बुंदेलखंड के इतिहास में आर्थिक दशा | Bunedlkhand Economic History
बुंदेलखंड के इतिहास में आर्थिक दशा
बुंदेलखंड के इतिहास में आर्थिक दशा
- आज की भाँति बुंदेलखंड सदियों से आर्थिक दृष्टि से विपन्न अंचल रहा है। भौगोलिक विषमताओं ने इस क्षेत्र की आर्थिक परिस्थितियों को सदैव से प्रभावित किया है। यहाँ के निवासियों को किसी भी राजा की प्रजा बनने से कोई सुख प्राप्त न हो सका, क्योंकि इनके राजाओं ने उन पर केवल शासन चलाया, उनका शोषण किया, उनका दोहन किया और अपनी विलासिता के लिये उनकी सेवायें प्राप्त कीं। वे प्रजा से राजस्व तो वसूलते थे, किंतु उनके कल्याण के लिये धन खर्च नहीं करते थे। राजाओं ने अपनी सेवा में जो खिदमतगार, जागीरदार एवं कारिन्दे रख छोड़े थे, वे भी इस प्रजा का शोषण करने से बाज नहीं आते थे। राजा ने खालसा भूमि पर तथा जागीरदारों ने जागीरों पर अपना कब्जा कर रखा था, जबकि प्रजा केवल कृषि योग्य भूमि पर मजदूरों के रूप में कार्य करने के लिये विवश थी। इस क्षेत्र की भूमि उपजाऊ न होने के कारण यहाँ पर फसलों का उत्पादन बड़े पैमाने पर नहीं हो पाता था। यदि किन्हीं क्षेत्रों की कृषि योग्य भूमि उपजाऊ थी भी तो उस पर जागीरदारों एवं अन्य रसूखदारों का आधिपत्य था। आम किसानों के पास बंजर जमीन ही हिस्से में आती थी। वे इस भूमि को उपजाऊ बनाने के लिये जी-तोड़ मेहनत करते थे तथा इनके द्वारा उस भूमि पर जो उत्पादन किया जाता था, उसका एक बड़ा हिस्सा जागीरदारों द्वारा भू-राजस्व के रूप में छीन लिया जाता था और कुछ हिस्सा मंदिरों के पुरोहितों की झोली में चला जाता था और शेष हिस्से में से अन्य कर्मकारों के लिये भी व्यवस्था की जाती थी।
- जिन लोगों के पास कृषि योग्य भूमि नहीं थी, वे मेहनत-मजदूरी करके अपने उदर की पूर्ति करते थे। कुछ लोग अपनी आजीविका के लिये पशुपालन पर निर्भर थे। हालाँकि पशुपालन का व्यवसाय भी उन्नत नहीं था, क्योंकि जब पशुपालकों को खाने के लाले होते थे तब पशुओं के भरपेट भोजन की कल्पना कैसे की जा सकती है। इन मजदूरों एवं पशुपालकों कों अपना पेट भरने के लिये कई वनोपज एवं अन्य साधारण भोज्य पदार्थों पर निर्भर रहना पड़ता था, जैसे महुआ, बेर, मकोरा, ककोरा, गुलगुज, जामुन, भाजी, सुरका, मुरार, गिजार, कसेरूआ, तेंदू, खिरनी आदि। इस क्षेत्र में दुर्गम भौगोलिक परिस्थितियां होने के कारण कभी-भी स्थानीय राजाओं का ध्यान अपने क्षेत्र के आर्थिक विकास की ओर नहीं गया, बल्कि वे अपनी सत्ता बचाने तथा अपने राजपरिवार के खर्चों को चलाने के लिये आस-पास के क्षेत्रों में लूट-पाट किया करते थे, जिसका उनकी प्रजा पर विपरीत प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। प्रजा भी येन-केन-प्रकारेण अपना पेट भरने लायक श्रम करती थी।
- बुंदेलखंड में उन्नत कृषि के अभाव में आजीविका का एक अन्य साधन उद्योग-धंधे हो सकता था, किंतु यहां के शासकों ने इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार का विकास करने में रुचि प्रदर्शित नहीं की। ग्रामीण एवं क्षेत्रीय स्तर पर कुटीर उद्योगों की उपस्थिति किन्हीं क्षेत्रों में दिखती है, जैसे, बढ़ई द्वारा लकड़ी के खिलौने, कुम्हार द्वारा मिट्टी के खिलौने एवं बर्तन, स्वर्णकारों द्वारा आभूषण निर्माण, कसेरों द्वारा पीतल एवं कॉसे, तमेरों द्वारा ताँबे, लुहारों द्वारा लोहे की मूर्तियों, बर्तनों एवं खिलौनों का निर्माण, गड़रियों द्वारा कंबल निर्माण, रंगरेजों द्वारा रंगाई एवं रंग उत्पादन, कोरियों द्वारा वस्त्र बुनाई, दर्जी द्वारा सिलाई, चुरेलों द्वारा काँच के बर्तन एवं खिलौनों का निर्माण, कसगरों द्वारा कागज निर्माण तथा चर्मकारों द्वारा चमड़े की वस्तुओं का निर्माण आदि। यद्यपि ये सभी कार्य अंचल के सभी भागों में संपादित किये जाते थे, किंतु कुछ क्षेत्र ऐसे थे, जहाँ के कारीगर अपनी कलाकारी के लिये दूर-दूर तक जाने जाते थे तथा उनकी कलाकारी उनके क्षेत्र के नाम से जानी थी, जैसे लोहे के बर्तन विशेषकर कढ़ाही बिजावर में, मिट्टी के बर्तन टीकमगढ़, छतरपुर के तलगुंवा एवं मऊरानीपुर में, जरी का काम दतिया, चंदेरी एवं चरखारी में, कागज का काम सागर, दमोह में, वस्त्र बुनाई कर्म चंदेरी, निवाड़ी, मऊरानीपुर तथा खरगापुर में जबकि पीतल एवं तॉवे के बर्तन छतरपुर के प्रसिद्ध थे। इन कुटीर उद्योगों को स्थानीय राजाओं द्वारा विशेष प्रोत्साहन नहीं दिये जाने से ये कर्मकार अपनी पूँजी की मर्यादा में रहकर काम किया करते थे, जिससे उनके हुनर का वास्तविक विकास नहीं हो सका। उद्योग-धंधों के विकास एवं व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के लिये एक सुव्यवस्थित विनिमय प्रणाली का अस्तित्व में होना अर्थशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, किंतु बुंदेलखंड में इसका पूर्णतः अभाव था। यहाँ के लोग प्राचीन विनिमय पद्धति पर अवलंबित थे।
- बुंदेलखंड में आर्थिक विकास न हो पाने के कई अन्य कारण भी विद्यमान थे। यहाँ उच्च कोटि के खनिजों की सदैव कमी रही है, यद्यपि कुछ विभिन्न प्रकार के खनिजों की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता है। इनमें चूना, मुरम, सेलखड़ी, गोरा पत्थर अर्थात् डायस्फर, हीरा एवं पन्ना, इमारती पत्थर, सीसा जैसे ऐसे खनिज है, जिनका उत्पादन बहुतायत में किया जा सकता था, किंतु यहाँ के शासकों द्वारा इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। इसी प्रकार यहाँ उपलब्ध घने जंगलों का उपयोग यहाँ के शासकों द्वारा विभिन्न युद्धों एवं छापामार युद्धों में किया जाता रहा, किंतु उन्होंने वनोपजों के उत्पादन पर गौर नहीं किया। यहाँ के क्षेत्रों में यातायात के साधन उपलब्ध न होने से भी लोगों को कृषि उपज, वनोपज एवं कुटीर उद्योगों से उत्पादित वसतुओं के व्यापार के लिये सुगमता प्राप्त नहीं होती थी। बैलगाड़ी एवं घोड़ा गाडी भी सम्पन्न लोगों के पास हुआ करती थी। समाज में साहूकारों एवं महाजनों की उपस्थिति ने भी यहाँ के निवासियों के आर्थिक विकास में बड़ी बाधा उत्पन्न की। ये साहूकार एवं महाजन किसानों एवं मजदूरों को उनकी आवश्यकता के अनुसार ऋण देते थे तथा उसकी वसूली अधिक ब्याज के साथ करते थे।
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