बघेल राजाओं और मालवा के खिलजी सुल्तानों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध न होने का परोक्ष कारण यह था कि कालपी पर अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए मालवा के खिलजियों और जौनपुर के शर्कियों के बीच परस्पर प्रतिद्वन्दिता चल रही थी। ऐसी स्थिति में बघेल राजा, मालवा के विरुद्ध अपने शर्की-मित्र के शुभचिन्तक थे। इसीलिए 1440-41 ई. में जब मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी (1436-1469 ई.) हाथी खरीदने के उद्देश्य से बांधवगढ़ आया था, तब तत्कालीन बघेल राजा नरहरिदेव ने हाथी न देने के इरादे से बड़ी ऊँची कीमत की माँग की। मोल-भाव के दौरान सुल्तान के सैन्य अधिकारियों और नरहरिदेव के बीच हुई बातचीत का ब्यौरा देते हुए सिहाब हकीम ने अपने ग्रन्थ मासिर-ए-महमूदशाही में लिखता है कि "बघेल राजा ने कहा कि कत तुम कत हम।" किन्तु सुल्तान के अधिकारियों ने धैर्य धारण करते हुए हाथियों के ठिकानों की जानकारी पूँछी, लेकिन इस जानकारी को बताने में भी बघेलों ने आनाकानी की। अतः महमूद शर्की, नरहरिदेव के मन्तव्य को समझकर बहुत कुपित हुआ और चुपचाप सरगुजा की ओर चला गया, जहाँ उन दिनों हाथियों की ब्रीडिंग की जाती थी। उस समय सरगुजा अच्छी नस्ल के हाथियों का बहुत बड़ा केन्द्र था और बांधवगढ़ में हाथियों की बड़ी मण्डी थी।
उँचेहरा के परिहार वंश में प्रचलित परम्परा के अनुसार बरमै राज्य का प्रथम शासक भोजराज परिहार था; जो पवई के परिहार वंश से सम्बन्धित था। भोजराज के पूर्वज पवई से मऊ गये; फिर कुछ समय बाद वहाँ से कोटरा (जिला-पन्ना) गये और वहाँ पर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। कोटरा के दो सौतेले भाइयों भोजराज और जीतसिंह के बीच पारिवारिक विवाद हो गया; जिसे समझौता के द्वारा सुलझाया गया। समझौते में भोजराज को बरमै का राजा मान्य किया गया और जीतसिंह को कोटरा मिला। इसी भोजराज परिहार के पौत्र प्रताप रूद्र ने 1563 ई. में मुगलों के विरुद्ध बघेल राजा रामचन्द्रदेव की सहायता की थी। जिसके उपलक्ष में रामचन्द्रदेव ने प्रतापरूद्र को टमस नदी के पश्चिमी तट पर स्थित बत्रीपुर सहित बारह गाँव प्रदान किए थे। उधर कोटरा पर अगले डेढ़ सौ वर्षों तक जीतसिंह के वंशजों का अधिकार रहा। उसके बाद 17वीं शताब्दी के मध्य में उँचेहरा के राजा ने अपने दामाद सोहावल राज्य के संस्थापक फतेहसिंह बघेल (1630-93ई.) को कोटरा सौंप दिया।
बघेल राज्य और गढ़ा-कटंगा का गोंड़ राज्य
16वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गढ़ा-कटंगा गोंड़ सत्ता का प्रमुख केन्द्र था। जिस समय वीरसिंहदेव गहोरा की गद्दी पर आसीन हुआ, उस समय गोंड़ राज्य का शासक अर्जुन दास था। उसका बड़ा पुत्र संग्रामशाह (उर्फ अमानदास) बहुत उद्दण्ड था। एक बार उसने विद्रोही रुख अपनाया। लेकिन बन्दी बनाये जाने के डर से पड़ोस के भट्टा-राज्य (बघेल - राज्य) में राजा वीरसिंह देव के पास चला आया। वीरसिंह ने उसे न केवल शरण दी, बल्कि उसके साथ पुत्रवत् व्यवहार किया। इससे अमानदास के दिल में वीरसिंह के प्रति बहुत श्रद्धा उत्पन्न हो गई और शीघ्र ही अपनी निष्ठा एवं कुशलता के कारण राजा वीरसिंहदेव का विश्वास पात्र बन गया। इसीलिए वीरसिंह जब सिकन्दर लोदी के दरबार में अपनी हाजिरी दर्ज कराने के लिए गया था; तब उसने अपने नाबालिग पुत्र वीरभानु (जन्म 1486 ई.) को अमानदास के संरक्षण में छोड़ गया था।
जिस समय वीरसिंहदेव सिकन्दर लोदी के दरबार में था, उसी समय अमानदास को खबर मिली कि उसके पिता अर्जुनदास ने उसे उत्तराधिकार से वंचित करके उसके छोटे भाई जोगीदास को अपना उत्तराधिकारी बना दिया है। यह सूचना पाते ही अमानदास आग बबूला हो ग्या और गढ़ा पहुँचकर रात्रि के समय अपने पिता का वध कर दिया। जब इस घटना की सूचना वीरा सिंहदेव के पास पहुँची, तब उसने सिकन्दर लोदी से दरबार छोड़ने की अनुमति लेकर शीघ्रता से प्रस्थान किया और राजधानी गहोरा से अपनी सेना के साथ गढ़ा की ओर रवाना हुआ। वीरसिंहदेव के आने की सूचना पाते ही अमानदास घबड़ाकर जंगलों में छिप गया। इधर वीरसिंहदेव गढ़ा पहुँचकर गोंड़-राज्य पर अधिकार करके अपना प्रतिनिधि शासक नियुक्त कर दिया। वहाँ से वापस जाते समय जब वीरसिंह नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए रुका हुआ था, उसी समय अमानदास अपने अनुचरों के साथ वीरसिंहदेव के पास आकर अपनी भूल पर पश्चाताप किया और बघेल राजा से बारम्बार क्षमा याचना की। अतः वीरसिंह उँचेहरा के परिहार वंश में प्रचलित परम्परा के अनुसार बरमै राज्य का प्रथम शासक भोजराज परिहार था; जो पवई के परिहार वंश से सम्बन्धित था। भोजराज के पूर्वज पवई से मऊ गये; फिर कुछ समय बाद वहाँ से कोटरा (जिला-पन्ना) गये और वहाँ पर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। कोटरा के दो सौतेले भाइयों भोजराज और जीतसिंह के बीच पारिवारिक विवाद हो गया; जिसे समझौता के द्वारा सुलझाया गया। समझौते में भोजराज को बरमै का राजा मान्य किया गया और जीतसिंह को कोटरा मिला। इसी भोजराज परिहार के पौत्र प्रताप रूद्र ने 1563 ई. में मुगलों के विरुद्ध बघेल राजा रामचन्द्रदेव की सहायता की थी। जिसके उपलक्ष में रामचन्द्रदेव ने प्रतापरूद्र को टमस नदी के पश्चिमी तट पर स्थित बत्रीपुर सहित बारह गाँव प्रदान किए थे। उधर कोटरा पर अगले डेढ़ सौ वर्षों तक जीतसिंह के वंशजों का अधिकार रहा। उसके बाद 17वीं शताब्दी के मध्य में उँचेहरा के राजा ने अपने दामाद सोहावल राज्य के संस्थापक फतेहसिंह बघेल (1630-93ई.) को कोटरा सौंप दिया।
बघेल राज्य और गढ़ा-कटंगा का गोंड़ राज्य
16वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गढ़ा-कटंगा गोंड़ सत्ता का प्रमुख केन्द्र था। जिस समय वीरसिंहदेव गहोरा की गद्दी पर आसीन हुआ, उस समय गोंड़ राज्य का शासक अर्जुन दास था। उसका बड़ा पुत्र संग्रामशाह (उर्फ अमानदास) बहुत उद्दण्ड था। एक बार उसने विद्रोही रुख अपनाया। लेकिन बन्दी बनाये जाने के डर से पड़ोस के भट्टा-राज्य (बघेल - राज्य) में राजा वीरसिंह देव के पास चला आया। वीरसिंह ने उसे न केवल शरण दी, बल्कि उसके साथ पुत्रवत् व्यवहार किया। इससे अमानदास के दिल में वीरसिंह के प्रति बहुत श्रद्धा उत्पन्न हो गई और शीघ्र ही अपनी निष्ठा एवं कुशलता के कारण राजा वीरसिंहदेव का विश्वास पात्र बन गया। इसीलिए वीरसिंह जब सिकन्दर लोदी के दरबार में अपनी हाजिरी दर्ज कराने के लिए गया था; तब उसने अपने नाबालिग पुत्र वीरभानु (जन्म 1486 ई.) को अमानदास के संरक्षण में छोड़ गया था।
जिस समय वीरसिंहदेव सिकन्दर लोदी के दरबार में था, उसी समय अमानदास को खबर मिली कि उसके पिता अर्जुनदास ने उसे उत्तराधिकार से वंचित करके उसके छोटे भाई जोगीदास को अपना उत्तराधिकारी बना दिया है। यह सूचना पाते ही अमानदास आग बबूला हो गया और गढ़ा पहुँचकर रात्रि के समय अपने पिता का वध कर दिया। जब इस घटना की सूचना वीर सिंहदेव के पास पहुँची, तब उसने सिकन्दर लोदी से दरबार छोड़ने की अनुमति लेकर शीघ्रता से प्रस्थान किया और राजधानी गहोरा से अपनी सेना के साथ गढ़ा की ओर रवाना हुआ। वीरसिंहदेव के आने की सूचना पाते ही अमानदास घबड़ाकर जंगलों में छिप गया। इधर वीरसिंहदेव गढ़ा पहुँचकर गोंड़-राज्य पर अधिकार करके अपना प्रतिनिधि शासक नियुक्त कर दिया। वहाँ से वापस जाते समय जब वीरसिंह नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए रुका हुआ था, उसी समय अमानदास अपने अनुचरों के साथ वीरसिंहदेव के पास आकर अपनी भूल पर पश्चाताप किया और बघेल राजा से बारम्बार क्षमा याचना की। अतः वीरसिंह ने उसे क्षमा करके गढ़ा कटंगा का राज्य उसे वापस कर दिया। अमानदास के बाद उसका उत्तराधिकारी दलपत हुआ, जिसका विवाह वीरांगना रानी दुर्गावती से हुआ था।
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