बघेल सत्ता का अभ्युदय और गहोरा में बघेल-सत्ता की स्थापना
बघेल सत्ता का अभ्युदय और गहोरा में बघेल-सत्ता की स्थापना
तुर्कों के भयंकर प्रहार से चन्देलों और कलचुरियों की सत्ता अत्यंत कमजोर पड़ गयी, जिसके फलस्वरूप 13वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भर, गोंड़, सेंगर और अन्य छोटी-छोटी जातियों ने इस क्षेत्र में अपने-अपने ठिकाने बना लिये। इन छोटे-छोटे शासकों में भरों की स्थिति अधिक मजबूत थी, जिन्होंने कालिन्जर पर भी अधिकार कर लिया। इन्ही भर राजा के यहाँ गुजरात से आये दो बघेल भाई वीसलदेव और भीमलदेव नौकर हुए थे।' ये बघेल कौन हैं? इस क्षेत्र में क्यों आये? इस पर भी विचार करना समीचीन होगा।
बघेल मूलतः चालुक्य हैं। अन्हिलवाड़ा (गुजरात) के सोलंकी शासक कुमारपाल (1143-73 ई) ने अपनी मौसी के पुत्र अर्णोराज की सेवा से प्रसन्न होकर उसे व्याघ्रपल्ली (बघेलबारी) की सामन्ती प्रदान कर दी। साथ ही उसे अपना मंत्री भी बना लिया। इसी अर्णोराज के पुत्र लवण प्रसाद को गुजरात के लेखों में 'व्याघ्रपल्लीय' उल्लिखित किया गया है। जो कालान्तर में अपभ्रंश के रूप में 'बघेल' हो गया। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि बघेलबारी गाँव में रहने के कारण अर्णोराज के वंशज 'बघेल' कहलाये जाने लगे। इसी लवण प्रसाद उर्फ व्याघ्रपल्लीर्य को बघेलखण्ड के ऐतिहासिक स्रोतों में मूल पुरूष के रूप में व्याघ्रदेव के नाम से सम्बोधित किया गया है।
स्थानीय जनश्रुति के अनुसार 1236 ई. में उक्त दोनों बघेल भाई अपने पितामह व्याघ्रदेव के साथ अन्हिलवाड़ा से प्रयाग और चित्रकूट की तीर्थ यात्रा पर आये थे। जब ये लोग प्रभाग से चित्रकूट जा रहे थे, तब रास्तें में मड़फा नामक दुर्ग में रात्रि विश्राम के लिए ठहर गये। मड़फा दुर्ग कालिंजर के भर राजा के अधिकार में था। भर राजा इन यात्रियों को गुजरात से आया जानकर इनसे मिलने और स्वागत करने के लिए कालिंजर से मड़फा गया। परस्पर मुलाकात में बात-व्यवहार के दौरान भर राजा ने अपने अधीन गहोरा (जिला-चित्रकूट) के उद्दण्ड लोधी सामन्त की बिद्रोही प्रवृत्ति के बारे में व्याघ्रदेव से चर्चा की। अतः व्याघ्रदेव ने उद्दण्ड लोधी सामन्त को सबक सिखा के लिए अपने दोनों पौत्रों को भर राजा के साथ कालिंजर भेज दिया और स्वयं चित्रकूट चले गये।
कालिंजर पहुँच कर दोनों भाइयों ने भर राजा की सेना में भर्ती हो गये और सैनिक शक्ति के द्वारा लोधी सामन्त का अन्त करना चाहा। लेकिन लोधी सामन्त इतना अधिक शक्तिशाली था कि खुले युद्ध में उसका सामना करना आसान नहीं था। तब इन लोगों ने षड्यंत्र के माध्यम से लोधी का अन्त करने की योजना बनायी। इस षड़यंत्र में लोधी के दीवान तिवारी को पटाया गया और उसे गहोरा का आधा राज्य देने का लालच दिया गया। अतः दशहरे की रात दीवान - तिवारी ने लोधी को जश्न के दौरान इतनी अधिक शराब पिला दी कि उसने अपना होश-हवास खो दिया। इसी अवस्था में बीसलदेव और भीमलदेव ने लोधी का काम तमाम कर दिया।
लोधी के मारे जाने के पश्चात् दोनों बघेल भाइयों से भर राजा अति प्रसन्न हुआ और इन्हें ठाकुर का खिताब देकर गहोरा की सामन्ती प्रदान कर दी। बीसलदेव और भीमलदेव षड़यंत्र की शर्त के अनुसार गहोरा का आधा हिस्सा दीबान तिवारी को देना चाहा। लेकिन तिवारी ने दीवान के पद पर बने रहने की इच्छा व्यक्त की और अपना आधा गहोरा राज्य बघेलों को ही सौंप दिया। अतः बघेल भाइयों ने तिवारी को 'सिंह' की उपाधि से विभूषित किया। तब से बघेलखण्ड में दीवान तिवारी के वंशज अपने नाम के साथ 'सिंह' जोड़कर गौरव का अनुभव करते हैं। तभी से ये तिवारी 'अधरजिया-तिवारी के नाम से जाने जाते हैं।'
इस प्रकार 1236 ई. में गहोरा में बघेल-सत्ता की स्थापना हुई, जिसकी कमान बीसलदेव अपने छोटे भाई भीमलदेव को सौंपकर अन्हिलवाड़ा चला गया; जहाँ अपने पिता वीरधवल (वीर बघेल) की मृत्यु के पश्चात् उसके स्थान पर 1238 ई. में अन्हिलवाड़ा के सोलंकी राजा भीमदेव द्वितीय (1178-1241 ई.) का प्रधानमंत्री बन गया। उसने भीमदेव की दुर्बल स्थित का लाभ उठाकर सत्ता में अपनी पकड़ मजबूत कर ली और भीमदेव द्वितीय की मृत्यु के बाद 1245 ई. में राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार अन्हिलवाड़ा के सोलंकी राज्य के स्थान पर बघेल-सत्ता की स्थापना हुई; जो 1298 ई. तक कायम रही। यहाँ का अंतिम बघेल शासक कर्णदेव था।
इधर व्याघ्रदेव को जब गहोरा की उक्त घटना की खबर मिली, तो वे चित्रकूट में ही रहकर तपस्या में लीन हो गये। इसीलिए वीरभानूदय काव्यम् का लेखक माधव ऊरव्य व्याघ्रदेव को 'व्याघ्रपाद मुनि' से सम्बोधित करता है और रीवा के बघेलों को व्याघ्रपाद-मुनि का वंशज लिखता है, साथ ही बघेलों का गोत्र 'भारद्वाज व्याघ्रपाद' बताता है; जो कि रीवा के बघेलों की परम्परा से मेल करता है।
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