भट्टा-गहोरा राज्य |बघेल राज्य और जौनपुर का शर्की राज्य | Baghel Rajya Aur Jaunpur
भट्टा-गहोरा राज्य का राजनीतिक परिदृश्य
भट्टा-गहोरा राज्य का राजनीतिक परिदृश्य
चौदहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में बघेल-राज्य के विस्तार का एक कारण "दिल्ली सल्तनत की दुर्बलता" अवश्य थी, लेकिन बघेल राजाओं की योग्यता और उनका पराक्रम मुख्य कारण था। इसीलिए जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने बघेल राजाओं से मैत्री- सम्बन्ध स्थापित किये थे और कालपी के मलिकज़ादा सुल्तानों, मालवा के खिलजी सुल्तानों एवं लोदी सुल्तानों जैसे कई शासकों को भी बघेल राजाओं के विरोध का सामना करना पड़ा था, जिसका विवरण प्रस्तुत है:-
- बघेल राज्य और कालपी राज्य की विभाजक रेखा केन नदी थी। इसीलिए दोनों राज्यों के बीच बराबर खींचातानी बनी रही। लगभग 1393 ई. में मलिकज़ादा नसिरुद्दीन महमूदशाह (1390-1411 ई.) ने अपने राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर पूर्व की ओर अभियान किया, जहाँ महोबा के आगे उसे वीरमदेव से मुकाबला करना पड़ा। अतः अगले वर्ष 1394 ई. में वीरमदेव ने भी अपने अधीनस्थ सेहुँड़ा के शासक भीमल को साथ लेकर महोबा किले के आसपास के क्षेत्रों में भयानक लूटमार की। इस लूटमार की सूचना पाते ही मलिकज़ादा महमूद शीघ्र ही महोबा की ओर कूच किया। वीरमदेव और भीमलदेव मलिकज़ादा महमूद के आने का समाचार जानकर सेहुँड़ा वापस आ गये। किन्तु महमूद सेहुँड़ा की ओर बढ़ता चला गया। जहाँ दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में मलिकज़ादा महमूद को सफलता मिली। भीमलदेव ने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली और वीरमदेव वापस गहोरा आ गया। इस युद्ध में वीरमदेव और भीमलदेव के लगभग 1000 पैदल और कुछ घुड़सवार सैनिक मारे गये तथा महमूद को काफी धन लाभ हुआ।
बघेल राज्य और जौनपुर का शर्की राज्य
- शर्की राज्य का सबसे पराक्रमी और महत्वाकांक्षी सुल्तान इब्राहिम शर्की (1401-40 ई.) था, जो दिल्ली का सुल्तान बनने की इच्छा रखता था। इसीलिए उसने वीरमदेव बघेल से मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया और उसके सहयोग से कालपी-राज्य पर अधिकार करके दिल्ली को हस्तगत करने का प्रयास शुरू किया। वीरमदेव के पश्चात् उसका पुत्र नरहरिदेव (1438-1470ई.) भी अपने पिता का अनुशरण करते हुए 1443 ई. में महमूद शर्की (1441-57 ई.) के कालपी अभियान में सहयोग प्रदान करके बघेल-शर्की मैत्री का निर्वाह किया।" नरहरिदेव का पुत्र भैदचन्द्र (1470-95 ई.) और पौत्र सालिवाहन (1495-1500 ई.) दोनों ही अंतिम शर्की सुल्तान हुसैनशाह के समकालीन थे। इन दोनों ने भी परम्परागत चली आ रही बघेल-शर्की मैत्री का पूर्णतया निर्वाह किया।
बघेल-लोदी संघर्ष
बघेल राजाओं की लोदी सुल्तानों से कोई प्रत्यक्ष शत्रुता नहीं थी। इन दोनों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण बघेल - शर्की मैत्री थी। जिसके तहत ये लोदी सुल्तानों के विरुद्ध अपने शर्की मित्रों की वफादारी के साथ सहायता करते थे। इसी वजह से बघेल-राज्य को तीन लोदी आकमणों का सामना करना पड़ा था, जिसका ब्यौरा निम्नलिखित है:-
प्रथम आक्रमण
- 1488 ई. में हुसैनशाह शर्की के कालपी अभियान को रोकने के लिए बहलोल लोदी ने आगे बढ़कर यमुना नदी के तट पर स्थित "राकानो" नामक स्थान पर हुसैनशाह को पराजित किया। लेकिन हुसैन राह भट्ट्टा की ओर भागकर बघेल राज्य में शरण प्राप्त की। बघेल राजा भैदचन्द्र ने हुसैनशाह शर्की की अगवानी करके उसका सत्कार किया और कुछ लाख टंका, 100 घोड़े एवं कुछ हाथी भेंट में देकर अपनी सेना के साथ उसे जौनप्र तक सुरक्षित पहुँचाया। 12 इससे बहलोल लोदी भैदचन्द्र से चिढ़ गया और उसे सबक सिखाना आवश्यक समझा। लेकिन इसी बीच 1489 ई. में बहलोल लोदी की मृत्यु हो गई।
- बहलोल लोदी की मृत्यु के बाद हुसैनशाह शर्की की लोदी विरोधी गतिविधियाँ और तेज हो गई। उसी समय जौनपुर में बचगोती जमींदारों ने जूगा के नेतृत्व में विद्रोह किया, जिसमें लोदी सुल्तान के अधीनस्थ कड़ा के सूबेदार मुबारक खाँ नुहानी का भाई शेरखाँ मारा गया और मुबारक खॉ अपनी जान बचाकर भाग निकला। लेकिन घूँसी (प्रयाग) में गंगा नदी पार करते समय मल्लाहों ने उसे पकड़कर भैदचन्द्र के हाथों सौंप दिया। भैदचन्द्र ने मुबारक खाँ को बन्दी बना करके सिकन्दर लोदी से अपने सम्बन्ध और बिगाड़ लिये।
- सिकन्दर लोदी ने जौनपुर के बचगोती विद्रोह का दमन करने के पश्चात् चुनार में हुसैनशाह शर्की के सहयोगी अमीरों के विद्रोह का दमन करने पहुँचा। लेकिन वे सभी विद्रोही चुनार के दुर्ग में 1 अपने आपको सुरक्षित कर लिए। अतः दुर्ग का दीर्घकाल तक घेरा डालना व्यर्थ समझकर सिकन्दर ने भैदचन्द्र को दण्डित करने के लिए कन्तित की ओर प्रस्थान किया। यद्यपि भैदचन्द्र ने मुबारक खाँ को पहले ही मुक्त कर दिया था। फिर भी सिकन्दर लोदी, भैदचन्द्र द्वारा अपनायी गयी लोदी-विरोधी नीति का हिसाब निपटाना चाहता था। जब भैदचन्द्र को सुल्तान के आने की सूचना मिली, तो उसने कूटनीति से काम किया और आगे जाकर सिकन्दर लोदी का स्वागत-अभिनन्दन किया। जिससे सिकन्दर ने भैदचन्द्र से प्रसन्न होकर कन्तित पर उसके अधिकार की पुष्टि कर दी। तत्पश्चात् सिकन्दर लोदी भैदचन्द्र को अपने साथ लेकर अरैल (प्रयाग) की ओर रवाना हुआ। यद्यपि राजा भैदचन्द्र ने सिकन्दर को प्रसन्न कर लिया था, तब भी वह सुल्तान के प्रति सशंकित था। इसलिए रात्रि के समय उसने अपने परिजनों और सामान को छोड़कर सुल्तान के शिविर से भागकर बांधवगढ़ चला आया। किंतु इसके वावजूद सिकन्दर ने राजा को आश्वस्त करने के लिए उसके परिजनों और समस्त सामग्री को सुरक्षित उसके पास भेज दिया। लेकिन बघेल - राज्य की सीमा के अन्तर्गत अरैल पहुँचकर सिकन्दर ने भयंकर लूट-खसोट की तथा बाग-बगीचों और उद्यानों को उजाड़ दिया।
द्वितीय आक्रमण
- 1494 ई. में वर्षा ऋतु समाप्त होने के बाद सिकन्दर लोदी ने राजा भैदचन्द्र को सबक सिखाने के लिए पुनः कूच किया। क्योंकि वह अभी भी हुसैनशाह शर्की का पक्षधर बना हुआ था। मार्ग में सुल्तान की सेना बघेल-राज्य को नष्ट-भ्रष्ट करती हुई जब खानघाटी (विन्ध्य पर्वत का उतार घाट) पहुँची, तब उसे भैदचन्द्र के पौत्र वीरसिंहदेव के भयानक आक्रमण का सामना करना पड़ा। किन्तु बाद में उसे सुल्तान की सेना से पराजित होकर बांधवगढ़ दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। सिकन्दर लोदी वीरसिंह का पीछा करते हुए बांधवगढ़ की ओर बढ़ा। अतः भैदचन्द्र भयभीत होकर सरगुजा की ओर भाग गया। जहाँ 1495 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इधर सिकन्दर लोदी बढ़ते-बढ़ते बांधवगढ़ के उत्तर लगभग 28 मील की दूरी पर पपौंध नामक ग्राम तक पहुँच गया। लेकिन घनघोर जंगलों और पहाड़ों के बीच वह भटक गया और अफीम तथा रसद सामग्री के अभाव में उसकी सेना बेचैन होने लगी। ऐसी स्थिति में उसे वापस जौनपुर लौटने के लिए विवश होना पडा। इस अभियान में सिकन्दर लोदी को भारी नुकसान हुआ। जैसा कि तबकात-ए-अकबरी का लेखक निजामुद्दीन अहमद लिखता है कि "सुल्तान के नब्बे फीसदी घोड़े मर गये थे।"
तृतीय आक्रमण
1499 ई. में सिकन्दर लोदी एक बार फिर भट्टा के बघेल-राज्य पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हुआ। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे:-
(i) 1494-95 ई. के बांधवगढ़ अभियान में सिकन्दर लोदी की दुर्दशा की सूचना बघेलों द्वारा हुसैनशाह शर्की के पास भेजकर सिकन्दर के समक्ष विकट स्थिति उत्पन्न करना।
(ii) बघेल-शर्की मैत्री का अन्त करना।
(iii) सिकन्दर लोदी के वैवाहिक प्रस्ताव को बघेलों द्वारा ठुकराना।
(iv) शर्की सुल्तानों की शरण-स्थली 'बघेल-राज्य' को विजित करना।
- उक्त कारणों से प्रेरित होकर सिकन्दर लोदी ने बांधव-दुर्ग को विजित करने के लिए रवाना हुआ। रास्ते में बघेल-राज्य को उजाड़ता हुआ इस बार वह बांधवगढ़ पहुँचकर दुर्ग का घेरा डाल दिया। लेकिन बांधव-दुर्ग को फतह करना टेढ़ी खीर थी। एक तो घनघोर जंगल और दूसरे, दुर्ग के तीन तरफ दलदल। ऐसे स्थान पर रसद सामग्री की कमी हो जाना स्वाभाविक था। अतः इस बार पुनः सिकन्दर लोदी को निराशा ही हाथ लगी। इसलिए वापसी में सुल्तान और उसकी क्रोधित सेना ने बघेल-राज्य को तहस-नहस कर दिया।
- इस घटना के पश्चात् सालिवाहन अधिक समय तक जीवित न रहा और 1500 ई. में इसकी मृत्यु के बाद इसका पुत्र वीरसिंहदेव (1500-1535 ई.) बघेल राज्य का शासक बना। वह साहसी तथा पराक्रमी होने के साथ-साथ एक कुशल कूटनीतिज्ञ भी था। इसलिए इसने हुसैनशाह शर्की जैसे दुर्बल शासक के बजाय सिकन्दर जैसे शक्तिशाली सुल्तान से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करके अपने-राजनय का परिचय दिया।
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