हर्ष के पश्चात सामाजिक स्थिति |After Harshvardhan Indian History
हर्ष के पश्चात सामाजिक स्थिति
हर्ष के पश्चात सामाजिक स्थिति
- प्राचीन भारत के इतिहास में आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी का काल समाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। इस काल में सामाजिक परिवर्तनों के पीछे कुछ आर्थिक घटनाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा जिन्होंने प्राचीन समाजिक व्यवस्था के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदल दिया।
- भारत के इतिहास में हर्ष की मृत्यु के बाद से लेकर राजपूत वंशों के शासन तक (650-1200 ई0) का काल सामान्य तौर से पूर्व मध्य युग कहा जाता है। इसके प्रथम चरण (650-1000 ई0) को आर्थिक दृष्टि से पतन का काल निरूपित किया गया है। इस काल में व्यापार तथा वाणिज्य का हास हुआ। रोम साम्राज्य के पतन हो जाने के कारण पश्चिमी देशों के साथ भारत का व्यापार बन्द हो जाने तथा इस्लाम के उदय के कारण भी भारत का स्थल मार्ग से होने वाला व्यापार प्रभावित हुआ। इस काल में स्वर्ण मुद्राओं का अभाव दृष्टिगोचर होता है। व्यापार-वाणिज्य के पतन के कारण व्यापारी तथा कारीगर एक ही स्थान पर रहने के लिये मजबूर हुए तथा उनका एक स्थान से दूसरे स्थान में आना- जाना बन्द हो गया। इस प्रकार इस काल की अर्थव्यवस्था अवरूद्ध हो गयी। भारत में मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाने के बाद से मुसलमान व्यापारियों तथा सौदागरों की गतिविधियाँ तेज हुई, जिसके फलस्वरूप उत्तरी भारत में व्यापार- वाणिज्य की प्रगति हुई। बारहवीं सदी तक आते-आते देश आर्थिक दृष्टि से पुनः सुदृढ़ हो गया।
1 सामन्तवाद का विकास
- यह समाज का सबसे शक्तिशाली वर्ग था। यद्यपि भारत में हमें सामन्तवाद का अंकुरण शक-कुषाण काल में ही दिखाई देने लगता है तथापि इसका पूर्ण विकास पूर्व मध्य काल में ही हुआ। इस काल में राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिस्थितियों ने सामन्तवाद के विकास के लिये उपयुक्त आधार प्रदान किया। बाह्य आक्रमणों के कारण केन्द्रीय सत्ता निर्बल पड़ गयी तथा चारों ओर राजनीतिक अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी। केन्द्रीय शक्ति की निर्बलता ने समाज में प्रभावशाली व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया, जिसके ऊपर स्थानीय सुरक्षा का भार आ पड़ा।
- समान्तवाद के विकास में प्राचीन भारतीय धर्मविजय की अवधारणा का भी योगदान रहा। कालान्तर में शासकों की विजय का उद्देश्य अधिक से अधिक अधीन शासक तैयार कर उनसे करवाना हो गया। इस प्रवृत्ति ने भी सामन्तवाद को प्रोत्साहित किया।
- सामन्तवाद को विकसित करने में आर्थिक कारक भी सहायक सिद्ध हुए। राजनीतिक अव्यवस्था में व्यापार- वाणिज्य का पतन हुआ। जिससे अर्थव्यवस्था मुख्यतः भूमि और कृषि पर निर्भर हो गयी। बड़े-बडे भूस्वामी आर्थिक स्रोतों के केन्द्र बन गये। समाज में भूसम्पन्न कुलीन वर्ग का अविभार्व हुआ। समाज के बहुसंख्यक शूद्र तथा श्रमिक जीविका के लिये उनकी ओर उन्मुख हुए। भूमिपतियों को अपने खेतों पर कार्य करने के लिये बड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता थी। आर्थिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया ने सामन्तवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- राजाओं द्वारा अपने कुल के व्यक्तियों तथा सम्बन्धियों को विभिन्न प्रान्तों में उपराजा अथवा राज्यपाल नियुक्त करने की प्रथा से भी सामन्तवाद की जड़ें मजबूत हुई। राजकुमारों के साथ-साथ प्रशासन के मंत्रियो तथा अन्य उच्च पदाधिकारियों को भी जागीरें दी गयी। पूर्व मध्यकाल में यह एक सर्वमान्य प्रथा हो गई। सामन्तों की विभिन्न श्रेणियां थी। कुछ बड़े सामन्त अपने अधीन कई छोटे सामन्त रखते थे। वे अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में राजाओं जैसी सुख-सुविधाओं का ही उपभोग करते थे।
- इस प्रकार समाज में ऐसे लोगो की संख्या बढ़ती गयी जिन्हें भूमि से दूसरे के श्रम पर पर्याप्त आय प्राप्त होने लगी। राजपूत-काल में सामन्तों के छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये जो अपनी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने के लिये परस्पर संघर्ष में उलझ गये। इन्होंने व्यापार-वाणिज्य को हतोत्साहित किया तथा आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया। सामन्त तथा उसके अधीनस्थों के अपने-अपने क्षेत्रों में ही व्यस्त और मस्त रहने के कारण प्रबल स्थानीकरण की भावना का विकास हुआ तथा सामाजिक गतिशीलता अवरूद्ध हो गयी।
- प्रो० यादव के अनुसार इस काल में हम सामाजिक स्तरीयकरण की दो प्रवृत्तियों को साथ-साथ चलते हुए पाते हैं। जहाँ एक ओर समाज के उच्च तथा कुलीन वर्ग द्वारा वर्ण नियमों को कठोरतापूर्वक लागू करने का प्रयास किया गया वहीं दूसरी ओर इस युग के व्यवस्थाकारों ने विभिन्न जातियों एवं वर्गों के मिश्रण से बने हुए, शासक एवं सामन्त वर्ग को वर्णव्यवस्था में समाहित कर आदर्श एवं यर्थाथ के बीच समन्वय स्थापित करने का कार्य भी किया। सामन्तवादी प्रवृत्तियों के विकास के साथ-साथ भू-सम्पत्ति, सामरिक गुण, राजाधिकार आदि सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा के प्रमुख आधार बन गये। समाज के प्रथम दो वर्ण (ब्राह्मण तथा क्षत्रिय) एक दूसरे के निकट आ गये। इसी प्रकार अन्तिम दो वर्गों (वैश्य तथा शूद्र) में भी सन्निकटता आई। इस प्रकार पूर्वमध्यकालीन समाज दो भागों में विभाजित हो गया। प्रथम भाग में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय तथा द्वितीय में वैश्व एवं शूद्र समाहित हो गये। दोनों का अन्तर काफी बढ़ गया। समाज का यह द्विभागीकरण इस काल में पहले की अपेक्षा कही अधिक सुस्पष्ट हो गया।
2 कठोर वर्ण व्यवस्था
- आठवीं शताब्दी से समाज पर इस्लाम धर्म का प्रभाव परिलक्षित होने लगा। इसके सामाजिक समानता के सिद्धान्त ने परम्परागत चातुर्वर्ण व्यवस्था को गम्भीर चुनौती दी जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में रूढ़िवादिता की वृद्धि हुई। समाज में शुद्धता बनाये रखने के उद्देश्य से विवाह, खान-पान तथा स्पृश्यता के नियम अत्यन्त कड़े कर दिये गये। अन्तर्जातीय खान-पान पर भी प्रतिबन्ध लग गया। ब्राह्मणों के लिये अन्य वर्णों के यहाँ भोजन करना (आपात काल को छोड़कर) निषिद्ध कर दिया गया। इस प्रकार समाज में शौचाचार की भावना प्रबल हो गयी। ब्राह्मणों के कुछ वर्ण इतने अधिक रूढ़िवादी थे कि जो ब्राह्मण, जैन आदि वैदिकेतर धर्मों को स्वीकार कर लेते थे उन्हें भी वे कुजात समझते थे। कलिवर्ज्य का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया जिसके अन्तर्गत विदेश यात्रा करने तथा विदेशियों से सम्पर्क स्थापित करने पर रोक लगा दी गयी। विभिन्न जातियों तथा उपजातियों की उत्पत्ति के कारण सामाजिक व्यवस्था अत्यन्त जटिल हो गयी।
- इस समय भी समाज में ऐसे लोग थे जिन्होंने जाति-प्रथा की रूढ़ियों को मान्यता देने से इन्कार कर दिया। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के जैन आचार्यों, शाक्त-तांत्रिक सम्प्रदायों तथा चार्वाकों ने जाति-प्रथा उसके प्रतिबन्धों का विरोध करते हुए कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया। जैन आचार्य अमितगति (ग्यारहवीं शताब्दी) ने यह प्रतिपादित किया कि जाति का निर्धारण आचरण से होता है, जन्म या वंश से नहीं। बौद्ध ग्रन्थ लटकमेलक में भी जाति-पाति एवं छुआछूत की निन्दा की गयी है।
- सामाजिक परिवेश में हुए परिवर्तन के कारण पूर्व मध्ययुग में परम्परागत वर्णों के कर्तव्यों को भी नये सिरे से निर्धारित किया गया। प्रथम बार पराशर स्मृति (600-902 ई0) में कृषि को ब्राह्मण वर्ण की वृत्ति बताया गया है। अभी तक के शास्त्रकारों ने केवल आपत्तिग्रस्त ब्राह्मणों के लिए कृषि विधान किया था। इसके टीकाकार माधवाचार्य (1300-1380 ई0) ने बताया है कि कलियुग में आपद्धर्म ही सामान्य धर्म बन जाता है। इससे पता चलता है कि पूर्व मध्यकाल में अधिकांश ब्राह्मणों ने कृषि करना या कराना प्रारम्भ कर दिया था। भूमिदानग्राही कुलीन ब्राह्मण शूद्रों के द्वारा कृषि करवाते थे। क्षत्रिय वर्ण इस समय दो भागों में बँट गया। पहला शासक वर्ग तथा जागीरदार वर्ग था जबकि दूसरे में सामान्य क्षत्रिय थे। पराशर ने कृषि को सामान्य क्षत्रिय की भी वृत्ति बताया है। वृहद्धर्म पुराण में ब्राह्मणों की पूजा को क्षत्रिय के प्रमुख कर्तव्यों में रखा गया है। जहाँ तक वैश्य तथा शूद्र वर्णों का प्रश्न है, इस काल में हम दोनों के कार्यों में समानता पाते हैं। पराशर ने 'कृषि, वाणिज्य तथा शिल्प' को दोनों का व्यवसाय बताया है। यह उल्लेखनीय है कि 'कृषि' को सभी वर्णों का समान्य धर्म माना गया है। यह समाज के बढ़ते हुए कृषिमूलक स्वरूप का सूचक है जो सामन्तवाद के प्रतिष्ठित होने के कारण पूर्व मध्यकाल में अत्यधिक स्पष्ट हो गया था।
3 नवीन वर्ग कायस्थ का उदय
- एक जाति के रूप में कायस्थों का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण सामाजिक घटना है। कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में है। यह हिसाब-किताब रखते थे और पद का अनुचित लाभ उठाकर प्रजा पर अत्याचार करते थे। कौन सी भूमि कर मुक्त है, किससे कौन-से कर लिए जाने हैं, किस वर्ग से विष्टि लेनी चाहिए-भूमि तथा राजस्व सम्बन्धी इन सभी कार्यों का हिसाब-किताब या दस्तावेज कायस्थों को ही रखने पड़ते थे। फलतः कायस्थों की संख्या में वृद्धि हुई। न्यायाधिकरण में न्याय निर्णय लिखने का कार्य 'करणिक' करते थे। ये लेखक, गणक या दस्तावेज रखने वाले अनेक नामों से पुकारे जाते थे, जैसे कायस्थ, करणिक, पुस्तपाल, अक्षपाटलिक, दीविर, लेखक इत्यादि। किन्तु कलांतर में ये सभी कायस्थ वर्ग में समाविष्ट हो गए।
- धीरे-धीरे कायस्थों ने मूल वर्णों से सम्बन्ध तोड़ दिया और एक नया वर्ग बना लिया जिसका सामाजिक सम्पर्क, खान-पान, शादी-विवाह आदि अपने ही वर्ग तक सीमित रह गया। पैतृकता तथा खान-पान सम्बन्धी सामाजिक सम्पर्कों के आधार पर कायस्थों की एक पृथक् जाति बन गई। कायस्थों में विभिन्न वर्गों के लोग थे। जब उनकी अलग जाति बन गई तो वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत सम्मिलित करने में ब्राह्मणों को असमंजस का सामना करना पड़ा। 10 वीं से 12 वीं शताब्दी के बीच विभिन्न स्थानों के आधार पर कायस्थों की उपजातियां भी बन गई, जैसे बंगाल से आए हुए गौड़ कायस्थ, बल्लभीय कायस्थ, माथुर, श्रीवास्तव, निगम आदि।
- कायस्थ केवल लेखक और गणक ही नहीं रहे बल्कि वे अनेक ऊंचे पदों पर भी नियुक्त हुए। श्रीवास्तव कायस्थ चंदेलों के यहां मंत्री तथा सेनापति पद पर नियुक्त हुए और उन्हें 'ठाक्कुर' की सामंत उपाधि भी मिली। इसी प्रकार माथुर कायस्थ चौहानों के यहां मुख्यमंत्री तथा कोषाधिकारी कहा गया है। हरिघोषकरण कायस्थ बंगल में वालालसेन का संधि विग्रहिक था। लक्ष्मणसेन का मुख्यमंत्री भी करण कायस्थ था।
- क्षेमेंद्र के अनुसार कायस्थों के उदय से ब्रह्मणों के अधिकारों पर आघात पहुंचा। रामशरण शर्मा के मतानुसार इससे ब्रह्मणों का एकाधिकार समाप्त हो गया। कायस्थों में अप्रसन्न होने का दूसरा कारण था, भूमि-सम्बन्धी दस्तावेजों में कायस्थों द्वारा हेराफेरी। इससे ब्राह्मण, जिन्हें भूमि दान में मिलती थी, काफी परेशान थे। इसीलिए कायस्थ ब्रह्मणों के कोपभाजन बने।
4 वैश्य वर्ण का पतन तथा शूद्र वर्ण का उत्थान
- पूर्व मध्यकालीन समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि वैश्य वर्ण की समााजिक स्थिति पतनोन्मुख हुई तथा उन्हें शूद्रों के साथ समेट लिया गया। वैश्यों की स्थिति में गिरावट का मुख्य कारण पूर्व मध्यकाल के प्रथम चरण में व्यापार-वाणिज्य का हास है। इस काल में आंतरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार के व्यापार का हास हुआ, जिसके कारण वैश्य वर्ण अत्यन्त निर्धन हो गया। इस समय शूद्रों का सम्बन्ध कृषि के साथ हो जाने से उनकी आर्थिक दशा पहले से अधिक अच्छी हो गई। इस काल के कुछ ग्रन्थ भी वैश्यों की दीन-हीन दशा का चित्रण करते हैं। विष्णुपुराण में कहा गया है कि कलियुग में वैश्य कृषि तथा व्यापार छोड़ देंगे तथा अपनी जीविका दासकर्म एवं कलाओं द्वारा कमायेंगे। विष्णु तथा वायु पुराण तो यहाँ तक बताते हैं कि कलियुग में वैश्य वर्ण वस्तुतः विलुप्त हो जायेगा। वैश्यों की यह स्थिति सामन्तों तथा जागीरदारों के अविभार्व एवं व्यापार-वाणिज्य में हास के कारण हुई।
- जहाँ तक शूद्र वर्ण का प्रश्न है, हम देखते हैं कि पूर्व मध्यकाल के अनेक विचारक उन्हें कृषि-कार्य से सम्बन्धित करते हैं। स्मृतिकार देवल ने कृषि को वैश्य तथा शूद्र दोनों का समान कार्य बताया है। शूद्रों की स्थिति में यह परिवर्तन सामन्ती प्रवृत्तियों के विकसित हो जाने के कारण हुआ। भूमि अनुदानों की अधिकता के कारण सामन्तों तथा भूस्वामियों की संख्या अधिक हो गयी। इन्हें अपने खेतों पर कार्य करने के लिए बड़ी संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ी। इसकी पूर्ति शूद्र वर्ण द्वारा ही सम्भव थी जो संख्या में अत्यधिक था। प्रभूत उत्पादन के कारण शूद्रों को भी कृषि की आय का अच्छा लाभ प्राप्त हुआ, जिससे उनकी आर्थिक दशा काफी अच्छी हो गयी। इस प्रकार उन्होंने कृषि को वैश्यों के अधिकार से छीन लिया।
- इस प्रकार स्पष्ट है कि अब वैश्य, कृषि के अधिकारी नहीं रहे। उनमें से कुछ निम्न श्रेणी के लोग शूद्र वर्ण के साथ संयुक्त हो गये। किन्तु ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में, जब व्यापार-वाणिज्य का पुनरूत्थान हुआ, तब वैश्य वर्ण की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।
5 अंतर्जातीय विवाह
- तथाकथित क्षत्रियों में बाह्य तथा आदिवासी जातियों के समावेश के कारण ब्राह्मण ने, रक्तशुद्धि की भावना से प्रेरित होकर, विवाह एवं खान-पान के नियम अत्यधिक कठोर बना दिए थे। अंतर्जातीय विवाहों को हतोत्साहित करने के लिए औशन तथा व्यास स्मृतियों में बताया गया कि अनुलोम अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान की जाति माता पर आधारित होगी, पिता पर नहीं। इस नियम की पुष्टि पूर्वमध्यकालीन अभिलेखों से भी होती है। अलबरूनी ने भी लिखा है कि बच्चे की जाति माता की होती है, पिता की नहीं।
- विवाह-सम्बन्धी निषेध के साथ-साथ भोजन-सम्बन्धी निषेध के नियम भी कट्टर हो गए। माँस, मदिरा, प्याज, लहसुन इत्यादि ब्राह्मणों के लिए वर्जित थे। ह्वेनसांग ने खान-पान के सम्बन्ध में ब्राह्मणों की कट्टरता का उल्लेख किया है। इस युग में धीर-धीरे भोजन-सम्बन्धी नियम इतने कठोर हो गए कि ब्राह्मण, ब्राह्मण के हाथ का बना हुआ भोजन नहीं खा सकता था।
6 अस्पृश्यता
- अस्पृश्यता में वृद्धि इस काल में दिखाई देती है। पूर्वकाल में चाण्डालों को तो अस्पृश्य माना ही जाता था, लेकिन अब कई जातियों को अस्पृश्य बताया गया। स्मृतियों में धोबी, चमार, नट, वरूड़, कैवर्त, धीवर, भेद तथा भिल्ल जातियों को अस्पृश्य माना है। देवयात्रा, विवाह, यज्ञोत्सव देश पर आक्रमण के समय अस्पृश्यता का भाव त्याग दिया जाता था।
7 स्त्रियों की दशा
- स्त्रियों की स्थिति में पहले की तुलना में गिरावट आ गई थी। स्त्रियों की गिरती हुई स्थिति के कई कारण थे। अब विवाह की उम्र बहुत कम हो गई थी। इस काल के स्मृति तथा निबंध ग्रंथों के अनुसार स्त्री का विवाह 8 से 10 वर्ष की आयु तक हो जाना चाहिए। आदर्श विवाह आठ वर्ष का माना जाता था। आठ वर्ष की लड़की को 'गौरी' व 10 वर्ष की लड़की को 'कन्या' कहा गया है। बाल विवाह का स्त्रियों की शिक्षा पर भी असर पड़ा। जैसा कि कामसूत्र तथा मध्यकालीन साहित्य से प्रकट होता है, राजघराने, उच्चाधिकारियों और समृद्ध वैश्य परिवारों की स्त्रियां ही शिक्षित होती थी।
- यद्यपि सती-प्रथा के कुछ उदाहरण पूर्व काल में भी मिलते हैं किन्तु 9 वीं शताब्दी से सती प्रथा अत्यधिक प्रचलित हो गई। इस प्रथा के बढ़ने के कई कारण थे जैसे वैराग्य तथा कठोर सयंम सम्बन्धी विचारधारा का समाज पर- विशेषतः ब्राह्मण वर्ग पर-बढ़ता हुआ प्रभाव, पनुर्विवाह का निषेध, विधवाओं के सम्पत्ति विषयक अधिकार को विलंब से तथा हिचकिचाहट के साथ मान्यता देना आदि। विधवाओं के इस सम्पत्तिगत अधिकार पर कई तरह के प्रतिबंधों ने विधवाओं की दशा को शोचनीय बना दिया और पति के साथ सती होने में ही उसे जीवन के इन कष्टों से मुक्ति दिखाई दी। अंगिरा, हारीत आदि पूर्वमध्यकालीन स्मृतियों तथा अपरार्की, विज्ञानेश्वर आदि निबंधकारों ने सती प्रथा की प्रशंसा की।
8 दासप्रथा
- पूर्व मध्यकाल में दास प्रथा में वृद्धि हुई। केवल राजा, सामंत और गृहस्थ के यहाँ ही नहीं वरन् बौद्ध मठों, वैष्णव, शैव और शाक्त मंदिरों में भी दास रहते थे। इस युग में दास प्रथा के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए धर्म शास्त्रों के अतिरिक्त जैन ग्रन्थों, शिलालेखों तथा विदेशी यात्रियों के वृत्तांतों से भी जनकारी प्राप्त होती है। विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरा में नारद द्वारा कथित 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। इनमें से 7-8 प्रकार के दासों के अस्तित्व की पुष्टि अर्थशास्त्र के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों तथा शिलालेखों से होती है। जैन ग्रन्थ समराइच्छकहा तथा प्रबंधचिन्तामणि में दास व्यापार की अनेक कथाएं हैं जिनसे पता चलता है कि दास-व्यापार नियमित रूप से चल रहा था।
- बहुत से लोग ऋण चुकाने के लिए अपने को दास रूप में बेच देते थे। मनु की मेधातिथि की टीका से पता चलता है कि यह प्रथा अधिक प्रचलित थी, हालांकि देश, धर्म और राजा द्वारा बनाए गए नियम के अनुकूल होते हुए भी, शास्त्र इसके विरूद्ध था। विज्ञानेश्वर ने अपनी मिताक्षरा में इस प्रथा का अनुमोदन किया है। ऋण न चुका सकने के कारण ऋणी स्वयं को ऋणदाता का दास बना लेता था। पूर्व काल की भांति इस युग में भी दास प्रायः घरेलू कामों में ही लगाए जाते थे।
- इस काल के नियामकों ने दासों के जान-माल के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई नियम नहीं दिए हैं, जिससे स्पष्ट है कि उनकी दशा पूर्व काल की अपेक्षा अधिक गिरी हुई थी। त्रिपष्टिशलाकाचरित में कहा गया है कि सामान्यतः दासों को खच्चर की तरह पीटना चाहिए, उन्हें भारी बोझ ढोना चाहिए और भूख-प्यास सहन करनी चाहिए। लेखापद्धति से पता चलता है कि दासियों को खरीदते समय उनसे यह स्वीकारोक्ति ली जाती थी कि भागने, चोरी करने, मालिक की निंदा करने अथवा मालिक और उसके सम्बन्धियों की आज्ञा की अवहेलना करने पर स्वामी को उसे पीटने तथा बाँधने का पूरा-पूरा अधिकार था। किसी भी लेखों में दास-दासियों को मुक्त करने का कोई उल्लेख नहीं है। अतिरिक्त परिश्रम अथवा स्वामी की कृपा से दासत्व से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। लेखापद्धति में कहा गया है कि दासी के भाई और पिता धन देकर उसे वापस नहीं ले सकते।
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