बुंदेलखंड स्थापत्य कला एवं चित्रकला | Architecture of Bundelkhand History

 बुंदेलखंड स्थापत्य कला  (Architecture of Bundelkhand History) 

बुंदेलखंड स्थापत्य कला एवं चित्रकला | Architecture of Bundelkhand History



बुंदेलखंड स्थापत्य कला 

  • बुंदेला शासकों ने जब बुंदेलखण्ड पर अपना आधिपत्य स्थापित किया तब बुंदेलखण्ड अंचल में खजुराहो के प्राचीन मंदिरों एवं कालिंजर के किले के अतिरिक्त स्थापत्य के कुछ छुट-पुट नमूने प्राप्त होते थे। चंदेलों ने खजुराहो एवं महोबा में अपने स्थापत्य प्रेम को प्रदर्शित किया और शेष क्षेत्र उनके कला प्रभाव से प्रायः वंचित रहा। बुंदेलों ने इस क्षेत्र में इस कमी को पूरा किया। इन्होंने ओरछा को अपनी राजधानी बनाकर यहाँ विभिन्न इमारतों का निर्माण कराया। प्रारंभिक बुंदेला शासकों द्वारा अपनायी गई स्थापत्य शैली में सुंदरता एवं मजबूती के तत्व कम ही पाये जाते हैंकिंतु जैसे ही इन राजाओं का संबंध तत्कालीन केंद्रीय सत्ता मुगलों के साथ संबंध स्थापित हुआउन्होंने मुगल स्थापत्य शैली के विभिन्न लक्षणों को बुंदेला शैली में समाहित करना प्रारंभ कर दिया। ओरछा का राजमहल एवं जहाँगीर महल तथा दतिया का वीरसिंह महल इस शैली के प्रारंभिक उदाहरण हैं। इसी प्रकार बुंदेलों के संबंध राजपूताने के शासकों के साथ स्थापित होने का भी यहाँ की वास्तुकला शैली पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः बुंदेलों की स्थापत्य शैली मुगल एवं राजपूत स्थापत्य शैली का सम्मिश्रण थी।

 

  • बुंदेलखण्ड में 1732 की स्थिति में चार प्रमुख बुंदेला राज्य अस्तित्व में थे- ओरछाचंदेरीदतिया एवं पन्ना। इनमें से ओरछा राज्य 1556-1731 ई. के मध्य अपना स्वर्णिम काल देख चुका था। राजा मधुकर शाहरामशाहवीरसिंहजूदेव एवं जुझारसिंह ने अपने शासनकालों में ओरछा राज्य के अंतर्गत् स्थापत्य कला के विकास में अपनी भूमिका निभाई। इनमें से भी वीरसिंहजू देव के बुंदेला स्थापत्य के विकास में योगदान को सर्वाधिक महत्व दिया जाता हैक्योंकि उन्होंने अपने राज्य में एक साथ बावन इमारतों की आधारशिला रखी थीजिनमें कई राजमहलमंदिरसार्वजनिक इमारतेंतालाबबावड़ियाँ आदि शामिल थीं। आज भी उनके द्वारा स्थापित कराए गए वास्तुशिल्प के नमूने भव्य स्मारकों के रूप में शान के साथ बुंदेलखण्ड में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।

 

  • ओरछा राज्य में महाराजा उदोतसिंह (1689 1736 ई.) ने राजधानी ओरछा में एक शीशमहल का निर्माण करवाया था। यह शीशमहल जहाँगीर महल की ओर जाने वाले मार्ग पर स्थित है। इस mभवन का केंद्रीय कक्ष आठ राजपूत शैली के खंभों पर टिका है। भवन में शीशे अर्थात् काँच का प्रयोग किया गया था। इसके अतिरिक्त हरे-नीले चमकीले पत्थर एवं टाईल्स का भी उपयोग होने से यह राजमहल शीशमहल के नाम से जाना गया। हालाँकि अब इस भवन में शीशे अथवा कॉच यत्र-तत्र ही दिखाई देते हैं। आकार की दृष्टि से यद्यपि यह भवन अधिक विशाल नहीं हैतथापि इसकी सुंदरता से इंकार नहीं किया जा सकता है। शीशमहल के समक्ष एक उद्यान विकसित किया गया थाजो समय के साथ पानी के अभाव में अब मूल अवस्था में नहीं है। उदोतसिंह ने ओरछा में उदोतगंजआनंदमंदिरबरुआसागर में उदोतसागर आदि प्रमुख स्थापत्यों का निर्माण करवाया था। राजा पृथ्वीसिंह द्वारा पृथ्वीपुर नगर की स्थापना एवं वहाँ एक छोटा दुर्ग बनाने का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी प्रकार राजा विक्रमाजीत ने जब अपनी राजधानी ओरछा से टीकमगढ़ स्थानांतरित की तब उन्होंने तथा उनके उत्तराधिकारियों ने टीकमगढ़ में अनेकों इमारतोंउद्यानोंसड़कोंतालाबोंबावडिंयोंमंदिरों आदि का निर्माण करवाया थाजिनमें टीकमगढ़ दुर्गतालकोठीनजरबागजुगलकिशोर निवासबोटलहाउस आदि प्रमुख हैं। ओरछा के राजाओं द्वारा अपने शासनकाल में अपने पूर्वजों की समाधियों का निर्माण बेतवा नदी के तट पर कराने की परंपरा थीजिसके फलस्वरूप वहाँ आलोच्य काल में उदोतसिंहसावंतसिंह की समाधियाँ अथवा छतरियाँ उनकी रानियों के साथ बनी हुई हैं।

 

  • दतिया राज्य के बुंदेला शासकों ने अपनी मूल शाखा ओरछा राज्य से प्रेरणा लेते हुए अपने राज्य में भी स्थापत्य कला के विकास में अभीष्ट योगदान दिया था। दतिया नगर में वीरसिंहदेव महल की स्थापना ने यहाँ के शासकों को सुंदर इमारतों के निर्माण के लिए सदैव प्रेरित किया। हालाँकि बाद के काल में दतिया राज्य में हुए वास्तु निर्माण में एक भी इमारत वीरसिंहदेव पैलेस की तुलना में श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती है। राजगढ़ पैलेसप्रतापगढ़ दुर्गप्रतापगढ़ दुर्ग में स्थापित कराए विभिन्न राजमहलराजा पारीछत द्वारा स्थापित कराई गई दुर्ग दीवारजो शहरपनाह के नाम से जानी जाती हैबिहारी निवास पैलेसराधिका-निवास पैलेसरानी की बावड़ीझमार की बावड़ीगणेशजू का चौपराबिहारीनिवास की बावड़ीभब्बा साहब के हनुमानबैंकघर की हवेलीभरतगढ़ आदि आलोच्य काल में दतिया के बुंदेला शासकों द्वारा कराए गए प्रमुख निर्माण कार्य हैं। दतिया राज्य के अंतर्गत् सेंवढ़ा का दुर्ग कन्हरगढ़इंद्रगढ़ एवं विभिन्न प्रमुख स्थानों पर स्थापित कराई गई गढ़ियाँ भी उल्लेखनीय हैं।

 

  • पन्ना राजवंश के उत्तराधिकारियों ने छतरपुर के पास स्थित धुबेला महल के ठीक पीछे एक तालाब का निर्माण करवाया गया था। इसी तालाब के किनारे रानी कमलावती एवं उनका स्वयं का मकबरा स्थापित कराया गया है। छत्रसाल का मकबरा आकार में एक गढ़ी सा प्रतीत होता है। इस भवन के चारों कोनों पर तीन मंजिला भवन बनाए गए हैं। इमारत में प्याजी गुम्बदगुम्बद पर उल्टा कमल एवं कलशझरोखों एवं मेहराबों का उपयोग किया गया है। हिरदेशाहजगतराजपेशवा बाजीराव के मकबरे भी इस राज्य के प्रमुख स्मारक हैं। पन्ना नगर में विभिन्न शासकों के मकबरे एवं स्वामी प्राणनाथ मंदिर इस काल में वास्तुकला के विशिष्ट उदाहरण हैं। प्राणनाथ जी का मंदिर उनकी समाधि पर ही बनाया गया हैजो अठपहलू पद्धति पर बना है। मंदिर के निर्माण में इस्लामिक शैली के पुट के साथ हिन्दू स्थापत्य शैली का उपयोग किया गया है। इस मंदिर की पहली मंजिल में मंडप के चारों ओर दालान हैं तथा बीच में गर्भगृह हैंजबकि दूसरी मंजिल में अर्द्धचंद्राकार पलकिया झरोखे की दालान और उनके दोनों ओर छोटी छतरियाँ हैं। इसी प्रकार तीसरी मंजिल के चारों कोनों पर मेंहराबदार छोटी-छोटी छतरियाँ स्थापित की गई हैंजो मंदिर के स्वरूप को अलंकृत करती हैं।

 

 बुंदेलखंड चित्रकला : 

  • बुंदेलखण्ड में स्थापत्य कला की भाँति चित्रकला के विकास के भी पर्याप्त कारण विद्यमान थे। चंदेल शासकों एवं ग्वालियर के तोमर राजवंश द्वारा अपने-अपने राज्य में चित्रकला का विकास किया गया था। केंद्रीय सत्ता का उपभोग करने वाले मुगल शासकोंविशेषतः जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने भी चित्रकला के प्रत्येक क्षेत्र में विकास के नवीन आयाम स्थापित किए थे। ग्वालियर कलम का प्रभाव बुंदेली चित्रकला पर पड़ना स्वाभाविक था। बुंदेला राजवंश में कई बुंदेला शासकों द्वारा अपने शासनकाल में चित्रकला को काफी प्रोत्साहन दिया थाजिसका प्रमाण ओरछा स्थित विभिन्न राजमहलों एवं मंदिरों में दर्शित लघु चित्र एवं भित्ति चित्र हैं। हालाँकि ये चित्र अब विनष्ट होने की कगार पर हैतथापि इन्हें देखकर उस काल की चित्रकला के स्तर का कयास अवश्य लगाया जा सकता है। 

  • बुंदेली चित्रकला के अंतर्गत धार्मिक एवं धर्मनिरपेक्ष दोनों ही तरह के विषयों को अपनाया गया था। धार्मिक चित्रों में रामलीलाकृष्णलीलाविष्णु के दशावतारत्रिदेव ब्रह्माविष्णुमहेशजगत जननी माँ भगवती के अलावा प्राकृतिक शक्तियों के चित्र भी चित्रकारों द्वारा अपनी तूलिका से चित्रित किये जाते थे। कृष्णलीला के विविध प्रसंगों को माधुर्य के साथ चित्रित किया गया है। पौराणिक गाथाओं को भी बड़े केनवास के माध्यम से चित्रित किया गया है। जबकि धर्मनिरपेक्ष विषयों के अंतर्गत राजपरिवार के सदस्यों के व्यक्ति चित्रराजदरबार के चित्रयुद्ध के चित्रतीर्थयात्रा के चित्रसामाजिक विषयों के चित्रदैनिक आचार-व्यवहार के चित्रआमोद-प्रमोद के चित्रपक्षियों एवं पशुओं के चित्रनदियों एवं पहाड़ों के चित्र आदि विषयों एवं घटनाओं को सम्मिलित किया जाता था। व्यक्ति चित्रों के अलावा बुंदेली कलम में राग माला चित्रण तथा बारहमासा संबंधी चित्र भी बनाए गए हैं। इन चित्रों को बनाने के लिए चित्रकारों द्वारा सरेसगोंदरंग एवं पानी का उपयोग किया जाता था। रंगों के लिए हल्दीआलनीलछेवले के फूलगजरा के फूलकाली मिट्टीरामरजगेरू आदि का प्रयोग किया जाता था। दीवारों पर रंगों में चमक पैदा करने तथा उन्हें चिकना बनाने के लिए मोम को उपयोग किया जाता था। विभिन्न मूल रंगों के मिश्रण के माध्यम से अन्य रंग बनाने की विधि से तत्कालीन चित्रकार पूर्णतः परिचित थे।

 

  • बुंदेली चित्रकला शैली का विकास 18वीं सदी में दतिया राज्य में अपने चरम पर थाजैसाकि राय कृष्णदास के इस कथन से परिलक्षित होता है - "बुंदेलखण्डी कलम के नाम से विख्यात यह चित्रकला शैली दतिया के राजा शत्रुजीत (1761-1801 ई.) के शासनकाल में अपनी पूर्णता को पहुँच गई थी।"" चित्रकला के एक अन्य विद्वान एन.सी. मेहता दतिया राज्य के चित्रों को ओरछा के चित्रों से श्रेष्ठ मानते हैं। दतिया की बुंदेली कलम की प्रशंसा होने के कारण भी मौजूद हैं। दतिया के चित्रकारों ने मुगलों द्वारा विकसित चित्रकला के अवयवों को अपनाया थान कि उनकी नकल की। यही कारण है कि यहाछ के चित्र विभिन्नता लिए हुए हैं और देश-विदेश के महत्वपूर्ण संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में भी यहाँ के चित्र सुशोभित हो रहे हैं। आलोच्य काल में दतिया के राजाओं की समाधियों की आंतरिक दीवारों पर बनाए गए चित्र अद्भुत हैं। इन चित्रों में विशद घटनाओं का चित्रण बड़ी बारीकी के साथ किया गया है। युद्ध के चित्र में अथवा राजदरबार के चित्र में अथवा शोभायात्रा के चित्र में सम्मिलित लोगों की पहचान स्थापित करने के लिए उनके नामों का भी उल्लेख किया जाना चित्रकार की जागरूकता को प्रदर्शित करता है। दतिया स्थित करणसागर तालाब के किनारे मौजूद दतिया राजवंश की छतरियाँ अर्थात् समाधियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इन छतरियों की आंतरिक दीवारों पर बुंदेली शैली में विभिन्न विषयों पर चित्रांकन किया गया है। दतिया कलम की महत्वपूर्ण विशेषता में दतिया का दशहरा उत्सव का सुंदर दृश्य अंकित हैजिसमें महाराजा पारीछतजू देव (1801-1839 ई.) की गजासीन चलयात्रापार्श्व भाग में सेनापतिसैनिक दलों के साथजमींदारों और पैदल सैनिकों का मनमोहक चित्रण किया गया है। इसी प्रकार महाभारत महाकाव्य पर आधारित काव्यांनकों का चित्रण दर्शाया गया है। श्रीकृष्ण भक्ति के चित्रों का सुंदर धार्मिक भावसभा मध्य महाराजा उपस्थित हैं। छतरियों के अतिरिक्त दतिया के विभिन्न प्रासादों की दीवारों पर भी भित्ति चित्र चित्रित किए गए हैं।

 

  • दतिया राज्य में चित्रांकन की एक अन्य शैली लोक शैली के रूप में प्रचलित थी - साँझी। सायंकाल में बनाए जाने के कारण इस कला का नामकरण साँझी पड़ा। यह कला श्राद्धपक्ष (अश्विन कृष्णएकादशी) से लेकर पाँच दिनों तक धरती पर उकेरी जाती थी। इसके अंतर्गत् आँगन को मिट्टी से लीपकर उस पर सूखे रंगों से साँझी के चित्र उकेरे जाते थें। इस चित्रकला शैली में प्रायः श्रीकृष्ण लीला के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत किया जाता है। वस्तुतः यह साँझी कला राधावल्लभी संप्रदाय के प्रभाव का परिणाम प्रतीत होती है।

 

 बुंदेलखंड मनोरंजन 

  • बुंदेलखण्ड के निवासी अपनी थकी काया को आराम पहुँचाने के उद्देश्य से विभिन्न प्रकार के मनोरंजन एवं खेल साधनो को अपनाते थे। बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृति पर लिखे गए समकालीन ग्रंथों में यहाँ के निवासियों द्वारा अपनाए जाने वाले मनोरंजन के विभिन्न साधनों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। 78 ये साधन मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं- प्रथमनृत्य-संगीत साधनंद्वितीयस्वक्रीड़ा साधन और तृतीयबाजी साधन । नृत्य-संगीत साधन के अंतर्गत इस क्षेत्र में स्वाँगनौटंकीरामलीलाकृष्णलीलानाटकशास्त्रीय संगीतसुगम संगीतविभिन्न प्रकार के वादनजैसे वीणासरोदसंतूरमृदंगपखावजरमतूलाढोलकनगड़ियाझाँझतुरहीमंजीराढांपचंगमटकीलोटा आदि। लोकनाट्यों का इस अँचल में बड़ा महत्व था। लोग बड़ी रुचि से इन नाटको का आनंद लिया करते थे तथा इसके लिए कई बार रात-रात भर जागते थे। स्वाँग पारिवारिक नाट्य के रूप में प्रचलित था। इसे जुगिया अथवा बाबा भी कहा जाता था। ये जुगिया प्रायः महिलाओं द्वारा शादी के अवसरों पर खेला जाता थाजब परिवार के सभी पुरुष बारात में शामिल होकर घर से बाहर होते थे। इसके अलावा इस क्षेत्र में फंड़ का भी आयोजन होता था। फंड़ का तात्पर्य थाप्रतिद्वंद्विता करना। दो टोलियाँ अपने-अपने हुनर को साबित करने के लिए आपस में होड़ करती थीं और जो इस द्वंद्व में जीतता थाउसकी वाहवाही होती थी। स्वक्रीड़ाओं के अंतर्गत परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए मनोरंजन के साधन मौजूद थे। बच्चे मामुलियासुआटाअकतीझिझियानौरता आदि त्यौहारात्मक खेल खेलते थे। इसके अतिरिक्त गुल्ली-डंडाकंचाछुवा-छुव्वलचोर-पुलिस आदि के माध्यम से अपना मनोरंजन करते थे। पुरुष फंड़ लगाकर चौपरगोट-पड़ाचंदा-पौआ खेलते थे तथा कब्बड्डीकश्तीमल्लखंभतैराकी आदि के माध्यम से अपनी शक्ति का प्रदर्शन भी करते थे। महिलाए चपेटा या गुट्टारसिया-मोरियाझूला झूलना आदि के माध्यम से अपना मनोरंजन करती थीं। बाजी मनोरंजन का ऐसा साधन थाजिसके अंतर्गत लोग विभिन्न पशुओंपक्षियों के माध्यम से एक-दूसरे से बाजी लगाते थे और उनमें आपस में लड़ाई करवाते थेजिससे पर्याप्त तमाशा होता था और लोग खुश हो जाते थे। 

  • समाज में विभिन्न वर्गों के लोगों के मनोरंजन के साधन भी पृथक् पृथक् होते थे। क्षत्रियों में निशानेबाजीशिकार और चौगान बहुत ही जनप्रिय थे। दरबारों में गायिकाएँ और नर्तकियाँ राजाओंसामंतों और ठाकुरों का मन बहलाती थीं। नर्तकियों का साथ देने के लिए बीनशहनाईडफपखावजमृदंग वादक भी होते थे और उन्हें भी साथ-साथ अपना हुनर दिखाने का मौका मिलता था। कवियों और भाटों द्वारा राजे-रजवाड़ों की प्रशंसा में काव्य-रचना की जाती थी। अन्य वर्गों के लोगों के द्वारा भी काव्य विधा की ओर झुकाव था। मल्लनट-नटनियाँनर्तक-नर्तकियाँबेड़नियाँ और भाँड़ उच्च तथा निम्न वर्ग दोनों के ही सामने अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। उच्च वर्ग के लोग प्रायः बैलोंभैसोंमृगोंहाथियों आदि की लड़ाई में अपनी विशेष रुचि रखते थे और कई लोग इस आनंद को पाने के स्वयं लड़ाके पशु-पक्षियों को पालते थे तथा बाजियों पर उन्हें लड़वाते थे। इस हेतु उन्हें कई बार ईनाम भी मिल जाता था। कुछ लोग अपने मन की शांति के लिए पशु-पक्षियों को पालने का शौक रखते थे। पक्षियों को पिंजड़ों में पालने और तोता मैना जैसे पक्षियों को पढ़ाने में भी उन्हें आनंद आता था। मनोरंजन के कुछ साधन बुरी आदतों से संबंध रखते थेजैसे कुछ लोगों को पोस्ता खानाभाँग खाना और पीना तथा मद्यपान और वेश्या-गमन करने में ही आनंद का अनुभव होता था। जुआ केवल दीवाली पर नहीं बल्कि हर समय खेला जाता था। चित्र बनानेचौपड़ और शतरंज खेलने का प्रचलन सभी वर्गों में था। महलों की स्त्रियों का अधिकांश समय अपना बनाव-श्रृंगार करने मेंचौपड़शतरंज खेलने मेंचित्र बनानेपढ़ने-पढ़ाने में और गप्पें लड़ाने में व्यतीत होता था । यदा-कदा वे अपने स्वामियों की आज्ञा से वन-उपवनों में सैर-सपाटे के लिए भी चली जाती थीं और जल-केलि में भी लिप्त हो लिया करती थीं। पुराणों और कथा-कहानियों को सुनना सभी को भाता था। बच्चों के खेलों में बँटा खेलना सर्वाधिक जनप्रिय था। हिंडोला अथवा झूला झूलना जनसाधारण में सामान्य रूप से विशेष कर युवतियों और बालक-बालिकाओं में मन बहलाव का अच्छा साधन था। यह अभी भी वैसा ही रुचिकर है . 

  • दैनिक जीवन की आपा-धापी एवं मेहनत-मजदूरी के पश्चात् मनुष्य को अपने शरीर एवं दिमाग को आराम देने तथा उन्हें स्वस्थ एवं तरोताजा रखने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता सनातन काल से रही है और इसके लिए कोई भौगोलिक सीमाएँ निर्धारित नहीं थी। अस्तु बुंदेलखण्ड के निवासियों ने भी अपने रंजन मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों को अपनाया था।

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