उत्सर्जन तन्त्र के विकार |Disorders of Excretory System
उत्सर्जन तन्त्र के विकार (Disorders of Excretory System)
उत्सर्जन तन्त्र के विकार
1. मूत्राशय शोथ (Cystitis)
- मूत्राशय में सूजन आ जाना मूत्राशय शोथ कहलाता है। कभी-कभी प्रोस्टेट ग्रन्थि के बढ़ जाने से भी मूत्राशय शोथ हो जाता है।
2. वृक्क पथरी (Renal stones)
- वृक्क के ऊतकों में कैल्शियम ऑक्जैलेट तथा फॉस्फेट्स के जमाव से पथरी का निर्माण होता है.
3. जलीय शोथ (Oedema)
- ऊतकों में अधिक मात्रा में तरल एकत्र हो जाने से सूजन आ जाती है, जिसे जलीय शोथ कहते हैं।
4. असंयम (Incontinence)
- मूत्र त्याग के नियन्त्रण न करने की अवस्था को असंयम कहते हैं। ऐसा बाह्य अवरोधनी के तन्त्रिका मार्ग का पूरी तरह से निर्माण न हो पाने के कारण होता है।
5. वृक्क नलिका अम्लता (Renal tubular acidosis)
- इस अवस्था में व्यक्ति हाइड्रोजन आयनों का स्रावण उचित मात्रा में नहीं कर पाता है, जिससे मूत्र में सोडियम बाइकार्बोनेट अधिक मात्रा में उत्सर्जित होने लगता है।
6. डायबिटीज इन्सीपीडस (Diabetes insipidus)
- एल्डोस्टीरॉन के नियन्त्रण में जल का अप्रत्यक्ष (indirect) अवशोषण होता है, जबकि ADH के नियन्त्रण द्वारा जल का प्रत्यक्ष अवशोषण होता है।
7. ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस (Glomerulonephritis)
- ग्लोमेरुलाई का शोथ (inflammation) ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस कहलाता है। यह स्थिति वृक्कों को चोट लगने, जीवाण्विक टॉक्सिन्स, औषधीय प्रतिक्रियाओं (drug reaction), आदि के कारण उत्पन्न हो सकती है। इस रोग में RBCs व प्रोटीन्स, छनकर ग्लोमेरुलर निस्यन्द में पहुँच जाती है।
8. यूरेमिया (Uremia)
- रुधिर में यूरिया की अत्यधिक मात्रा का पाया जाना यूरेमिया कहलाता है। यह स्थिति किसी जीवाण्विक संक्रमण या यान्त्रिक अवरोध के कारण वृक्क नलिकाओं द्वारा यूरिया के हासित उत्सर्जन (decreased excretion) के कारण उत्पन्न होती है। यूरिया की उच्च सान्द्रता कोशिकाओं को विषाक्त कर देती है।
9. वृक्कावरोध (Kidney failure)
- वृक्कों की उत्सर्जन और लवण-जल नियामक कार्य करने में आंशिक अथवा पूर्ण असमर्थता वृक्कावरोध कहलाती है। इसके कारण यूरेमिया, लवण-जल असन्तुलन, एरिथ्रोपोइजिन के स्रावण का रुकना, आदि समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। अनेक कारक वृक्कावरोध उत्पन्न कर सकते हैं; जैसे-नलिकीय आघात (tubular injury), ग्लोमेरुलोनेफ्राइटिस, जीवाण्विक टॉक्सिन्स, जल व विद्युत अपघट्य असन्तुलन, रुधिर स्राव, आदि।
10. प्रोटोन्यूरिया (Protonuria)
- मूत्र में प्रोटीन की मात्रा सामान्य से अधिक होना प्रोटोन्यूरिया कहलाता है।
11. गाँउट (Gout)
- यह एक आनुवंशिक रोग है, इसमें यूरिक अम्ल का निक्षेपण अस्थियों की सन्धियों व वृक्क ऊतकों में होने लगता है जो हानिकारक होता है। यह निर्जलीकरण, उपवास या डाइयूरेटिक से बढ़ता है।
उत्सर्जन तन्त्र के विकार अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
- रुधिर में किसी पदार्थ की अधिकतम मात्रा, जिस सीमा तक वह ग्लोमेरुलर निस्यन्द से पूर्णतया पुनरावशोषित हो सके, उसका थ्रेशहोल्ड मात्रा कहलाती हैं।
- पॉलीयूरिया या डाइयूरेसिस में शरीर में मूत्र की मात्रा अत्यधिक हो जाती है। यह मात्रा 2 लीटर/दिन तक बढ़ जाती है।
- पॉलीडिप्सिया में प्यास बहुत अधिक लगती है।
- पेरिटोनियल अपोहन में रोगी की पेरिटोनियमी गुहा में एक कैथेटर (catheter) स्थिर कर दिया जाता है।
- पायलोनेफ्राइटिस, रीनल पेल्विस, कैलिसेज और अन्तराली ऊतक का शोथ है। जो स्थानीय जीवाण्विक संक्रमण के कारण होता है।
अपोहन Dialysis क्या होता है ?
- रुधिर से उत्सर्जी पदार्थों को अर्द्धपारगम्य झिल्ली से विसरण के द्वारा पृथक् करना अपोहन कहलाता है।
रुधिर अपोहन Haemodialysis
- यदि किसी व्यक्ति के वृक्क क्षतिग्रस्त (निष्क्रिय) हो जाए, तो उनके रुधिर का छनन कृत्रिम वृक्क द्वारा किया जाता है। यह प्रक्रिया हीमोडायलिसिस कहलाती है। इसमें विलयन और जल के मध्य एक अर्द्धपारगम्य झिल्ली रखकर छोटे अणुओं को बड़े अणुओं से पृथक् किया जाता है। यह अपोहन की प्रक्रिया पर आधारित है। हीमोडायलाइजर में एक सेलोफेन नलिका होती है जो लवणयुक्त जल के विलयन में लटकी रहती है। इस विलयन में यूरिया अनुपस्थित होता है।
- रोगी के रुधिर को 0° पर ठण्डा करके एण्टीकोएग्युलेण्ट हिपेरिन (heparin) के साथ मिश्रित कर किसी एक धमनी से सेलोफेन नलिका में पम्प किया जाता है जिसके फलस्वरूप यूरिक अम्ल, यूरिया, क्रिएटिनिन, अतिरिक्त लवण और H' आयन रुधिर से, परिपार्श्विक विलयन (surrounding solution) में विसरित हो जाते हैं। इस प्रकार शोधित रुधिर आइसोटोनिक और एण्टीहिपेरिन मिश्रित होता है। इसके बाद इसको रोगी की एक शिरा में पम्प कर दिया जाता है। प्लाज्मा प्रोटीन्स रुधिर में ही रहती है और सेलोफेन के छिद्र, बड़े अणुओं को पार नहीं जाने देते हैं।
उत्सर्जन तन्त्र से संबन्धित प्रमुख तथ्य
- प्रोटोजोआ, पोरीफेरा, सीलेन्ट्रेटा और इकाइनोडर्मेटा संघ के जन्तुओं में उत्सर्जन शरीर की सतह द्वारा होता है।
- संघ-आर्थोपोडा के जन्तुओं में ग्रीन ग्रन्थियाँ (green glands), मैक्सिलरी ग्रन्थियाँ, कक्षांग ग्रन्थियाँ, मैल्पीधी नलिकाएँ, यूरिकोस ग्रन्थियाँ, वसाकाय तथा क्यूटिकल उत्सर्जी अंगों की भाँति कार्य करती हैं।
- एक मिनट में दोनों वृक्कों द्वारा निस्यन्द की जितनी मात्रा उत्पन्न की जाती है वह केशिका गुच्छ निस्यन्दन दर कहलाती हैं।
- यकृत में आवश्यकता से अधिक अमीनो अम्लों को यूरिया में बदलने की प्रक्रिया होती है। अमोनिया द्वारा यूरिया का निर्माण एक चक्रीय प्रक्रम है जिसे क्रेव्स-हेन्सलीट चक्र अथवा ऑर्निथीन चक्र भी कहते हैं।
- एन्यूरिया (Anuria) वृक्क द्वारा मूत्र का निर्माण पूर्णतया अवरूद्ध हो जाना एन्यूरिया कहलाता है।
- ओलिगोयूरि Oligourea) मूत्र का कम मात्रा में उत्पादन ओलिगोयूरिया कहलाता है।
- हीमेच्यूरिया (Haema' ... में रुधिर कणिकाओं का उपस्थित होना।
- पॉलियूरिया (Polyuria) मूत्र के आयतन में वृद्धि हो जाती है।
- एल्कैप्टोन्यूरिया अमीनो अम्लों के अपूर्ण उपापचय के कारण मूत्र में बहुत अधिक मात्रा में हीमोजेन्टिसिक अम्ल का स्रावण होता है, जिससे ठहरे हुए मूत्र का रंग काला पड़ जाता है।
- उचित दाता से लिए गए वृक्क का प्रत्यारोपण (kidney transplant) किया जा सकता है। वृक्क के प्रत्यारोपण से पहले ऊतकों का मिलान किया जाता है। वृक्क प्रत्यारोपण के पश्चात् रोगी को आजीवन प्रतिरक्षी तन्त्र संदमक औषधियाँ लेनी होती हैं।
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