गहोरा में स्थापित बघेल सत्ता का संस्थापक भीमलदेव विद्वान, नीतिवान और पराक्रमी था। अपने इन्हीं 'गुणों' के कारण वह अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल रहा। उसके पुत्र अनीकदेव (रानिंगदेव) ने राजधानी गहोरा को भवनों से सुसज्जित किया और गहोरा-जागीर का विस्तार करके, उसे एक छोटे राज्य का रूप प्रदान किया। वीरभानूदय काव्यम् में रानिंगदेव को गहोरा का प्रथम शासक बताया गया है। अतः सम्भव है कि भीमलदेव के पश्चात् रानिंगदेव कालिंज़र के भर राजा के आधिपत्य से मुक्त हो गया हो। इसके पश्चात् इसका पुत्र वालनदेव गहोरा- राज्य में दीर्घकाल तक शासन किया। इसी वालनदेव का पुत्र बुल्लारदेव (1353-1389 ई.) हुआ, जिसने सर्वप्रथम 'महाराजाधिराज' की पदवी धारण की। यह एक पराक्रमी और महत्वाकांक्षी शासक साबित हुआ। जिससे प्रभावित होकर अफीफ ने अपने तारीख-ए-फिरोजशाही में बुल्लारदेव को फिरोजशाह तुगलक के दरबार में इटावा के रायसुमेर चौहान जैसे प्रभावशाली राजाओं की पंक्ति में बैठा हुआ बतलाया है। इससे स्पष्ट होता है कि बुल्लारदेव के काल में बघेल-राज्य पर्याप्त प्रभावशाली हो गया था।
यद्यपि यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि 14वीं शताब्दी के मध्य में जब दिल्ली सल्तनत फिरोज तुगलक (1351-1388 ई.) के नेतृत्व में लड़खड़ाना शुरू हुई, तब उसकी कमजोरी का फायदा उठाकर उसके प्रान्तपति एक-एक करके स्वतंत्र होने लगे थे। जिसे देखकर बुल्लारदेव ने भी दिल्ली सल्तनत की नाजुक स्थिति का लाभ उठाकर एक स्वतंत्र राजा के रूप में महाराजाधिराज की पदवी धारण कर ली और अन्तर्वेद (गंगा-यमुना के मध्य का भू-भाग) तक जाकर तुर्कों से संघर्ष किया। उसने समस्त तरिहार को विजित करके उत्तर- पूर्व में अपने राज्य का विस्तार किया और विन्ध्य पर्वत के दक्षिण स्थित उपरिहार पर अधिकार करके अपने राज्य की सीमा को कैमोर पर्वत के करीब पहुँचा दिया। अतः सम्भव है कि फिरोज तुगलक ने बुल्लारदेव के आक्रमणों से प्रभावित होकर इसे 'राजा' स्वीकार कर लिया और इटावा के रायसुमेर चौहान जैसे प्रभावशाली राजाओं के समकक्ष बुल्लारदेव को भी अपने दरबार में सम्मानजनक स्थान दिया।
इस प्रकार स्पष्ट है, कि बुल्लारदेव ने अपने शौर्य एवं पराक्रम से अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाया और पहली बार केन्द्रीय सत्ता को प्रभावित करके दिल्ली सुल्तान से सम्मान प्राप्त कर अपनी और अपने राज्य की प्रतिष्ठा एवं महत्ता को ऊपर उठाया।
बुल्लारदेव के पुत्र सिंहदेव ने त्रिवेणी (प्रयाग) में जल समाधि ले ली। अतः शोकाकुल पिता ने अपने पौत्र वीरमदेव को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वीरमदेव बघेल (1389-1438ई.) अपने पितामह से भी अधिक शौर्यवान एवं महत्वाकांक्षी था। इसने अपने पितामह के पदचिन्हों पर चलकर राज्य विस्तार की दिशा में विशेष दिलचस्पी ली और कैमोर पर्वत के दक्षिण में बांधवगढ़ सहित अमरकंटक (पाठ) तक बघेल-राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। वीरभानूदय काव्यम् से विदित होता है कि वीरमदेव ने दिल्ली सल्तनत के अर्न्तगत स्थित सेहुँड़ा (कालिंजर से उत्तर जिला चित्रकूट) नामक नगर को विजित करके दिल्ली सुल्तान से विग्रह कर लिया था, जो वीरम जैसे यशस्वी वीर के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। वीरमदेव के शौर्य और पराक्रम से प्रभावित होकर ही तारीख-ए-मुहम्मदी के लेखक ने उसे युग का नीरम (ईरानी पहलवान) कहा है। वस्तुतः उस समय दिल्ली में तुगलक वंश अस्तप्रायः हो रहा था। इसीलिए वीरमदेव ने केन्द्रीय सत्ता की बिना परवाह किए सेहुँड़ा पर अधिकार कर लिया और अपने पितामह बुल्लारदेव एवं फिरोज तुगलक के बीच स्थापित सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों को महत्वहीन समझ कर, तोड़नें में कोई संकोच नहीं किया।
यहाँ पर स्थिति बिल्कुल स्पष्ट है कि वीरमदेव के नेतृत्व में बघेल सत्ता पर्याप्त विस्तृत एवं शक्ति सम्पन्न हो चुकी थी। लेकिन यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि दिल्ली सल्तनत उस समय अत्यधिक जर्जर अवस्था में पहुँच गयी थी, जिसका लाभ वीरमदेव ने निश्चित रूप से उठाया और अपने राज्य - की सीमाओं का सक्रियता से विस्तार किया। वीरमदेव के समय में बघेल-राज्य की सीमाएँ उत्तर में गंगा-यमुना के संगम (प्रयाग) से लेकर दक्षिण में नर्मदा उद्गम स्थली अमरकंटक तक और पश्चिम में केन नदी (सैहुँड़ा) से लेकर पूर्व में कन्तित (विन्ध्यांचल) तक विस्तृत थी।
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