बुंदेलखंड प्राचीनकाल से भारतीय संस्कृति के पोषक केन्द्रों में से एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। आर्यों के आगमन के पश्चात् इस क्षेत्र में दोहरे सामाजिक स्तर दिखाई देते हैं। यहां के जो मूलनिवासी थे, वे आज भी आदिवासियों के रूप में यहां निवास करते हैं। इनके रहन-सहन का अन्य समाजों पर भी प्रभाव अवश्यंभावी रूप से पड़ा। बुंदेलखंड की भौगोलिक स्थितियों ने यहां की सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं एवं विचारों को दिशा दी है। यहां के प्रारंभिक समाज बहुत अधिक क्लिष्ट नहीं थे, बाद में इनमें धीरे-धीरे अंतर आता गया। जब बुंदेलखंड पर राजपूतों ने, खासकर बुंदेलों ने, अधिकार जमाया, तब यहां की सामाजिक व्यवस्था में सामंती तत्व शामिल होते चले गए और अंत में यह सामंती व्यवस्था के रूप में स्थापित हो गई। बुंदेलखंड की धरती पर 1732 से 1818 ई. के मध्य स्थानीय हिंदुओं एवं मध्यकाल में बाहर से आये अथवा धर्मान्तरित मुस्लिमों के अतिरिक्त महाराष्ट्र से आये मराठों ने भी अपना निवास बना लिया था। इस दृष्टि से उत्तर मध्यकाल में इस अंचल में उत्तर भारतीय हिन्दू समाज, दक्खन से आये मराठों एवं मुस्लिम समाज का मिलाजुला स्वरूप विद्यमान था।
बुंदेलखंडहिन्दू समाज
उत्तर भारत के अन्य राज्यों की भाँति बुंदेलखण्ड का सामाजिक स्वरूप भी सामंती था, जो हिन्दुओं और मुसलमानों से निर्मित हुआ था। इसमें हिन्दुओं का बहुमत था। हिंदू समाज में मुख्यतः चार वर्ण थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र।
बुंदेलखंड का ब्राह्मण वर्ण-
भारतीय समाज में ब्राह्मणों की स्थिति सदैव महत्वपूर्ण रही है। उन्होंने समाज में प्रमुख होते हुए अपना आशीर्वाद शासक वर्ग अर्थात् क्षत्रियों को प्रदान किया था। उन्होंने क्षत्रियों की सत्ता को दैवी राजत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन कर बल प्रदान किया था। जिसके फलस्वरूप उन्हें राज्य की ओर से तमाम वृत्तियाँ, अनुदान और पादराघ में भूमि प्राप्त होती थी। ब्राह्मण वर्ग ने हिन्दुओं की तत्कालीन वर्ण व्यवस्था को हमेशा दृढ़ आधार और अपार समर्थन दिया तथा साथ ही सनातन सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत् चार आश्रमों का भी पोषण किया। उस समय के समाज के जीवन मूल्यों, नैतिक आचरणों और विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों को ब्राह्मण ही निश्चित करते थे। समाज में व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक और उसके बाद उनके पितरों का पिंडदान कराने तक ब्राह्मण उनसे वैसे ही जुड़े रहते थे, जैसे मौलवी और उलेमा मुसलमानों से एवं पादरी ईसाईयों के साथ। भारतीय समाज में अवस्थित सोलह संस्कारों, तमाम रीति-रिवाजों, धार्मिक और वैवाहिक, यज्ञोपवीत, मुंडन, दाहक्रिया जैसे सामाजिक अनुष्ठानों और परंपरागत शिक्षा प्रणाली से जुड़े होने के कारण ब्राह्मणों का समाज पर असाध् ारण प्रभाव होता था। इसका उपयोग वे अपने संरक्षक शासक के पक्ष में समर्थन जुटाने में और अगर किसी शासक से अप्रसन्न हो गये तो उसके विरोध में, प्रचार करने में करते थे। यही कारण है कि क्षत्रिय शासक वर्ग जहाँ तक बन पड़े उन्हे दान-दक्षिणा देकर और तरह-तरह से उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास करता था । बुँदेला शासक इन ब्राह्मणों से दीक्षा लेकर उन्हें अपना गुरु बनाते थे, उनसे धर्म ग्रंथ सुनते थे, और जहाँ तक बन पड़े राजकाज में भी उनके परामर्शानुसार चलते थे।
बुंदेली सत्ता के ओड़छा राज्य में जमने पर बुंदेलखण्ड के बाहर ग्वालियर से डीग, भरतपुर, मथुरा और हरियाणा के बीच के प्रदेशों से आये सनाढ्य ब्राह्मणों का प्रभाव बढ़ रहा था। ब्राह्मणों के इन दोनों वर्गों जुझौतियों और सनाढ्यों में अनेकों उपजातियाँ बन गयी थी। बुंदेलखंड अंचल में एक अन्य प्रकार के ब्राह्मण मिलते थे, जिन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण कहा जाता था। ये कन्नौजिया ब्राह्मण भी कहलाते थे। इनके अतिरिक्त बुंदेलखंड में सरजूपारी, गूजरगौड़, तैलंग, महाराष्ट्रियन ब्राह्मण, नारबेदी एवं भार्गव आदि अन्य गैर क्षेत्रीय ब्राह्मणों का भी निवास था।
बुंदेला शासकों की शरण में रहने वाले ब्राह्मणों की स्थिति सदैव सुदृढ़ नहीं रही। विभिन्न कृतियों में बार-बार निर्धन ब्राह्मणों के उल्लेखों तथा बुंदेला राजा रजवाड़ों के दरबारों में अर्थ-प्राप्ति के लिए आगमन से ब्राह्मणों की गिरती हुई स्थिति का अनुमान होता है। बुंदेला शासक वर्ग पर उनकी पकड़ ढीली पड़ गई थी। वे उनकी कृपा के मोहताज हो गये थे और प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रशंसा में काव्य रचनाएँ करने लगे थे। बुंदेली भाषा के तत्कालीन महान् कवि छत्रप्रकाश के रचयिता लाल कवि भी इसे स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अपनी छत्रप्रकाश नामक कृति की रचना पन्ना के शासक छत्रसाल के आदेश पर की थी । हालांकि बुंदेली समाज में ऐसे स्वाभिमानी विद्धान ब्राह्मण भी विद्यमान थे जो पठन-पाठन अथवा अध्ययन-अध्यापन में रत रहते थे और उन्हे राजकीय संरक्षण का लोभ नहीं सताता था।
बुंदेलखंड के ब्राह्मण समाज में वर्ण व्यवस्था के कट्टर समर्थक और मध्यकालीन बुंदेलखण्ड के सामाजिक ढाँचे के आधार स्तम्भ थे। सामाजिक वर्ण व्यवस्था के साथ ही जीवन में चार आश्रमों का पालन करना आदर्श स्थिति थी। किंतु सभी ब्राह्मणो के द्वारा इन दोनों व्यवस्थाओं का व्यवहार में उपयोग में लाना पूर्णतः संभव नहीं था। ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य तीन वर्णों को इन आश्रमों में जीवन व्यतीत करने से मुक्त रखा गया था। ब्राह्मणों की पहचान उनके यज्ञोपवीत-जनेऊ, पीली धोती, कटि के ऊपर चादर या शाल जैसे औड़े उपरना नामक वस्त्र से होती थी। इसे अंगौछा अथवा गमछा भी कहते थे। ब्राह्मण के गले में पड़ी तुलसी या रुद्राक्ष की माला, मस्तक पर केशर रोरी युक्त चंदन का तिलक और सिर पर पीली पाग उनके श्रृंगार के अभिन्न अंग थे। वे बिना सिले वस्त्र धारण करते थे। काँटों-कंकड़ों से बचने के लिए वे पैरों में पन्हैया अर्थात् चप्पल पहनते थे।
कालांतर में बुंदेलखण्ड में सूफियों, पन्ना के स्वामी प्राणनाथ और ओड़छा तथा सेंवढ़ा के संत स्वामी अक्षर अनन्य के हिन्दू मुस्लिम समन्वयवादी दर्शन एवं जाति-पाँति विरोधी दृष्टिकोणों के उद्भव से ब्राह्मणों का प्रभाव हिन्दुओं पर कुछ कम होने लगा। फिर ब्राह्मणों की हठधर्मिता और निम्नवर्णों के प्रति उनके अनुदार रवैये ने भी उनकी जनप्रियता को कम किया। फलस्वरूप बुंदेलखण्ड में प्राणनाथियों और अक्षर अनन्य के अनुयाइयों की संख्या बढ़ चली थी। मुस्लिम सूफी संत मुगल युग के पहले से ही बुंदेलखण्ड में जम चुके थे ।
बुंदेलखंड क्षत्रिय वर्ण-
मध्यकाल में बुंदेले क्षत्रियों ने शासक वर्ग के होने के कारण प्रमुखता प्राप्त कर ली थी। क्षत्रिय वर्ग में पमार एवं धँधेरे उनके समकक्ष अथवा उनके बाद आते थे। इन्हीं पमारों एवं धंधेरों ने बुंदेलों के पूर्वज सोहनपाल को गढ़कुंडार पर अधिकार करने और बुंदेली सत्ता की स्थापना करने में सहायता प्रदान की थी, जबकि इसी बुंदेलखंड के अन्य क्षत्रियों चौहानों, चंदेलों, बनाफरों आदि उनसे दूर रहते थे। इसलिए बुंदेले अपने वैवाहिक संबंध पमारों और धँधेरों में ही करते थे। उनके संबंधि ायों में पवाँया, नौनेर, कैरवाँ, और बेरछा के पमार थे, तथा धंधेरों में सहरा और शाहाबाद के धंधेरे थे।
इस समय बुंदेलखण्ड में बुंदेलों के एकछत्र राज्य के नीचे उनके संबंधी पमारों और धंधेरों को प्रमुखता प्राप्त थी तथा अन्य क्षत्रिय ठाकुर, व लड़ाकू जातियाँ उनके बाद ही अपने युद्ध कौशल एवं बुंदेलों के प्रति समर्पण की भावना के अनुसार आती थीं। तेरह अथवा छत्तीसों में गिनी जाने वाली कई जातियाँ थीं। ये जातियां कभी बुंदेलखंड के कई छोटे-बड़े भू-भागों पर अधिकार रखती थीं, किंतु बुंदेलों ने उन्हें बुरी तरह से हराकर कमजोर कर दिया था। अतः विवश होकर उन्हें बुंदेलों के अधीन हीन स्थिति स्वीकार करनी पड़ी थी। मध्यकालीन कवि लालकवि के अनुसार अन्य क्षेत्रों की भाँति बुंदेलखण्ड के क्षत्रियों की मुख्य प्रवृत्ति युद्धोन्मादी थी। अपनी इस युद्ध प्रवृत्ति के कारण ये बुंदेले कम समय तक ही जी पाते थे। इसीलिए संत कवि अक्षर अनन्य ने उसकी औसत आयु केवल पचास वर्ष निर्धारित की थी और उनके क्रोधी स्वभाव के कारण उनका वर्ण लाल बताया था।
बुंदेलखण्ड के सभी क्षत्रिय एवं युद्धप्रिय जातियों के लोग अपने बाहुबल से अपने-अपने क्षेत्रों में भूमियावट के द्वारा अर्थात् लूटमार के आधार पर अन्य क्षेत्रों पर कब्जा कर उनसे चौथ वसूल करते थे और नये प्रदेशों को अधीन कर अपने राज-कोषों को भरने के लिए निरंतर प्रयासरत रहते थे। बुंदेला शासकों में अन्य राजपूत शासकों की भाँति उत्तर मुगलकालीन बादशाहों की सेवा कर उनकी कृपा प्राप्त करने, शाही सम्मान और उच्च मनसब प्राप्त करने की आकांक्षाएँ भी उत्पन्न हो गई थीं। जिसके फलस्वरूप उन्होंने मुगल सेवा में और विशेषकर मराठों के विरूद्ध दक्षिणी भारत में अद्भुत शौर्य, निर्भीकता, और असीम साहस का प्रदर्शन कर अपने शत्रुओं को भी चमत्कृत कर दिया था ।
बुंदेलखंड के शासक वर्ग अर्थात् क्षत्रिय वर्ण की युद्ध करने की इस प्रवृत्ति से दो अन्य कार्य जुड़े हुए थे। एक उद्देश्य था-ब्राह्मण, गौ एवं धर्म की रक्षा करना और दूसरा उद्देश्य था शासन चलाना। सुदृढ़ शासन व्यवस्था के लिए उन्हें क्या करना चाहिए तथा कौन-सी नीतियाँ अपनानी चाहिए, इसकी विशद व्याख्या समकालीन काव्य-कृतियों में मिलती है। बुंदेलखण्ड के क्षत्रियों के समस्त वर्गों को अपने-अपने स्थानों में ठाकुर अथवा राजा कहा जाता था, जैसे बुंदेला ठाकुर, पमार ठाकुर, धंधेरा ठाकुर, बैस ठाकुर आदि अथवा रज्जू राजा, भैया राजा आदि। यह दौर सामंती प्रभुता एंव शोषण का दौर था। अतः राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पर इन सामंतों का ही नियंत्रण था। यह सामंती व्यवस्था मुख्य रूप से उन्ही के स्वार्थों से परिचालित होती थी। इसमें ब्राह्मण उनके अभिन्नतम सहयोगी थे। जहाँ कहीं भी समाज में शासक वर्ग की स्थिति दयनीय होती थी तो ब्राह्मण उन्हें इस स्थिति से उबारने का भरसक प्रयत्न करते थे, क्योंकि उनकी सुरक्षा एवं आजीविका क्षत्रिय वर्ग के जीवित रहने अथवा उनके अक्षुण्ण रहने पर ही निर्भर थी।
बुंदेलखंड वैश्य वर्ण-
बुंदेली समाज में तीसरा वर्ग वैश्य वर्ण का माना जाता था और वस्तुतः यह वैश्य वर्ग ही बुंदेली समाज की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ थी। अन्य राज्यों की भाँति बुंदेला राज्यों में आर्थिक गतिविधियों के लिए यही वर्ग उत्तरदायी था। बुंदेलखंड की भौगोलिक परिस्थितियों कठिन होने के कारण यहाँ के किसानों को प्रायः अनिश्चितता के वातावरण में रहना पड़ता था तथा वे अभावग्रस्त जीवन जीने के लिये विवश हो जाते थे। यहाँ के वैश्य, जिन्हें सेठजी, महाजन, साहूकार अथवा बनिया कहा जाता था, इन किसानों को खेती-बाड़ी करने करने के लिये, हल-बैल बीज के लिए धन देते थे। वह फसल बिगड़ जाने पर या सूखे की स्थिति में अपनी दी हुई रकम चली जाने का खतरा उठाता था और मंडियों में माल बेचता था। ये व्यापारी दूर-दूर तक माल भेजते थे या स्वयं ले जाते थे और राज्यों की सीमाओं पर लगने वाली चुंगियाँ तथा अंतरदेशीय व अंतरराज्यीय करों का भुगतान कर शासक की आय में वृद्धि करते थे। इतना ही नहीं आपत्ति के समय वह अपने संचित धन से अपने शासक को भी मदद करता था। यह मदद सदैव ही स्वेच्छा से न होती हो, यह अलग बात है ।
बुदेलखंड में मुख्यतः तीन तरह के वैश्यों का उल्लेख मिलता है- स्थानीय गहोई अर्थात् गुप्ता, अग्रवाल एवं जैन। मध्यकाल में बुंदेली समाज के जिन वैश्य वर्गों का उल्लेख समकालीन साहित्यिक ग्रंथों में मिलता है, या जो वैश्य जातियाँ बुंदेलखण्ड की नदियों द्वारा निर्धारित प्राकृतिक सीमाओं में पीढ़ियों से रहती चली आई हैं, वे हैं गहोई, जैन, अग्रवाल, खत्री, माहौर, मारवाड़ी, वैश्य आदि। इनमें गहोई और जैनों को प्रमुखता प्राप्त थी। वे संपूर्ण बुंदेलखण्ड में अच्छी संख्या में सभी जगह फैले हुए थे। गहोईयों के बारे में विशेष बात यह थी कि केवल बुंदेलखण्ड में ही सीमित थे। इसलिए इनकी आबादी यहाँ घनी हो गई थी। जीविका के लिए वे अपना वैश्य कर्म छोड़कर बुंदेले राजाओं के सैन्य दलों में भी भरती होने लगे थे। दतिया के शुभकरण और दलपतराव बुंदेला के सैन्य दलों में चौदहा अथवा चउदा गहोईयों के उल्लेख हैं, जबकि छत्रसाल बुँदेला के तो तीन प्रसिद्ध सेनानायक हिम्मतराय चौदहा, गंगाराम चौदहा और हरजूमल्ल गहोई ही थे । 22 जैन मतावलंबी बुंदेलखण्ड में बहुत प्राचीनकाल से रहते चले आये हैं, जैसा कि उनके देवगढ़, खजुराहों, सोनागिरि और बुंदेलखण्ड के कोने-कोने में पाये जाने वाले मंदिरों और ललितपुर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना झांसी, की समृद्ध जैन बस्तियों से स्पष्ट होता है। इनमें से कुछ राजस्थान से भी बुंदेलखण्ड में आकर बसे थे। उनमें से कई मारवाड़ी अग्रवाल थे। जैनों के व्यवसाय का तब एक प्रमुख अंग साहूकारी करना अर्थात् ब्याज पर रूपया देना था। गहोई और जैनों के बाद वैश्य वर्ग में तीसरा स्थान अग्रवालों का था। ये यद्यपि अपने पूर्वजों का अग्रोहा हरियाणा से आया मानते हैं, लेकिन पीढ़ियों के 'अंतराल में बुँदेली समाज में इतने रच-बस गये हैं कि बुंदेलखण्ड के अग्रवालों की अपनी अलग पहचान ही बन गई। वैश्यों के विभिन्न वर्ग और गोत्रों के लोग जैसे जैनों में दिगंबर, श्वेतांबर और परिवार, माहौर, ओसवाल, पोरवाल, माहेश्वरी, खत्रियों में साहनी, सहगल, कंचन आदि बुँदेलखण्ड में कहीं अधिक और कहीं थोड़े से सभी जगह बिखरे हुए हैं, लेकिन उनके व्यवसाय वही वैश्यों के थे जिनका कि उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। सहगल एवं कंचन उपनाम का उपयोग करने वाले यहाँ के लोग स्वयं को पंजाब से आव्रजित होकर ब्राह्मण वर्ण का बताते है।
स्थानीय बुंदेली साहित्य में बताया गया है कि वैश्य जाति के लोगों को प्रवृत्ति से वणिक, स्वभाव से कंजूस, और सूदखोर हैं। लाभ के लिए वे सभी कुछ बेच सकते हैं। वे लक्ष्मी भक्त होते हैं इसलिए लक्ष्मी-विष्णु उनके इष्टदेव हैं। दीवाली उनका मुख्य त्यौहार है। वे इस दिन लक्ष्मी-पूजन करते हैं। ब्याज उनकी आय का महत्वपूर्ण स्रोत है। इसी को ध्यान में रखते हुए केशवदास मिश्र ने अपनी कृति 'कवि प्रिया' में ब्याज की स्तुति की है। बुंदेलखंड में रहने वाले सुनार एवं सर्राफों का भी वैश्य वर्ग में सम्मिलित किया जाता था। सुनारों की स्थिति समाज में इस दृष्टि से महत्वपूर्ण थी कि समाज का प्रत्येक वर्ग अपने मूल्यवान आभूषण इन्हीं सुनारों से बनवाते थे। शासक वर्ग भी प्रतिष्ठित सुनारों को अपने महल में बुलाकर अपनी रानियों की इच्छानुसार आभूषण बनाने हेतु सुझाव मांगते थे तथा रानियों से प्रत्यक्ष वार्तालाप की अनुमति भी देते थे।
बुंदेलखंड शूद्र वर्ण-
बुंदेलखंड में सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत् सबसे निचले स्तर पर शूद्र वर्ण का स्थान था। इन शूद्रों में भी दो स्तर थे। उच्च वर्ग के शूद्रों वे जातियाँ आती थीं जिनका संसर्ग ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ण में वर्जित नहीं होता था और जो उनसे अपने व्यवसाय या सेवा कार्य के कारण निकट से जुड़ी रहती थीं, जैसे तमेरे अथवा तंवेरे, सैनी अथवा माली, खवास या नाई, तमोली वाले, शिल्पी, पटवा, द्रौवा, ढीमर, भिश्ती, लुहार, बढ़ई, कुम्हार, लखेरा अथवा चुरेले, कोरी, धोबी, तेली, खेती करने वाली जातियां काछी, कुर्मी, लोधी, गूजर, अहीर, रावत, गड़रिया आदि। नट-नटनी, भाँड़, वेश्या, पातुर मल्ल, बेड़नी आदि की गणना भी शूद्र जाति में होती थी। ठठेरे, पासी, धोसी, बसोर, बहेलिया, कसाई, डोम, चमार, चाँडाल आदि अंत्यज और स्वपच जातियों में समझे जाते थे, जिन्हें उच्च तीन वर्णों के लोग बड़ी हेय और घृणा की दृष्टि से ही नहीं देखते थे बल्कि स्पर्श करने तक से बचते थे। उपरोक्त सभी शूद्र जातियों के उल्लेख हरिराम व्यास, केशवदास मिश्र, जोगीदास, लालकवि, अक्षर अनन्य, भगवत रसिक और दान कवि आदि की रचनाओं में आये हैं। हिंदू और मुसलमान दोनों संप्रदायों में जातियां होती थीं।
बुंदेलखंड कायस्थ -
बुंदेलखंड अंचल में भी उत्तर भारत के अन्य राज्यों की भाँति पूर्व मध्यकाल में एक नवीन जाति का उद्भव हुआ था, जिसे कायस्थ के नाम से जाना गया। बुंदेले राज्यों के दरबारी कार्यों और प्रशासन के कायस्थ अविभाज्य रूप से जुड़े रहते थे। वे वंशानुगत खास कलम, बुतायती, किताबी, कानूनगो, पटवारी, तहसीलदार/ नायब तहसीलदार, मुंशी आदि होते थे। बुंदेलखण्ड में खरे, श्रीवास्तव, सक्सेना आदि जातियों और गोत्रों के जो कायस्थ मुगलकाल में पाये जाते थे, उनके वंशज अभी तक चले आ रहे हैं। दतिया के दलपतराव का निजी सचिव भीमसेन सक्सेना कायस्थ था। ओड़छा और सेंवढ़े के संत अक्षर अनन्य भी कायस्थ थे। कायस्थ पठन-पाठन में कुशल और कलम के धनी होते थे। वे विशेष रूप से प्रशासन संबंधी कागज-पत्र, हुक्मनामें, दरख्वास्तें, संस्मरण पत्र लिखने में पारंगत होते थे। यही कारण है कि इस जाति ने सल्तनत और मुगल काल में जितनी तेजी से उर्दू-फारसी और अरबी-फारसी सीख ली, उतनी शीघ्रता तथा कुशलता से किसी और जाति ने नहीं। कायस्थों की यह विशेषता थी कि शासक वर्ग से सीधे जुड़ाव होने के कारण इनके रहन-सहन एवं आचार-व्यवहार में उच्चवर्गीय भाव दृष्टिगोचर होते थे, किंतु ऐसा केवल सक्सेनाओं के विषय में कहा जाता है। क्योंकि खरे, श्रीवास्तव एवं भटनागर आदि कायस्थ तो गाँवों में निवास करते थे तथा खेती-बाड़ी करते थे। कायस्थों की चापलूसी, हाजिरजवाबी तथा प्रशासनिक क्षमता की वजह से शासक वर्ग सदैव उनसे प्रसन्न रहता था और उन्हें अपने करीब रखता था। इसी कारण राज्य के अन्य प्रभावशाली व्यक्ति इनसे बैर मोल लेने में हिचकिचाते थे।
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