाभ उठाकर उसका मनसब और संरक्षण स्वीकार करने के बाद भी धामौनी महोबा के मुगल क्षेत्रों पर आक्रमण जारी रखे थे। इस बीच छत्रसाल ने धामौनी के फौजदार इखलासखाँसिहुंड़ा के मुरादखाँ और सन् 1682 ई. में धामौनी के नए फौजदार शमशेरखाँ से लोहा लिया था। कालिंजर का किलेदार मुहम्मद अफजल भी छत्रसाल का कुछ न बिगाड़ सका थासन् 1682 ई. के काल में उन्होंने गुना और दमोह के क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया था। छत्रसाल बुन्देला प्रायः बुन्देलखण्ड से जुड़े हुए मुगल परगनोंथानोंठिकानों पर आक्रमण कर वहाँ से रसदसैनिक साजोसामानधन आदि वसूल कर लिया करते थे। यह सामग्री उनके युद्ध संचालन के काम आती थी और इन आक्रमणों से मुगल थाने सदैव भयाक्रांत बने रहते थे। सन् 1683 ई. में राठ और एरच के फौजदार शाहकुलीनखाँ ने बहुत प्रयास कियेपर वे भी छत्रसाल को कोई बड़ी हानि नहीं पहुंचा सके थे। छत्रसाल विषम परिस्थिति से बाहर निकलकर विजय का वरण करने में सफल हो जाता था। सन् 1685 ई. तक छत्रसाल ने मुगल थानों के स्थान राठपनबारीहमीरपुरएरच और धामौनी के अनेक गाँव अपने राज्य में मिला लिये थे और कालिंजर के महत्वपूर्ण दुर्ग पर अपना किलेदार बैठा दिया था। छत्रसाल अपना मुकाम बना बुन्देलखण्ड के अधिकांश भाग पर कब्जा करलक्ष्य प्राप्त कर चुका था। अतः उन्होंने 1706 ई. के अंत में औरंगजेब का मनसब स्वीकार कर लियाइस समय औरंगजेब ने उन्हें राजा की उपाधि दी और 4000 हजार का मनसब प्रदान किया था। फरवरी, 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के साथ मुगल शक्ति और सत्ता का दीपक बुझने लगा |

 

छत्रसाल की स्वामी प्राणनाथ से भेंट 

  • स्वामी प्राणनाथ का बचपन का नाम मेहराज थाइनका जन्म क्षत्रिय परिवार में गुजरात के जामनगर में 6 सितम्बर, 1618 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम केशव ठाकुर और माता का नाम धनबाई था। बारह वर्ष की उम्र में प्रणामी संप्रदाय के प्रवर्तक देवचन्द्र से इनका साक्षात्कार हुआ था । उसी समय से मेहराज उनके प्रभाव में आ गये थे। मेहराज ने लगातार देवचन्द्र के सम्पर्क में रहकर उनके सिद्धान्तों का श्रवण किया और हिन्दू धर्म-ग्रन्थों का गंभीरता से अध्ययन किया। देवचन्द्र ने अपनी मृत्यु के समय सितम्बर 1655 ई. में अपने शिष्य प्राणनाथ से अपने उपदेशों और सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार उत्तर भारत में करने के लिए कहा था। गुरू की प्रेरणा को पूरी सद्इच्छा से ग्रहण करते हुए प्राणनाथ ने उनके सिद्धान्तों के प्रचार के लिए मन ही मन में ठान ली थी।

 

इस धर्म के सिद्धान्तों के विषय में कहा जाता है कि "गुरू देवचन्द्र ने सभी धर्मों की मौलिक एकता की ध्यान आकर्षित करते हुए जिस एक सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की उसे "निजानंद सम्प्रदाय" के नाम से जाना गया और जो कालान्तर में "प्रणामी सम्प्रदाय" के नाम से प्रचारित हुआ। इस सम्प्रदाय का विश्व के समस्त धर्मों से किसी न किसी रूप में सम्बन्ध है। क्योंकि इस सम्प्रदाय में सब धर्मों के मौलिक सिद्धान्त समाहित हैं।" इस सम्प्रदाय का मुख्य धर्मग्रन्थ कुलजम हैप्राणनाथ जी कहते हैं- नाम सारों जुदा धरे । लई सबों जुदी रसम ।। सब में उमत और दुनिया सोई खुदा सोई ब्रह्म ।। यह महज एक संयोग हैकि स्वामी प्राणनाथ के जन्म के दो माह बाद नवम्बर, 1618 ई. में औरंगजेब का जन्म हुआ था। औरंगजेब के राज्य संचालन का प्रमुख सिद्धान्त धार्मिक अनुदारता थीवह इस देश की बहुसंख्यक हिन्दू जनता के साथ कट्टरता का व्यवहार करता था। प्राणनाथ ने अपने उपदेश में कहा है-

 

सत न छोड़ो रे सत्यवादियो । जोर बढ्यो तुरकान ।।

त्रैलोकी में रे उत्तम खंड भरत कौ । तामैं उत्तम हिंदू धरम ।। 

ताके छत्रपतियों के सिर ।। आये रही इत सरम ।

असुर लगाये रे हिंदुओं पर जेजिया । वाकों मिले नहीं शानपान ।। 

जो गरीब न दे सके जेजिया । ताय मार करे मुसलमान ।। 

बात सुनी रे बुंदेले छत्रसाल ने आगे आय खड़ा ले तरबार ।। 

सेवा ने लई रे सारी सिर खेंच के ।। साँहू ने किया सेन्यापति सिरदार ।।

 

प्राणनाथ औरंगजेब बादशाह की धर्मान्धताअन्यायवादी नीति एवं उसकी कट्टरता को तलवार के जोर पर चुनौती देने वाले की तलाश में गुजरात से उत्तर भारत आए थे। छत्रसाल बुन्देला की कीर्ति सुनकर उनके क्षेत्र मऊ व बाद में पन्ना पहुँचे थे। प्राणनाथ की छत्रसाल से भेंट मऊ के समीप 1683 में हुई थी। इसके बाद प्राणनाथ अपनी मृत्यु 29 जून, 1694 ई. तक बुन्देलखण्ड के पन्ना में ही रहे थे। इस घटना से यह आभास होता हैकि छत्रसाल से भेंट के बादस्वामी प्राणनाथ को अपना राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त हो गया था और छत्रसाल को गुरू के रूप में अपना आध्यात्मिक सहयोगी मिल गया था। दोनों एक दूसरे के राजनीतिक पूरक बन गए थे। तत्कालीन समय में प्राणनाथ के समन्वयवादी उपदेशों से बुन्देलखण्ड की जनता के मन में संगठित होकर छत्रसाल के समर्थन में खड़े होने की भावना का विकास हुआ था। स्वामी प्राणनाथ ने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया थाकि 1687 ई. में 38 वर्ष की अवस्था में छत्रसाल को आशीर्वाद देकर उसका पन्ना में राजतिलक कर दिया था। और इस समय प्राणनाथ ने छत्रसाल को छत्रधारी महाराज की उपाधि दी थी। स्वामी प्राणनाथ के सर्वधर्म समन्वयवादी जाति विहीन समाज के उपदेशतत्कालीन विकृत मुगल राजनीति की प्रतिक्रिया की उपज थे। छत्रसाल बुन्देला ने अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए इनका सफलतापूर्वक उपयोग किया था ।"

 

छत्रसाल बुन्देला और औरंगजेब के उत्तराधिकारी 

औरंगजेब के बाद उसका पुत्र बहादुरशाह मुगल गद्दी का उत्तराधिकारी हुआ था। मुगल सत्ता पतन के मार्ग की ओर चल पड़ी थी और चारों ओर विद्रोहों का बोलबाला था। छत्रसाल बुन्देला ने आधे से अधिक बुन्देलखण्ड को अपने आधीन कर लिया था। अठारहवीं सदी के प्रारंभ में ओरछा के स्थान पर पन्ना का महत्व काफी बढ़ गया था। मुगल बादशाह बहादुरशाह से छत्रसाल के मधुर संबंध बन गए थेउसने छत्रसाल को राजा की उपाधि और 5000 हजार का मनसब प्रदान किया था। बहादुरशाह ने छत्रसाल के पुत्रों व संबंधियों को भी मनसब दिए थे। सन् 1710 ई. के अन्त में छत्रसाल ने सिक्खों के विद्रोह के दमन में मुगलों की ओर से भाग लिया था। इस समय छत्रसाल की आयु 61 वर्ष के करीब हो चली थी और वह अपने स्थापित राज्य को मुगल सत्ता से मान्यता प्राप्त कर उसे स्थाई रूप देना चाहता था। अपने युवा पुत्रों के भविष्य को देखते हुए इस समय उसने मुगलों के प्रति उदारनीति का पालन करना शुरू कर दिया था। सन् 1712 ई. में बहादुरशाह के बाद जहाँदारशाह बादशाह हुआपरन्तु वह अपने गिरे हुए आचरण के कारण एक ही वर्ष में मार डाला गया था। इसके बाद फर्रुखसियर (17131719 ई.) मुगल गद्दी का उत्तराधिकारी हुआ। इस काल में छत्रसाल का मनसब 6000 हजारी जात का हो गया था। सन् 1713 ई. में सवाई जयसिंह को मालवा का सूबेदार बनाया गया था। दक्षिण के मराठे मालवा के क्षेत्रों में लगातार इस समय लूटमार मचाये हुए थे। छत्रसाल बुन्देला का राज्य मालवा की सीमा से लगा हुआ था । अतः उन्होंने सवाई जयसिंह से संपर्क स्थापित कर उनके साथ मिलकर मराठों को दबाने के अभियान में शामिल होने की हामी भरी थी। बुन्देलखण्ड के बुन्देला शासकसवाई जयसिंह को मुगल राजनीति में अपना पहरेदार मानते थे। छत्रसाल ने जयसिंह के साथ मिलकर मालवा में सक्रिय विद्रोही अफगान दिलेरखान को 1715 ई. में पराजित किया था। बादशाह फर्रुखसियर के राज्यकाल में छत्रसाल बुन्देला की नीतियों और योजनाओं को पूरी तरह आधार मिला था। फर्रुखसियर के बाद 1719 ई. में रफी-उद-दरजात और रफीउद्दौला दो असफल बादशाह गद्दी पर बैठेइनके बाद मुहम्मदशाह (1719-1748 ई.) मुगल गद्दी का उत्तराधिकारी हुआ था |

 

मुगल सत्ता से अंतिम बड़ा युद्ध 

  • बादशाह मुहम्मदशाह ने मुहम्मदखाँ बंगश को सन् 1720 ई. के दिसम्बर माह में इलाहबाद का सूबेदार नियत कर एरचकालपीभांडेरशिवपुरी (सीपरी )जालौन आदि के मुगल परगने उसे सौंप दिये थे। इन मुगल परगनों और थानों के क्षेत्रों पर छत्रसाल का पहले से ही अधिकार थादूसरी ओर बंगश भी पूर्व से ही बुन्देलखण्ड के इन भागों की भौगोलिक परिस्थिति से अच्छी तरह परिचित था अतः इन दोनों की महत्वाकांक्षा के बीच युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया था। सन् 1720 ई. के अंतिम भाग में बंगश के सिपहसालार दिलेरखाँ से कालपी - जलालपुर के समीप छत्रसाल से मुठभेड़ हुईजिसमें छत्रसाल की जीत हुई। दिलेरखाँ से युद्ध के समय दतिया के रामचन्द्रओरछा के उदोतसिंह एवं देरी के दुर्जनसिंह बुन्देला ने छत्रसाल का पूरा साथ दिया था। ऐसा सवाई जयसिंह के कहने पर हुआ थाक्योंकि मुगल राजनीति में जयपुर के सवाई जयसिंहमोहम्मद बंगश के विरोधी दल का नेतृत्व करते थे। इन युद्धों में मई 1721 ई. में दिलेरखाँ की मृत्यु हो गई थी। सन् 1724 ई. के जुलाई माह में बंगश ने छत्रसाल को पराजित करने का एक और असफल प्रयास किया था। सन् 1726 से लेकर अगस्त, 1729 ई. तक मुहम्मद बंगश और छत्रसाल के बीच कई सैनिक मुठभेड़ें हुई थीं और अंत में जैतपुर दुर्ग के पतन के बाद छत्रसाल ने बंगश से अपनी पराजय स्वीकार कर उसके आधिपत्य में रहना स्वीकार कर लिया था। परंतु विधि का लिखा कोई नहीं मेंट सकता हैछत्रसाल बंगश से होली के त्यौहार का अवकाश लेकर उसकी छावनी से निकल भागने में सफल हो गया। फिर क्या थाछत्रसाल बुन्देला ने मराठा राज्य के कर्ताधर्ता बाजीराव पेशवा प्रथम से सामयिक सहायता प्राप्त कर मोहम्मद बंगश को पराजय स्वीकार करने के लिए लाचार कर दिया था। छत्रसाल बुन्देला का मराठों से यह संपर्क तत्कालीन विजय का लाभ तो दिला सका थापरन्तु दीर्घकाल में जब मराठों ने संधि की शर्तों के अनुसार छत्रसाल के राज्य का एक तिहाई भाग उसके पुत्रों से ले लिया था । तब यह घटनाक्रम बुन्देलखण्ड के इतिहास में फूटन - टूटन एवं अवैध चौथ वसूली की नई संस्कृति को लेकर अवतरित हुआ था 

 

छत्रसाल का स्वर्गवासउनका राज्य और परिवार 

  • छत्रसाल बुन्देलखण्ड के गौरवपूर्ण इतिहास में, "महाराजाधिराजछत्रसाल बुन्देला" के नाम से विख्यात है। "डंगाई क्षेत्र" अर्थात् पूर्वी बुन्देलखण्ड के भागों का कोई भी गाँव- कस्बा ऐसा नहीं हैजहाँ छत्रसाल महाबली की याद का कोई स्मृति चिन्ह या कोई यादगार घटना वहाँ सुनी या देखी न जा सके। स्वर्गारोहण के पूर्व के अंतिम वर्षों में छत्रसाल को अपने राज्य के संगठन की चिंता सताने लगी थीक्योंकि उसके दोनों पुत्रों हृदयशाह और जगतराज के बीच राज्य के बँटबारे को लेकर मतभेद रहते थे। दूसरेवायदे के अनुसार राज्य का तीसरा भाग मराठी सत्ता के कर्ताधर्ता बाजीराव पेशवा प्रथम को सौंपा जाना था। इन सब चिंताओं के बीच, 4 दिसम्बर, 1731 ई. को 81 वर्ष की आयु में छत्रसाल का स्वर्गवास हो गया था। छत्रसाल ने बुन्देलखण्ड के पूर्वी क्षेत्र पर एकछत्र राज्य कर नवीन संगठनात्मक प्रवृत्ति को जन्म देकर स्वतंत्र चेतना के बोध की रक्षा की थी. 

 

  • छत्रसाल के राज्य में उत्तरप्रदेश के झाँसी - ललितपुर का कुछ हिस्साजालौनबाँदाहमीरपुरमहोबाचित्रकूट जिले के भाग और मध्यप्रदेश में विलीन हुई अजयगढ़चरखारीपन्नाबिजावरशाहगढ़छतरपुरसरीलाअलीपुरा आदि रियासतों के साथ सागर ओर सिरोज का भी कुछ हिस्सा शामिल था। बुन्देलखण्ड के अधिकांश भाग को एक सूत्र में पिरोकर छत्रसाल ने बुन्देलखण्ड के डंगाई संभाग की नींव रखी थी। छत्रसाल की रानियों एवं पुत्रों की संख्या के विषय में मतैक्य नहीं है। प्रमुख रूप से यह माना जाता है कि छत्रसाल नये क्षेत्रों को जीतने के बाद उनके उस क्षेत्र के शासक की कन्या से विवाह कर राजनीतिक शक्ति के ध्रुवीकरण का प्रयास करता था। हृदयशाहजगतराजपदमसिंह और भारतीचंद उसके प्रमुख पुत्र थे। 

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.