परिसंचरण तन्त्र सम्बन्धी रोग | DISORDERS RELATED TO CIRCULATORY SYSTEM

 परिसंचरण तन्त्र सम्बन्धी रोग

परिसंचरण तन्त्र सम्बन्धी रोग | DISORDERS RELATED TO CIRCULATORY SYSTEM


 

 परिसंचरण तन्त्र सम्बन्धी रोग

(1) अतितनाव (Hypertension) - 

  • किसी व्यक्ति के सामान्य रक्तचाप में वृद्धि को अभिव्यक्ति को अतितनाव कहते हैं। विश्वामावस्था में एक स्वस्थ मनुष्य में प्रकुंचनी दाब 100 से 140 mm Hg तथा अनुशिथिलनी दाब 70 से 90 mm Hg होता है। व्यायाम, चिन्ता, अशान्ति एवं अपरिचित अथवा प्रतिकूल वातावरण में यह रक्तचाप अस्थायी रूप से बढ़ जाता है। परन्तु जब किसी विशिष्ट रोग अथवा असामान्यता के कारण रक्तचाप में दीर्घाकृत वृद्धि (Sustained rise in blood pressure) हो जाती है तब इसे अतितनाव कहते हैं। 
  • अतितनाव मानव के हृदय, मस्तिष्क, रेटिना तथा गुर्दों को प्रभावित करता है। रक्तचाप के लगातार बढ़े रहने के कारण रोगों में सिरदर्द (Headache) या बहुमूत्रता (Polyurea) जैसे लक्षण उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त रोगी में बाएँ निलय की अतिवृद्धि (Left ventricle hypertrophy) हो जाती है। उच्च रक्तचाप के कारण धमनी तथा केशिकाओं के फटने से आन्तरिक रक्तस्त्राव का खतरा बना रहता है। रेटिना, मस्तिष्क तथा गुदाँ में अतितनाव के कारण होने वाले रक्तस्राव (Haemorrhage) के कारण इन अंगों में असफलता (Failure) उत्पन्न हो सकती है।

 

(2) एन्जाइना पेक्टोरिस (Angina pectoris) - 

  • आयास (Exertion) के समय हृदयी पेशियों में स्थानिकारक्तता (Myocardial ischaemia) के कारण छाती में होने वाली श्वासावरोधी (Choking) या संकोचक (Constricting) दर्द को एन्जाइना पेक्टोरिस (Angina pectoris) कहते हैं। विश्राम करने पर इस प्रकार के दर्द में आराम मिल जाता है। यह दर्द बहुधा छाती के अन्दर महसूस होता है और बार्थी बाँह से गर्दन, जबड़े तथा दाँतों में होता हुआ पीठ तक जाता है। यह दर्द भींचनभरा (Squeezing), या जलनयुक्त (Burning) या पीडायुक्त (Aching) होता है तथा भावुकता (Emotions) में तीव्र हो जाता है तथा प्राय: अधिक खाना खाने के उपरान्त या ठण्डी हवा में चलने पर और तीव्र हो जाता है। रक्त में कोलेस्टेरॉल की मात्रा में वृद्धि (Hypercholesterolaemia), धूम्रपान (Smoking), अतितनाव (Hypertension), मधुमेह (Diabetes mellitus) तथा स्थानबद्ध जीवनचयां (Sedentary lifestyle) मानव में एन्जाइना के खतरे को बढ़ाती है।

 

(3) कोरोनरी धमनी रोग (Coronary Artery Disease, CAD) - 

  • कोरोनरी धमनी रोग कोरोनरी धमनी में एथीरोस्क्लेरोटिक प्लाक (Atherosclerotic plaques) के संचित हो जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न प्रभावों के कारण होती है। एथोरोस्क्लेरोटिक प्लाक का अभिप्राय धमनियों को ट्यूनिका इन्टिमा के तन्तुमय स्थूलीकरण से (Fibrous thickening) तथा आन्तरिक लचीली लेमिना (Internal elastic lamina) के क्षतिग्रस्त होने के कारण अरेखित पेशियों का इन्टिमा में प्रवेश कर जाने से है। इसके परिणामस्वरूप धमनी की गुहा सँकरी हो जाती है तथा रक्त प्रवाह कम हो जाता है। कुछ प्लाकों (Plaques) में प्लाक के तन्तुमय आवरण तथा शेष धमनी भित्ति के मध्य कोलेस्टेरॉल प्रचुर पदार्थ (Cholesterol rich material) एकत्रित हो जाता है जिसके कारण धमनी और सँकरी हो जाती है। कभी-कभी प्लाक में रक्तस्राव हो जाने अथवा प्लाक में दरार (Crack) उत्पन्न हो जाने अथवा टूट जाने से रोग की जटिलता अत्यधिक बढ़ जाती है। प्लाक के साथ थ्रॉम्बोजेनिक पदार्थ (Thrombogenic material) के अनावरित हो जाने से रक्त थक्के के रूप में अवक्षेपित होकर (Thrombosis) वाहिका को पूर्णरूप से बन्द कर सकता है। इस प्रकार हद धमनी (Coronary artery) में ऐसे प्लाक हृदय को होने वाली रक्त आपूर्ति को बाधित करके हृदयाघात (Heart attack) या हृदय विफलता (Heart failure) जैसी जटिलताएँ उत्पन्न करते हैं। 

(4) आर्टीरियोस्क्लेरोसिस (Arteriosclerosis)- 

  • इस व्याधि में धमनियों में कोलेस्टेरॉल के साथ कैल्शियम लवणों के अवक्षेपण से प्लाक बनता है जिसके कारण धमनियों का लचीलापन समाप्त हो जाता है और वे कठोर हो जाती हैं। इस प्रकार धमनियों के निक्षेपण एवं स्थूलीकरण के कारण कठोर हो जाने को आर्टीरियोस्क्लेरोसिस कहते हैं। कभी-कभी प्रभावित धमनियों को दोवार फट जाने से होने वाले रक्तस्राव के कारण धमनियों में रक्त के थक्का बन जाने से रक्त प्रवाह बाधित हो जाता है जिसके घातक परिणाम होते हैं।

 

(5) हृदय विफलता (Heart Failure)- 

  • हृदय विफलता वह अवस्था है जिसमें हृदय पर्याप्त हृदय निर्गत (Cardiac output) का सम्पोषण नहीं कर पाता। हृदय विफलता की सर्वाधिक मन्द अवस्था में हृदय निर्गत विश्राम के समय तो पर्याप्त होता श्रम (Exercise) अथवा अन्य प्रकार है परन्तु के दबावों (Stress) के दौरान अपर्याप्त हो जाता है। । हृदय विफलता बहुधा कोरोनरी धमनी रोग (CAD) के कारण होती है। हृदय विफलता अचानक उत्पन्न हो सकती है; जैसे मायोकार्डियल इनफार्कसन (Myocardial infarction, MI) में अथवा धीरे-धीरे विकसित हो सकती है जैसे क्रमिक कपाटीय रोग (Progressive valvular disease) में। 
  • हृदय विफलता में होने वाले कुछ प्रतिकारी परिवर्तन (Compensatory changes) हैं-कक्ष अपवृद्धि (Chamber enlargement), मायोकार्डियल अतिवृद्धि (Myocardial hypertrophy) तथा हृदय दर में वृद्धि (Increased heart beat) ।


परिसंचरण तन्त्र 

  • अधिकतर अतिविकसित बहुकोशिकीय प्राणियों में पोषक तत्वों, श्वसन गैसों तथा अपशिष्टों आदि के परिवहन हेतु परिसंचरण तन्त्र की आवश्यकता होती है।  यह परिसंचरण तन्त्र खुले एवं बन्द दो प्रकार के होते हैं। कॉकरोच में खुला परिसंचरण तन्त्र पाया जाता है जिसमें हृदय द्वारा रक्त को रक्त वाहिकाओं में पम्प किया जाता है जो ऊतक द्रव्य एवं रक्त से भरे कोटरों में खुलती है। इस प्रकार रक्त कोशिकाओं के प्रत्यक्ष सम्पर्क में स्वतन्त्र रूप से परिसंचरित होता है। ऊतक द्रव एवं रक्त से भरे कोटर वास्तव में देहगुहा होती है जिसे रक्तगुहा तथा इसमें भरे तरल को रक्तलसिका कहते हैं। 
  • मनुष्य में बन्द प्रकार का परिसंचरण तन्त्र पाया जाता है अर्थात् हृदय द्वारा पम्प किया गया रक्त धमनियों द्वारा विभिन्न अंगों एवं ऊतकों तक ले जाया जाता है जहाँ से शिराएँ उसे वापस हृदय में पहुँचाती हैं। 
  • मनुष्य के हृदय में चार कक्ष होते हैं-दो अलिन्द एवं दो निलय। फेफड़ों से प्राप्त शुद्ध (ऑक्सीकृत) रक्त हृदय के दाएँ अलिन्द में आता है जहाँ से यह दाएँ निलय में चला जाता है। बायाँ निलय शुद्ध रक्त को शरीर के विभिन्न अंगों में पम्प कर देता है। शरीर के विभिन्न अंगों से अशुद्ध रक्त शिराओं द्वारा दाएँ अलिन्द में छोड़ा जाता है जहाँ से यह दाएँ निलय में चला जाता है जो उसे ऑक्सीजनीकरण हेतु फेफड़ों में पम्प कर देता है। इसे दोहरा परिसंचरण कहते हैं।
  • मनुष्य सहित सभी कशेरुकियों का हृदय पेशीजनक होता है अर्थात् हृदय स्पन्दन की उत्पत्ति दाएँ अलिन्द में स्थित एक पेशीय रचना से होती है जिसे साइनो एट्रियल नोड या पेस मेकर कहते हैं। हृदय लयबद्ध रूप से प्रकुंचित एवं अनुशिथिलित होता है।
  • मनुष्य का रक्त हीमोग्लोबिन नामक श्वसन रंगा की उपस्थिति के कारण लाल रंग का होता है। यह प्लाज्मा तथा रक्त कणिकाओं का बना होता है। रक्त कणिकाएँ तीन प्रकार की होती है-लाल रक्त कणिकाएँ, श्वेत रक्त कणिकाएँ तथा प्लेटलेट्स। रक्त में उपस्थित प्रतिजनों एवं प्रतिरक्षियों के आधार पर मनुष्य के रक्त को चार समूहों में वर्गीकृत किया गया है-A, B, AB तथा । 
  • रक्त संवहनी तन्त्र के अतिरिक्त वाहिकाओं का एक अन्य तन्त्र भी पाया जाता है जो ऊतक द्रव्य को परिसंचरित हो रहे रक्त तक पहुँचाता है। इस तन्त्र को लसिका तन्त्र कहते हैं। यह लसिका तन्त्र शरीर के प्रतिरक्षा तन्त्र से भी सम्बन्धित होता है। मानव शरीर में लसिका गाँठें, प्लीहा, थाइमस ग्रन्थि, गलांकुर आदि प्रमुख लसिका अंग पाये जाते हैं। 
  • हृदय स्पन्दन की प्रेरणाओं के प्रसार से उत्पन्न विद्युत् विभव के अभिलेखन को विद्युत् हृद लेखन तथा अभिलेखन से प्राप्त अनुरेखण को विद्युत् हृद लेख कहते हैं। विद्युत् हृद लेख एक ग्राफीय आलेख है जो हृदयी पेशियों के उद्दीपन के कारण उत्पन्न होता है। कृत्रिम गति प्रेरक एक ऐसी युक्ति है जिसके द्वारा हृदय की लय को नियमित किया जा सकता है। 
  • मानव में परिसंचरण तन्त्र से सम्बन्धित अनेक प्रकार के व्यतिक्रम होते हैं। इनमें से अतितनाव एवं एन्जाइना आज के विकसित समाज में सर्वाधिक सामान्य व्याधियाँ हैं। अतितनाव उच्च रक्तचाप की अभिव्यक्ति है जबकि हृदयी पेशियों में स्थानिकारक्तता एन्जाइना का प्रमुख कारण है। इसके अतिरिक्त एथिरोमा एवं आर्टीरियोस्क्लेरोसिस के कारण धमनियों में रक्त प्रवाह बाधित होता है जो हृदयाघात का सर्वाधिक सामान्य कारण है। 

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