मूत्र त्याग | Urination Process or Micturition
मूत्र त्याग Urination Process or Micturition
मूत्र त्याग Urination Process or Micturition
- वह क्रिया जिसके द्वारा मूत्र से भरा मूत्राशय खाली होता है, मूत्र त्याग कहलाता है। यह क्रिया तंत्रिकीय क्रियाविधि (Nervous mechanism) द्वारा नियंत्रित होती है। जैसे-जैसे मूत्राशय में मूत्र भरता है, वैसे-वैसे यह फैलता जाता है। जब इसमें मूत्र का दबाव अधिक हो जाता है तो अचानक तंत्रिकीय गतिविधि प्रारंभ हो जाती है। इसके फलस्वरूप मूत्राशय की दीवार की चिकनी पेशियों (Smooth muscles) सिकुड़ने लगती हैं। इसी समय, मूत्र मार्ग की नली में पायी जाने वाली स्फिंक्टर (Urethral sphincters)/ में शिथिलन (Relaxation) की क्रिया होती है। इसके फलस्वरूप मूत्र, मूत्रमार्ग से बाहर निकल जाता है। मूत्र त्याग की क्रिया ऐच्छिक (Voluntary) अथवा अनैच्छिक (Involuntary) दोनों हो सकती है, परंतु ऐच्छिक मूत्रत्याग देर से होता है। गर्मी के दिनों में जब शरीर अधिक गर्म वातावरण में होता है तब त्वचा से बहुत अधिक पसीना निकलता है क्योंकि त्वचीय रुधिर वाहिनियाँ फैलकर चौड़ी तथा उदरीय व रोनल रुधिर वाहिकाएँ संकुचित होकर संकरी हो जाती हैं। इसके विपरीत जाड़े के दिनों में त्वचीय रुधिर वाहिकाएँ संकुचित होकर पसीना निकलने को रोक देती हैं लेकिन उदरीय और रीनल रुधिर वाहिकाएँ चौड़ी हो जाती हैं, फलतः मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है। इस प्रकार पसीने का निकलना मूत्र निर्माण से सम्बन्धित होता है। मूत्र का रासायनिक संघटन स्थिर न रहकर हमेशा बदलता रहता है फिर भी सामान्य अवस्था में कोई विशिष्ट परिवर्तन नहीं होता।
प्लाज्मा के नियमन में वृक्क की भूमिका या वृक्क द्वारा परासरण नियन्त्रण
- शरीर या कोशिका या रुधिर में उपस्थित जल की मात्रा का परासरण की क्रिया द्वारा नियन्त्रण परासरण नियन्त्रण (Osmoregulation) कहलाता है। "वह प्रक्रिया जिसके द्वारा शारीरिक द्रवों का परासरण दाब विभिन्न पदार्थों (जैसे- जल, लवण) को मिलाकर अथवा हटाकर नियंत्रित रखा जाता है उसे परासरण नियंत्रण कहते हैं।" हमारे शरीर में यह कार्य वृक्क द्वारा किया जाता है, शेष जन्तु भी इस कार्य को उत्सर्जी अंगों के द्वारा ही करते हैं। हमारे शरीर का लगभग 50-60% भाग जल होता है, इसके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन शरीर में जल की अधिकता और कमी दोनों ही स्थितियाँ जीवों के लिए हानिकारक होती हैं, इस कारण वृक्क और दूसरे अंग हमारे शरीर में जल की आवश्यक मात्रा को हमेशा नियमित बनाये रखते हैं। हमारे शरीर में जल का परिवहन रुधिर के रूप में होता है और यह जल रुधिर में भोजन अवशोषण द्वारा आता है और रुधिर प्लाज्मा में घुला रहता है। रुधिर की प्लाज्मा में उपस्थित जल की इस मात्रा का नियन्त्रण वृक्क की वृक्क नलिकाएँ या नेफ्रॉन्स करते हैं।
- जब हमारे शरीर में जल को मात्रा अधिक हो जाती है। तब वृक्क के नेफ्रॉन्स इसे रुधिर से अवशोषित कर के मूत्र को तनु और अधिक मात्रा में बनाते हैं लेकिन जब शरीर में जल की मात्रा कम हो जाती है तब वृक्क नलिकाएँ जल अवशोषण को कम कर देतो हैं जिससे मूत्र कम तथा गाढ़ा हो जाता है। मूत्र की प्रकृति में ये परिवर्तन नेफ्रॉन्स की दूरस्थ कुण्डलित नलिकाओं और संग्रह नलिकाओं को पारगम्यता में परिवर्तन के कारण पैदा होते हैं और इनकी पारगम्यता का नियन्त्रण दो हॉर्मोनों के द्वारा किया जाता है। पहला हॉर्मोन एल्डोस्टीरॉन (Aldosterone) है जो वृक्क नलिकाओं के निस्यंद (Filtrate) से Na* के पुनः अवशोषण को बढ़ाता है जिससे शरीर के आन्तरिक वातावरण में Na* की उचित मात्रा बनी रहे। दूसरा हॉर्मोन वैसोप्रेसिन (Vasopressin) है जो मूत्र की तनुता और सान्द्रता का नियन्त्रण करता है।
वृक्कों के द्वारा प्लाज्मा का नियमन या मूत्र की मात्रा का परासरण नियन्त्रण द्वारा नियमन निम्न दो क्रियाओं द्वारा किया जाता है -
1. मूत्र के तनुकरण की क्रिया (Dilution mechanism of urine ) -
शरीर के अन्दर पाये जाने वाले तरल माध्यमों (रुधिर प्लाज्मा, लसीका और ऊतक द्रव) का परासरणीय सान्द्रण (Os- motic concentration) या परासरणीयता (Osmolarity) अधिक (300 मिली ऑस्मोल प्रति लीटर जल) होती है। लेकिन शरीर में जल की मात्रा बढ़ने पर यह कम होने लगती है, ऐसी स्थिति में वैसोप्रेसिन (या ADH) का स्रावण कम लेकिन ऐल्डोस्टीरॉन का स्त्रावण बढ़ जाता है। इन्हीं दोनों के सम्मिलित प्रभाव के कारण वृक्क पतले व अधिक मूत्र का उत्सर्जन करने लगता है। एल्डोस्टीरॉन की अधिकता और वैसोप्रेसिन की कमी से दूरस्थ कुण्डलित और संग्रह नलिकाओं में NaCl और दूसरे लवणों का पुनरावशोषण बढ़ जाता है परन्तु जल के लिए इन नलिकाओं की दीवार अपारगम्य हो जाती है। इस कारण हेनले के लूप से दूरस्थ कुण्डलित नलिका में आये हुए निम्नपरासरी (Hy- potonic) या निम्न वलीय निस्यंद और अधिक पतले मूत्र के रूप में उत्सर्जित होने लगता अब इसकी परासरणीयता घट (65 मिली ऑस्मोल प्रति लीटर जल) जाती है।
सामान्यतः एक व्यक्ति दिन भर में 1.5 लीटर मूत्र उत्सर्जित करता है, लेकिन जब किन्हीं कारणों से मूत्र निर्माण तथा उत्सर्जन की मात्रा बढ़ जाती है, तब इस स्थिति को मूत्रलता (Diuresis) कहते हैं। कभी-कभी वैसोप्रेसिन के नियन्त्रण में गड़बड़ी हो जाने या ऑपरेशन आदि के कारण शरीर में जल की मात्रा बढ़ने लगती है, फलतः व्यक्ति को उच्च रक्त चाप हो जाता है। ऐसी स्थिति में मूत्र की मात्रा को बढ़ाने के लिए यूरिया, सुक्रोज, चित्र 16-14. एव का प्रदर्शन-न लिए मैनिटॉल इत्यादि पदार्थ रक्त में पहुँचाये जाते हैं। इन पदार्थों को जो मूत्र की मात्रा को बढ़ाते हैं, डाइयूरेटिक पदार्थ कहते हैं। वृक्क इन पदार्थों को उत्सर्जित करता है और इन्हीं के साथ जल को भी अतिरिक्त मात्रा उत्सर्जित होती है। चाय की कैफीन भी एक डाइयूरेटिक है। इसी कारण चाय अधिक पीने से मूत्रलता का खतरा रहता है। वैसोप्रेसिन हॉर्मोन की कमी से भी मूत्रलता होती है और मूत्र पतला हो जाता है, इस दशा को बहुमूत्र रोग (Diabetes insipidus) कहते हैं। इस रोग में रोगी को विशेष असुविधा नहीं होती, बस पेशाब बार-बार होता है और प्यास अधिक लगती है।
मूत्र के सान्द्रण की क्रिया (Concentration mechanism of urine ) -
इस क्रिया के द्वारा जब शरीर में पानी की कमी होती है तब वृक्क अधिक गाढ़े और कम मात्रा में मूत्र का उत्सर्जन करके शरीर से जल हानि को रोकता है। इस क्रिया का श्रेय जक्स्टा मेडुलरी वृक्क नलिकाओं को जाता है। शरीर में वैसोप्रेसिन 'के अधिक स्रावण के फलस्वरूप ही यह क्रिया होती है। इस क्रिया को वृक्क एक विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न करता है, जिसे प्रति प्रवाह प्रक्रिया (Counter Current Mechanism) कहते हैं। प्रति प्रवाह प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कि वृक्क नलिका के 'U' भाग में आने वाले और वापस जाने वाले तरल के बीच विलेय और विलायकों का बहुत सुगमता और शीघ्रता से आदान-प्रदान या विनिमय होता है। प्रवाह प्रतिक्रिया में निस्यंद या फिल्ट्रेट जैसे-जैसे वृक्क नलिका तथा संग्रह नलिका में कॉर्टेक्स भाग से पेल्विस की तरफ आगे बढ़ता जाता है इसमें अधिकाधिक जल का अवशोषण होता जाता है फलतः मूत्र मात्रा में कम तथा गाढ़ा होता जाता है। इस कार्य में मेडुला के ऊतक द्रव की उच्च परासरणीयता (Osmolarity) मदद करती है और इस उच्च परासरणीयता का कारण यह है कि वैसोप्रेसिन अधिक मात्रा में स्रावित होकर हेनले लूप की आरोही कारण यह है कि वैसोप्रेसिन अधिक मात्रा में स्रावित होकर हेनले लूप को आरोही नाल, दूरस्थ कुण्डलित नलिका तथा संग्रह नलिका Nat और CI आयनों के साथ, यूरिया के पुनरावशोषण को बहुत अधिक बढ़ा देता है और ये पदार्थ अवशोषित होकर मेडुला के ऊतक में इनकी सान्द्रता को बढ़ा देते हैं। सामान्य रूप से जब किसी ऊतक द्रव्य की परासरणीयता बढ़ती है तो रुधिर केशिकाएँ लवणों अथवा अन्य विलेयों की बढ़ी हुई मात्रा को अवशोषित करके परासरणीयता को सामान्य स्तर (300 मिमी ऑस्मोल प्रति लीटर जल) पर ला देती हैं। इसके विपरीत वृक्कों को मेडुला में वासा रेक्टा (Vasai recta) (विशेष प्रकार को 'U' को आकृति की रुधिर केशिकाएँ) इस सान्द्रता को बनाये रखने में मदद करती हैं। प्रत्येक वासा रेक्टा की अवरोही भुजा कॉर्टेक्स भाग से पेल्विस की ओर बहते हुए, ऊतक द्रव्य से NaCl एवं यूरिया के आयनों का अवशोषण करती है, लेकिन साथ ही साथ इसकी आरोही (Ascending) भुजा कॉर्टेक्स भाग को ओर बहते हुए आपनों को ऊतक द्रव्य में वापस कर देती है। 'या विनिमय होता है। प्रवाह प्रतिक्रिया में निस्यंद या फिल्ट्रेट जैसे-जैसे वृक्क . वृक्क को कुछ रुधिर केशिकाएँ 'U'के आकार की होकर हैनले के लूप के साथ चलकर जाता है इसमें अधिकाधिक जल का अवशोषण होता जाता है फलतः मूत्र मात्रा पेल्विस तक फैली होती हैं, इन केशिकाओं में कम तथा गाढ़ा होता जाता है। इस कार्य में मेडुला के ऊतक द्रव की उच्च को वासा रेक्टा कहते हैं। इनमें रुधिर केवल परासरणीयता (Osmolarity) मदद करती है और इस उच्च परासरणीयता का 6 मिमी Hg दाब के साथ बहता है।
वृक्क द्वारा परासरण नियंत्रण का सारांश-
रक्त में कम परासरण दाब के समय-
- रक्त में कम परासरण दाब
- हाइपोथैलमस के परासरण ग्राही संवेदनाओं का दमन
- पीयूष ग्रन्थि का निष्क्रियकरण
- कम मात्रा में ADH (वैसोप्रेसीन) का स्रावण
- नेफ्रॉन्स एवं वृक्क नलिकाओं की जल पारगम्यता में कमी
- अधिक में कम सान्द्र मूत्र का निर्माण
- रक्त का परासरण दाब अधिक (सामान्य)
रक्त में अधिक परासरण दाब के समय
- रक्त में उच्च परासरण दाब
- हाइपोथैलमस के परासरण ग्राही संवेदनाओं का उद्दीपन
- पीयूष ग्रन्थि का उद्दीपन
- अधिक मात्रा में ADH (वैसोप्रेसीन) का स्रावण
- नेफ्रॉन्स एवं वृक्क नलिकाओं की जल पारगम्यता में वृद्धि
- कम मात्रा में कम सान्द्र मूत्र का निर्माण
- रक्त का परासरण दाब कम (सामान्य)
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