हाल के समय में राजपूतों की उत्पत्ति को लेकर नवीन विचार प्रस्तुत किए गए हैं, इतिहासकारों ने राजपूतों की योद्धा के रूप में सम्मान, उदय और उनकी उपलब्धियां को राजनीतिक प्रक्रिया समझा है। वह राजपूतों की उत्पत्ति को एक लम्बी प्रक्रिया के विकास के रूप में समझते हैं, जहाँ एक से अधिक कारणों के साथ उस समय की व्यवस्थाओं में राजपूत जैसी जातियों का उदय संभव था।
आर.एस. शर्मा के अनुसार राजपूत सामंत थे, जिनका उदय गुप्तोत्तर काल के बाद और सल्तनत के उदय से पहले सामंतवादी काल में हुआ, जब राज्यों की शक्ति और सत्ता का राजनीतिक विकेंद्रीकरण हो रहा था। इस समय अंतराल में राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज के सामंतीकरण हुआ, सामंतवादी उत्पादन के चलन एवं व्यवस्था का प्रभाव उस समय की सभी व्यवस्थाओं पर भी पड़ा।
इरफ़ान हबीब के अनुसार 7 वीं और 12 वीं सदी का काल गोत्र/बिरादरी आधारित राजतंत्र (clanmonarchies) और आद्य-राजपूत राज्य का था। इरफ़ान हबीब इस बात की और संकेत करते हैं कि फ़ारसी स्रोतों में राजपूत शब्द १६ वीं सदी से ही मिलता है, इससे पहले सल्तनत काल में राजस्थान और उतर भारत के बड़े-बड़े भू-स्वामियों के लिए यह शब्द प्रयोग नहीं किया गया है।
नार्मनपि ज्ञेग्लेर (Norman P Ziegler) ने राजपूतों के शौर्यवान, विदेशीयों का विरोध करने वाली छवि से हटकर उनके संबंधों को समझने का प्रयास किया है, उनके अनुसार राजपूतों के केंद्रीय शक्तियों के साथ जो संबंध थे उन्हें केवल राजनीतिक और सांस्कृतिक टकराव के रूप में नहीं समझा जा सकता है। उनका मानना है कि राजपूत इन 'मुस्लिम' शासकों को अपनी ही 'जाति' की उप श्रेणी का मानते थे, जो केवल शक्ति और हैसियत में उनसे अलग थे।
एक बार जब तुर्क और मंगोलों की केंद्रीय सत्ता और संप्रभुता का निर्माण हो गया, उसके बाद नए और पहले से ही प्रतिष्ठित राजपूतों ने इनकी अधीनता स्वीकार कर ली। उन्होंने ऐसी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में, जहाँ तुर्क और मुग़ल संप्रभुता को स्वीकार कर लिया गया था, खुद को रजा का पुत्र माना।
नई नैतिक व्यवस्था में अपने स्वामी के प्रति पूर्ण सेवा एवं निष्ठा रखना जिसके बदले उससे भू-क्षेत्र, राज दरबार में स्थान एवं सम्मानित पद मिलता था। सेवा एवं निष्ठा का यह नैतिक मूल्य राजपूत राजनीतिक-संस्कृति का प्रमुख मूल्य बन गया। जब कभी यह केन्द्रीय राज्य राजपूतों के क्षेत्र को अपने अधिकार में ले आते थे और इनकी वरीयता कम करते थे, तभी इन राजपूतों और मुस्लिम शासकों के बीच टकराव होता था। उनका मानना है कि राजपूतों का तुर्क और मुग़लों के साथ टकराव और सहयोग, के व्यवहार को राजपूतों के विश्वास, मिथक और नैतिक मूल्यों द्वारा समझा जा सकता है।
डी.एच.ऐ. कोल्फ (D.H.A. KOLF) के अनुसार मध्यकाल में राजस्थान और उत्तर भारत के अन्य क्षेत्रों में भी बहुत सारे चरवाहा पृष्ठभूमि वाले घुमक्कड़ समूह जिन्हें सैनिक या लड़ाकों वाले गुण विद्यमान थे, वह समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर पाए। राजपूत पद एक व्यापक नाम के रूप में इस तरह की सैनिक और भू- स्वामी वर्ग के लिए उपयोग होने लगा था।
इनका मानना है कि वस्तुतः राजपूत कोई जाति न होकर किसी प्रकार का सैनिक कार्य करने वालों की पहचान सूचक पद था। जिस प्रकार 'सिंह' पद का उपयोग हुआ है उसी प्रकार राजपूत पद भी सैनिक, योद्धा या सैन्य कार्य करने वालों के लिए उपयोग में आया, मध्यकाल की भारतीय सेनाओं में आम लोग ही सैनिक के रूप में श्रम देते थे, कोई विशेष सैनिक भर्तियाँया प्रशिक्षणनहीं होता था, किसान भी बेहतर आय और खली समय में अपने स्थान से बहुत दूर-दूर जाकर भी सैनिक की भूमिका निभाते थे।
१६ वीं सदी तक राजस्थान के राजपूत परिवारों ने खुद को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास किया और अपनी वंशावलियों का निर्माण किया उनके बीच महान राजपूत परंपरा का भाव था। इस तरह उन्होंने अपने गौरव, शक्ति और प्रतिष्ठा को पुष्ट किया। लेकिन राजस्थान के बहार, उत्तर भारत में भी इस प्रकार के निम्नसामाजिक हैसियत वाले घुमक्कड लड़ाकू समूह और सैनिक लगातार राजपूत के नाम के खुले सामाजिक वर्ग में आधुनिक समय की शुरुवात तक आते रहे। अर्थात् यह केवल उन लोगों का वर्ग नहीं था, जो क्षत्रिय परिवार में पैदा हुए थे, बल्कि यह उन लोगों का भी सामाजिक समूह था जिन्हें लड़ना आता था और जो इस प्रकार की सेवाएं दे रहे थे।
हिन्दुस्तान में सैनिक श्रम की अत्यधिक मांग थी, स्थानीय मुखिया अथवा सरदार लोगों को एकत्रित कर बढ़े बढ़े राज्यों और मुग़ल साम्राज्य को सैनिक सेवा प्रदान करते थे। इस तरह की सैन्य बाजारों में न तो केवल हिन्दू, न केवल क्षत्रिय ही सैनिक कार्य करने हेतु प्रस्तुत थे, बल्कि विभिन्न सामाजिक और जाति के लोग प्रस्तुत थे, आगे चलकर इन सब लोगों की एक ही सामाजिक और आर्थिक पहचान बनी की वह किस के सेवक हैं। कोल्फ का मानना है कि अपने निम्न सामाजिक पहचान को छिपाने के लिए इन आम लोगों ने खुद को राजपूत कहना शुरू किया क्योंकि वह सैनिक कार्य करते थे। कोल्फ के अनुसार राजपूत और सिपाही के रूप में इन लोगों की पहचान इनकी जाति के परे स्थापित हो गयी। कोल्फ इस तरह मध्यकाल में 'राजपूतीकरण' की प्रक्रिया की ओर इशारा करते हैं। बी.डी. चट्टोपाध्यायने आर. एस. शर्मा की तरह 8वीं से 13वीं सदी के काल को साम्राज्यों या राज्यों के राजनीतिक विकेंद्रीकरण और आर्थिक पतन का काल नहीं माना है। वह इस समय काल को सामंतवादी व्यवस्थाओं का काल नहीं मानते हैं, बल्कि वह इस समय-काल को 'पूर्व-मध्य काल' की संज्ञादेने के ही पक्षधर हैं। वह हमारा ध्यान इस समय हो रही ऐतिहासिक क्रियाओं पर केंद्रित करना चाहते हैं। कृषि विस्तार, वह इस समय जन-जातीय क्षेत्रों में कृषक बस्तियों का स्थापना और फैलाव की बात करते हैं, जिसके चलते समाज में निरंतर बदलाव हुए, विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच सत्ता और जमीन को लेकर संघर्ष हुआ। आगे चलकर शक्तिशाली सरदारों के अधीन कुछ क्लैन (clan) / बिरादरियां अपने आपको संघटित कर राज्य बनाने में सफल रही, इनमें से बहुत सारे निम्न सामाजिक स्तर से उठ कर यह कर पाए थे। इस समय जन-जातियों चरवाहों का कृषि अर्थव्यवस्था और कृषक समाज में विलय हो गया, नई जातियों का निर्माण हुआ और कबीलों का राजतन्त्र के रूप में उद्भव हुआ। इन नए उभरते राज्यों ने क्षत्रिय पहचान पाने के लिए ब्राह्मण विचारधारा के ढांचे में खुद को रख कर शक्ति और सत्ता को अपना अधिकार साबित करने का प्रयास किया। इसी तरह वह इस बात पर बल देते हैं कि, राजपूतों की उत्पत्ति उनके समय काल की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाओं के प्रभाव के अध्ययन के बिना नहीं समझी जा सकती है। राजपूत पहचान अपनाने वाली अथवा कहलाई जाने वाली जातियां, वह कुल/गोत्र थे जिनका विकास उस समय की कृषि- अर्थव्यवस्था के विस्तार, भूमि वितरण के नए चलन खासकर शासक वर्ग की अपनी बिरादरी के अन्दर ही भूमि वितरण होना, राजनीतिक और वैवाहिक संधियों के द्वारा बिरादरी में अंतर-सहभागिता बनाना और अभूतपूर्व पैमाने पर गढ़ों का निर्माण करने के साथ ढलती या निर्मित होती रही।
राजपूत पहचान एक प्रक्रिया के रूप में उभर के सामने आई जिसे वह 'राजपूतीकरण' के रूप में समझते हैं। वह मानते हैं कि यह प्रक्रिया अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग समय में होती रही, इस तरह विभिन्न भारतीय राजपूत कई चरणों में राजपुतीकरण की जटिल प्रक्रिया से गुजरते हुए राजपूत कहलाए गए, तथा इनमें बहुत से पहले निम्न सामाजिक स्तर के थे।
उनके मत अनुसार देशी और विदेशी मूल के राजपूत उत्पत्ति के सिद्धांत उस समय काल की जटिल सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को विशेष महत्व नहीं देते, जबकि राजपूतों की उत्पत्ति को राजस्थान में और उसके बहार भी एक पूर्ण प्रक्रिया के रूप में ही समझा जा सकता है।
Post a Comment