सामंतवाद की चर्चा करने वाले विद्वानों ने इस शब्द के अर्थ का व्यापक रूप में प्रयोग किया हैतथा सामंतवाद की मूल परिभाषा को लेकर भी उनमेंमतभेद हैं। प्रोफ़ेसर हरबंस मुखिया का मानना है कि वस्तुतः 'सामंत' (feudal) शब्द का प्रयोग मध्यकालीन यूरोप में कानूनी अर्थ में किसी के संपत्तिगत अधिकार को इंगित करने के लिए होता था। वहीं सामंतवाद' (feudalism) शब्द का प्रयोग काफी बाद लगभग अठारहवीं सदी में आरंभ हुआ जिसके उद्देश्य छोटे-छोटे राजकुमारों और अधिपतियों के बीच संप्रभुता की साझेदारी को परिभाषित करना था। फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान इस शब्द का उपयोग पुरानी राजतंत्रीय व्यवस्था (Ancien regime) की आलोचना करने के लिए किया गया, इसके बाद 'सामंतवाद' शब्द का प्रयोग और भी व्यापक होता गया। अधिकांश इतिहासकारों ने पश्चिमी और मध्य यूरोप में 10 वीं से 12 वींसदीकी राजनीतिक और सामाजिक ढांचे के रूप में सामंतवाद को इस काल की एकमहत्वपूर्ण व्यवस्था माना है। भारत के इतिहास में भी गुप्तोत्तर काल से दिल्ली सल्तनत के निर्माण से पहले के काल की व्यवस्थाओं को परिभाषित करने के लिए इतिहासकारों में मतभेद है और इस इकाई में हम केवल भारत के इतिहास लेखन में भारतीय सामंतवाद को लेकर विद्वानों के मुख्य दृष्टिकोण को प्रस्तुत करेंगे।
यूरोपीय लेखकों ने (Orientalism) पूर्व के प्रति अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित विचारधारा के चलते एशियाई सभ्यताओं का पूर्वाग्रही चित्रण विश्व के सामने प्रस्तुत किया, भारत का भी उन्होंने एक धूमिल चित्रण ही प्रस्तुत किया। औपनिवेशिकअधिकारियों अथवा विद्वानों ने भी अपने साम्राज्यवादी शासन को सही प्रमाणित करने के लिए भारत के इतिहास को अंधकारमय युग के रूप में प्रस्तुत किया जहाँ यूरोपीय आधुनिक ज्ञान और व्यवस्थाओं से पहले केवल अव्यवस्था, पिछड़ापन और अपरिवर्तनशील समाज था। भारत के संदर्भ में कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान के इतिहास संकलन किया और उसमें माना की राजस्थान में भी यूरोपीय सामंतवादी व्यवस्थाएं और संबंध दृष्टिगोचर हैं।
उत्पादन की एशियाई पदाति
भारत समेत एशिया की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक अवस्था पर कार्लमार्क्स ने विशेष सैद्धांतिक पक्ष रखने का प्रयास किया। लेकिन उन्होंने भी एशियाई देशों की व्यवस्थाओं को पश्चिमी औपनिवेशीकरण के काल से पहले तक अपरिवर्तनशील रहने की अवधारणा प्रस्तुत की थी, जिसका मुख्य कारणएशिया की एशियाई पद्धति (Asiatic mode of Production) थी। मार्क्स के अनुरूप उत्पादन की यह पद्धति एक अपवाद थी, क्योंकि एशियाई देशों में सभी संपत्ति और भूमि का वास्तविक स्वामी या तो राजन था अथवा वहां भू-संपत्ति व्यक्तिगत अधिकार में न होकर समुदाय की थी। ऐसे समाज में वर्ग संघर्षसंभव नहीं था। इसलिए औपनिवेशिक काल से पहले के समय में उत्पादन व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया और भारत भी इस 'अपरिवर्तनशील पूर्व' का हिस्सा था। इस उत्पादन पद्धति के अंतर्गत भारत में निरंकुश शासकों के अधीन गतिहीन अर्थव्यवस्था थी। यहाँ मुख्यता वस्तु उत्पादन बाजार और व्यापार के लिए नहीं किया जाता था, अपितु एशिया की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी जहाँ सीमित आवश्यकताकी पूर्ति के लिए ग्राम आत्मनिर्भर थे, इसलिए भारत में एशिया के अन्य क्षेत्रों की तरह बंध-अर्थव्यवस्था (closed economy) उभरी जहाँ मुख्यता व्यापार और मुद्रा विनिमय चलन में नहीं था।
भारतीय इतिहास लेखन के ऊपर राष्ट्रीय संघर्ष का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारत के गौरवशाली इतिहास को उभारा, उन्होंने गुप्तोत्तर काल से लेकर दिल्ली सल्तनत के निर्माण से पहले तक के राज्यों को भी केंद्रीय एवं सुसंगठित शक्तिशाली राज्य के रूप में प्रस्तुत किया। वहीं आर्थिक समीक्षा और आलोचनात्मक अध्ययन से मार्क्सवादी इतिहासकारोंने लगभग गुप्तोत्तर काल से मध्यकाल के प्रारंभ के समय काल को लेकर भारतीय सामंतवाद का अध्ययन प्रस्तुत किया। भारतीय मार्क्सवादी विद्वानों ने 1950-60 के दशकों में ना सिर्फ भारत के संदर्भ में मार्क्स कीअवधारणा (Asiatic mode of Production) की आलोचना की अपितु उसे पूरी तरह से नकारते हुए भारत के पूर्व- मध्यकाल के समय को वस्तुतः सामंतवादी युग माना है। भारत में सामंतवादी व्यवस्था के पक्षधरविद्वान; भारत में सामंतवाद कैसे पनपा? उसकी चारित्रिक विशेषता क्या थी ? क्या भारतऔर यूरोपीय सामंतवाद एक समान थे, या भारतीय सामंतवाद उससे भिन्न था? ऐसे प्रश्नों के उत्तर तलाश रहे थे।
भारतीय सामंतवाद की अवधारणा
1956 में अपनी पुस्तक 'एन इंट्रोडक्शन टु द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री' में डी.डी. कोसाम्बी ने भारत में सामंतवाद के उदय को द्विमार्गी प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया। 'ऊर्ध्वगामी' और 'अधोगामी सामंतवाद' । सामंतवाद के उदय में राजा द्वारा अधिकारियों की सेवा और सैन्य शक्ति हेतु उन्हें वेतन की जगह भूमि-अनुदान के साथ-साथ उस भू-क्षेत्र पर विभिन्न अधिकार प्रधान करने से रजा द्वारा स्वयं शक्ति औरअधिकारों का विकेंद्रीकरण, क्षेत्रीय अभिजात वर्ग का शक्तिशाली होना तथा ग्रामीणअर्थव्यवस्था के विकास को प्रमुख कारक माना गया।
राजा अपने अधीनस्थ सामंतों से नज़राना लेते थे जिसके चलते उन्हें अपने अधिकार क्षेत्रों में राज्य करने की स्वतंत्रता थी। इसे कोसाम्बी 'ऊर्ध्वगामी' सामंतवाद' की प्रक्रिया मानते हैं, यह राजनीतिक निर्णयों का परिणाम था। वहीं आगे चलकर राजा और किसान के मध्य ग्रामीण समाज में बिचौलियों की श्रृंखलाउभरी, जो राज्य के लिए किसानों पर बल प्रयोग का जरिया भी थे, सामंतवाद की इस सामाजिक और आर्थिक प्रक्रिया को 'अधोगामी सामंतवाद' की प्रक्रिया मानते हैं।
1964 में अपनी पुस्तक 'इण्डियन फयूडलिज़्म' में आर. एस. शर्मा ने सामंतवाद का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करने का प्रयास किया। शर्मा ने हेनरी पिरेंन (Henri Pirenne) की यूरोपीय सामंतवाद की अवधारणा को अपनाया और उसी के आधार पर भारत के सामंतवाद को समझने का प्रयास किया। उनका मानना था की भारत में गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ-साथ लंबी दूरी का व्यापार और शहरीकरण अवरुद्ध हो गया, साथ ही मुद्रा विनिमय भी ठप होता गया था, परिणामस्वरूप सामंतवादी व्यवस्था में आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित होती गई।
राज्य ब्राह्मणों के साथ-साथ अब बड़े अधिकारियों को भी उनकी (सैन्य एवं प्रशासनिक ) सेवाओं के भुगतान के लिए भूमि देने लगे थे। इस भूमि पर प्राप्तकर्ता को पूर्ण अधिकार होता था, अपने क्षेत्र एवं निवासियों के ऊपर न्याय एवंप्रशासनिक अधिकार के साथ-साथ प्राप्तकर्ता का क्षेत्रीय स्तर पर सामाजिक एवं आर्थिक दबदबा कायम हो गया था। कृषिप्रधान ग्रामीण व्यवस्था में कृषक भू-सामंतों केअत्यधिक अधीन होते गएऔर इस बदलते अंतर संबंधों के फलस्वरूप कृषक, कृषक-दास (serfdom) में बदलते गए। आर. एस. शर्मा का मानना है कि सामंतों के अधीन अत्यधिक शोषण हो रहा था, सामंतों द्वारा लोगों से बलपूर्वक श्रमदान भी लिया जाता था। अतः शर्मा के अनुसार सामंतवाद के अन्तर संबंधित मुख्य कारक एवं लक्षण थे- भूमि एवं अधिकारों का वितरण, सत्ता का विकेंद्रीकरण, उप-सामंतीकरण, कृषक दास एवं बलपूर्वक श्रम (विष्टि) और नगरों का पतन तथा मुद्रा हास। वह मानते हैं की सामंतवाद का पतन 11वीं सदी में व्यापार और नगरों के पुनरुत्थान के साथ ही संभव हो पाया।
भारतीय सामंतवाद के विपक्ष अवधारणा
1971 में हरबंस मुखिया ने अपने लेख द्वारा भारतीय मार्क्सवादियों की भारतीय सामंतवाद के विचार पर गंभीर प्रश्न खड़े किए। खासकर भारतीय सामंतवाद पर आर. एस. शर्मा के विचारों की उन्होंने कड़ी आलोचना की। उन्होंने पूछा क्या भारत के इतिहास में वास्तविक रूप में कभी सामंतवाद था?
मुखिया सामंतवाद को पूंजीवाद की भांति एक सार्वभौमिक व्यवस्था ना मानते हुए केवल एक क्षेत्रीय व्यवस्था के रूप में देखते हैं, जहाँ उत्पादन अत्यधिक लाभ पर नियंत्रणके लिए नहीं बल्कि उपभोग की प्रवृति से प्रेरित था। इसमें उत्पादन वृद्धि एवं बाज़ार विस्तार द्वारा सार्वभौमिक व्यवस्था के रूप में उभरना संभव नहीं है। मुखिया का मानना है कि अगर सामंतवाद अलग-अलग स्थानों में अलग प्रकार का था तो व्यवस्था के रूप में भी उसकी एक सटीक परिभाषा देना मुश्किल है।
मुखिया के अनुसार भारत में यूरोप की तुलना में खेती साल के अधिक महीनों तक की जाती थी, साथ ही खेती के लिए उर्वरक भूमि तथा कृषि श्रम के लिए जनसंख्या भी यूरोप की तुलना में बहुत अधिक थी। भारत में कूबड़ वाले बैल का उपयोग होता था जिससे अधिक संतुलन के साथ हल का उपयोग होने के कारण खेत जोतने की क्षमता यूरोप की तुलना में अधिक थी। भूमि उत्पादकता की दर भी भारत में अधिक थी, भारत में अधिकांश जगह साल में दो बार खेती की जाती थी। जैसा दबाव यूरोपीय कृषक समाज पर था वही दबाव भारतीय कृषक समाज पर नहीं था। इसलिए कृषक- दास और कृषि में बलपूर्वक श्रम प्रथा का भारत में उभारना संभव नहीं था। इसके अतिरिक्तभरत में बंधुवा श्रम गैर-उत्पादक कार्यों के लिए अधिक प्रयोग होता था। मुखिया का मानना है कि भारतीय किसानों का श्रम उनके अपने नियंत्रण में था।
हरबंस मुखिया के इस लेख के बाद आर. एस. शर्मा ने 'भारतीय सामंतवाद कितना सामंती था' के रूप में अपने विचारों को पुनः नवीन दृष्टिकोण एवं शोध अध्ययन के साथ प्रस्तुत किया तथा भारतीय सामंतवाद को उन्होंने सामाजिक एवं आर्थिक संकटों के कारण उत्पन्न हुई एक आर्थिक प्रक्रिया के रूप में देखने पर अधिक बल दिया। अपने पुराने तर्कों को संशोधित करते हुए, हाल ही में उन्होंने सामंती समाज के विचारात्मक एवं सांस्कृतिक पहलुओं की ओर अपना ध्यान मोड़ा था। उनके अनुसार सामंती मानसिकता, कला एवं वास्तुशिल्प में पदानुक्रम के तत्व विद्यमान थे तथा सामंती समाज के वैचारिक आधार में स्वामी के प्रति कृतज्ञता एवं निष्ठा दृष्टिगोचर होती है। भारतीय सामंतवाद के पक्षधर कई विद्वानों ने सांस्कृतिक पहलुओं के माध्यम से भी सामंतवाद काअध्ययन करने का प्रयास आरम्भ किया है। उनके द्वारा भक्ति काल में स्वामी के प्रति अधीनता एवं निष्ठा संबंधित विचारधारा को ब्राह्मणवादी प्रभुत्व के आधार स्तंभ के रूप में देखा गया, उनके अनुसार ईश्वर के प्रति समर्पण और निष्ठा को सामंतों के प्रति मोड़ना कठिन नहीं था।
अपने अध्ययनों में इतिहासकार बी. डी. चट्टोपाध्याय ने इस काल में सम्पूर्ण भारत मेंसिक्कों की कमी और नगरों के पतन के विचार का खंडन किया है तथा रणवीर चक्रवर्ती ने सामंतवादी काल में भारत में व्यापार के विकसित होने के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, भारत में कौड़ीका मुद्रा के रूप में उपयोग लम्बी दूरी के व्यापार में पूर्व-मध्यकाल में भी होता रहा था। भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों ने सामंतवादी काल में राज्यों के पतन की बात पर बल दिया था, लेकिन बाद के कई शोधकार्यों के आधार पर विद्वानों ने इसी काल में भारत में नवीन राज्य निर्माण की प्रक्रिया को उजागर किया।
बर्टन स्टीन (Burton Stein) ने अपने दक्षिण भारत के शोधकार्य में भारत के संदर्भ में 'खंडित राज्य' निर्माण की अवधारणा प्रस्तुत की। उनके अनुसार भारत में औपनिवेशिक काल से पहले तक राजन केवल नाम मात्र को स्वामी होता था, वास्तविक रूप में उसकी राजनीतिक संप्रभुता केवल उसके राज्य के मुख्य केंद्रीय क्षेत्र तक सीमित थी, लेकिन राज्य के अधिकांश भू-भाग पर उसकी धार्मिक संप्रभुता कायम थी। राज्य में इसलिए स्थानीय स्वतंत्र इकाई थी जिन्हें अपने प्रशासनिक एवं आर्थिक अधिकार हासिल थे। इस धार्मिक संप्रभुता कानिर्माण रजा धार्मिक क्रियाकलापके माध्यम से करता था।
भारतीय सामंतवाद की अवधारण को चुनौती देते हुए हरमन कुलके और बी.डी. चटोपाध्याय ने इस काल को सामंतवादी काल की जगह पूर्व-मध्यकाल कहना अधिक उचित माना है। उनके अनुसार इस समय नए राज्यों का निर्माण की प्रक्रिया भी चल रही थी, जिसे उन्होंने अपने 'समग्र राज्य' के अवधारणा द्वारा प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार इस समय काल में जन-जातियों का मुख्यधारा में आना, कृषि का विस्तार, जातियों का प्रादुर्भाव, राजनीतिक वंशों की उत्पत्ति, धार्मिक (भक्ति) क्षेत्रीय एवं केन्द्रीय संस्कृतियों इत्यादि अनेक प्रक्रियाओं सेराजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास हो रहा था।
समग्र राज्यकी अपनी अवधारणा के अधीन इनका मानना था कि राजा भू-अनुदान द्वारा राज्य का विकेंद्रीकरण नहीं अपितु विस्तार और निर्माण कर रहे थे। भू-अनुदान द्वारा राज्य का भौगोलिक विस्तार हुआ, जनजातियों को मुख्य संस्कृति से जोड़ा गया, कृषि क्षेत्र बड़ा तथा मंदिरों और ब्राह्मणों के माध्यम से राजन अपनी संप्रभुता का निर्माण करता था तथा साथ ही पारस्परिक संस्कृति का निर्माण हुआ। अतः भू- अनुदान द्वारा राज्य अपनी शक्ति, लोकप्रियता और राज्य का विस्तार कर रहा था ना की विकेंद्रीकरण और उप-सामंतीकरण।
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