हर्षोत्तर उत्तर भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति
गुप्तों के
पश्चात् भारत अनेक क्षेत्रीय शक्तियों में विभाजित हो गया और इन शक्तियों के मध्य
संघर्ष प्रारम्भ हो गया। ऐसे समय में थानेश्वर में एक नये वंश का उत्कर्ष हुआ।
जिसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने वाले हूणों से देश की रक्षा कर भारत
को पुनः राजनैतिक एकता के सूत्र में बाँधने में सफलता प्राप्त की। यह वंश थानेश्वर
के वर्धन वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिसका सबसे प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन था।
हषवर्धन (606 ई0-647 ई0) की मृत्यु के
पश्चात् उत्तर भारत में राजनैतिक विकेन्द्रीकरण एवं विभाजन की शक्तियाँ एक बार
पुनः सक्रिय हो गयी। सामान्यतः यह काल पारस्परिक संघर्ष तथा प्रतिद्वन्दिता का काल
था। हर्ष के पश्चात् उत्तर भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु कन्नौज
बन गया। जिस पर अधिकार करने के लिए त्रिपक्षीय शक्तियों के मध्य संघर्ष के पश्चात्
भारत अनेक छोटे- छोटे क्षेत्रीय राज्यों में बंट कर रह गया।
हर्षोत्तर काल की राजनीतिक स्थिति
कन्नौज के शासक
हर्ष की मृत्यु के बाद लगभग 75 वर्षों तक का कन्नौज का इतिहास अंधकारमय है। यशोवर्मन ने
सम्भवतः 700 ईसवी से 740 ईसवी तक शासन
किया। सोन घाटी से विंध्य पर्वत होते हुए मगध शासक पर चढ़ाई कर उसे मार गिराया।
तत्पश्चात् बंग लोगों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। इसके उपरांत यशोवर्मन ने
दक्षिण के राजा को परास्त कर मलमगिरी को पार किया। यहाँ पारसीकों पर चढ़ाई करके
उन्हें युद्ध में पराजित किया। तत्पश्चात् हिमालय क्षेत्र की विजय की। यशोवर्मन
शैव मतानुयायी था। उसका उत्थान और पतन उल्का की भाँति रहा। उसके पश्चात् कन्नौज
में आयुध नामधारी राजाओं का शासन रहा। इनमें वज्रायुध, इन्द्रयुध तथा
चक्रायुध के नाम मिलते हैं। ये सभी अन्यन्त निर्बल शासक थे।
कन्नौज के लिए
त्रिपक्षीय संघर्ष (पाल, प्रतिहार और
राष्ट्रकूट)
हर्ष के पश्चात्
कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आर्कषण का केन्द्र बन गया। इसे वही स्थान प्राप्त हुआ
जो गुप्तयुग तक मगध का था। उत्तर भारत का चक्रवर्ती शासक बनने के लिये कन्नौज पर
अधिकार करना आवश्यक समझा जाने लगा। राजनैतिक महत्व होने के साथ-साथ कन्नौज नगर का
आर्थिक महत्व भी काफी बढ़ गया तथा यह भी इसके प्रति आकर्षण का महत्वूपर्ण कारण
सिद्ध हुआ था। व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से भी यह नगर काफी महत्वपूर्ण था क्योंकि यहाँ से विभिन्न
दिशाओं को व्यापारिक मार्ग जाते थे। जिस प्रकार पूर्वकाल में मगध उत्तरारपथ के
व्यापारिक मार्ग को नियत्रित करता था उसी प्रकार की स्थिति कन्नौज ने भी प्राप्त
कर ली। अतः इस पर अधिकार करने के लिए आठवीं शताब्दी की तीन बड़ी शक्तियों- पाल, गुर्जर प्रतिहार
तथा राष्ट्रकूट के बीच त्रिपक्षीय संघर्ष प्रारम्भ हो गया जो आठवीं-नवीं शताब्दी
के उत्तर भारत के इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है।
आठवीं शताब्दी के
अन्त में गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज (780-805 ई०) राजपूताना और मध्य भारत के विशाल भू-भाग
पर शासन करता था। बंगाल के पालों का एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित हुआ। वत्सराज
का पाल प्रतिद्वन्दी धर्मपाल (770-810 ई0)
था। वत्सराज और
धर्मपाल का समकालीन राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव (780-793 ई0) था। वह भी दक्षिण भारत में अपना राज्य सुदृढ़ कर लेने के
पश्चात् राजधानी कन्नौज पर अधिकार करना चाहता था। अतः कन्नौज पर आधिपत्य के लिए
प्रथम संघर्ष वत्सराज, धर्मपाल तथा धुरव
के बीच हुआ।
सर्वप्रथम कन्नौज
पर वत्सराज तथा धर्मपाल ने अधिकार करने की चेष्टा के परिणामस्वरूप दोनों में गंगा-
यमुना के दोआब में युद्ध हुआ। युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। इसका उल्लेख
राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय के राधनपुर लेख (808 ई0) में हुआ है जिसके अनुसार 'मदान्ध वत्सराज ने गौड़राज की राजलक्ष्मी को
आसानी से हस्तगत कर उसके दो राजछत्रों को छीन लिया। इस प्रकार वत्सराज ने कन्नौज
पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ का शासक इन्द्रायुध उसकी अधीनता स्वीकार करने लगा। इसी
समय राष्ट्रकूट नरेश धुर्व ने विन्ध्यपर्वत पार कर वत्सराज पर आक्रमण किया।
वत्सराज बुरी तरह परास्त हुआ तथा वह राजपूताना के रेगिस्ताना के रेगिस्तान की ओर
भाग खड़ा हुआ। राधनपुर लेख में कहा गया है कि उसने वत्सराज के यश के साथ ही उन
दोनों राजछत्रों को भी छीन लिया जिन्हें उसने गौड़नरेश से लिया था। धुरव ने पूर्व
की ओर बढ़कर धर्मपाल को भी पराजित कर दिया। संजन लेख के अनुसार उसने 'गंगा-यमुना' के बीच भागते हुए
गौड़राज की लक्ष्मी के लीलारविन्दों और श्वेतछात्रों को छीन लिया। परन्तु इन
विजयों के पश्चात् धुरव दक्षिण भारत लौट गया जहाँ 793 ईसवी में उसकी मृत्यु हो गयी।
ध्रुव के उत्तर
भारत के राजनीतिक दृश्य से ओझल होने के बाद पालों तथा गुर्जर प्रतिहारों में पुनः
संघर्ष प्रारम्भ हो गया। इस समय पालों का पलड़ा भारी था। खालीमपुर अभिलेख मे वर्णन
मिलता है कि धर्मपाल ने कान्यकुब्ज के राजा का अभिषेक किया। इसे भोज, मत्सय, मद्र, कुरू, यदु, यवन, अवन्ति, गन्धार तथा कौर
के राजाओं ने अपना मस्तक झुकाकर धन्यवाद देते हुये स्वीकार किया था। इस विवरण से
स्पष्ट है कि कन्नौज के राजदरबार में उपस्थित उक्त सभी शासक धर्मपाल की अधीनता
स्वीकार करते थे। परन्तु उसकी विजयें स्थायी नहीं हुई। गुर्जर प्रतिहार वंश की
सत्ता को जीता तथा कन्नौज पर आक्रमण कर चक्रायुध को वहाँ से निकाल दिया। नागभट्ट
कन्नौज को जीतने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने धर्मपाल के विरूद्ध भी प्रस्थान कर दिया। मुंगेर
में काव्यात्मक विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है-' बंगनरेश अपने गजों, अश्वों एवं रथों
के साथ घने बादलों के अन्धकार की भाँति आगे बढ़कर उपस्थित हुआ किन्तु त्रिलोकों को
प्रसन्न करने वाले नागभट्ट ने उदयमान सूर्य की भांति उस अन्धकार को काट डाला। इस
विवरण से स्पष्ट है कि युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। भयभीत पालनरेश ने
राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय (793-814 ई0)
से सहायता माँग
नागभट्ट पर आक्रमण किया। संजन ताम्रपत्र से पत चलता है कि उसने नागभट्ट द्वितीय को
पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। धर्मपाल तथा चक्रायुध ने स्वतः उसकी
अधीनता स्वीकार कर ली। गोविन्द आगे बढ़ता हुआ हिमालय
तक जा पहुँचा परन्तु वह उत्तर में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सका। उसकी अनुपस्थिति का
लाभ उठाकर दक्षिण के राजाओं ने उसके विरूद्ध एक संघ बनाया जिसके फलस्वरूप उसे
शीघ्र ही अपने गृह-राज्य वापस आना पड़ा।
भोज प्रथम के बाद
उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम शासक हुआ जिसने 910 ई0 तक शासन किया।
बिहार तथा उत्तरी बंगाल के कई स्थानों से उसके लेख मिलते हैं जिनमें उसे 'परमभट्टारकपरमेश्वरमहाराजाधिराजमहेन्द्रपाल' कहा गया है। इनसे
स्पष्ट है कि मगध तथा उत्तरी बंगाल के प्रदेश भी पालों से गुर्जर प्रतिहारों ने
जीत लिया। इन प्रदेशों के मिल जाने से प्रतिहार-साम्राज्य अपने उत्कर्ष की
पराकाष्ठा पर पहुँच गया।
इस प्रकार
साम्राज्य के लिए नवीं शताब्दी की तीन प्रमुख शक्तियाँ-गुर्जर प्रतिहार, पाल तथा
राष्ट्रकूट में जो त्रिपक्षीय संघर्ष प्रारम्भ हुआ था, उसकी समाप्ति
हुई। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल उत्तरी भारत की राजनीति में ओझल हो गये तथा
प्रबल शक्ति के रूप में उनकी गणना न रही। अन्तोगत्वा प्रतिहारों की सफलता के साथ
युद्ध समाप्त हुआ। ऐसा ज्ञात होता है कि प्रतिहार शासक महिपाल प्रथम (912-943 ई0) के समय में
राष्ट्रकूट राजाओं इन्द्र तृतीय तथा कृष्ण तृतीय ने कन्नौज नगर पर आक्रमण किया तथा
थोड़े समय के लिए प्रतिहारों के अधिकार को चलायमान कर दिया। किन्तु राष्ट्रकूटों
की सफलता क्षणिक रही और उनके हटने के बाद वहां प्रतिहारों का अधिकार पुनः सुदृढ़
हो गया। अब प्रतिहारों की गणना उत्तर भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप
में होने लगी।
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