हर्ष के पश्चात धार्मिक स्थिति |Religious situation after Harshvardhan
हर्ष के पश्चात धार्मिक स्थिति
हर्ष के पश्चात धार्मिक स्थिति
- इस युग में ब्राह्मण और बौद्ध धर्म का नई दिशा में विस्तार हुआ। नवीन सिद्धांतों एवं धार्मिक क्रियाओं का समावेश हुआ। इन धर्मों के नए रूप समाज के सामने आए। जैन धर्म भी इस प्रगति से अप्रभावित न रह सका, यद्यपि इसमें परिवर्तन की गति धीमी रही।
- धार्मिक विचारों के विकास का एक प्रबल कारण तांत्रिक पूजा और उपासना का वेग है। जिसने बौद्ध धर्म के मूल रूप को ही बदल दिया। इन तांत्रिक विचारों ने ब्राह्मण धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में में भी प्रवेश किया और उनके आधारभूत विचारों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया। वैष्णव और शैव धर्म की तरह बौद्ध और जैन धर्मों में ईश्वरवादी प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं। बुद्ध और जिन् देवता माने जाने लगे और उनकी मूर्तियों की पूजा मंदिर में भक्तिमय गीतों से होने लगी। बुद्ध और जिन् को विष्णु का अवतार माना जाने लगा।
1 वैष्णव सम्प्रदाय
- गुप्त काल में वैष्णव धर्म पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था और विष्णु के अवतारों का सिद्धांत स्थापित हो चुका था। अभिलेखों तथा स्मारकों से विदित होता है कि गुप्तोत्तर व हर्षोत्तर काल में वैष्णव धर्म भारतवर्ष में प्रचलित था और अनेक राजवंश इसके अनुयायी थे, जैसे कश्मीर के दुर्लभवर्धन, ललितादित्य, बंगाल के सेन नरेश, प्रतिहार नरेश देवशक्ति और अनेक गुहिल, चंदेल व चौहान नरेश। किन्तु वैष्णव धर्म का गढ़ दक्षिण मे तमिल प्रदेश में था। यहां वैष्णव मत के आदि प्रवर्तक अलवार संत थे। अलवार भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषता है कि यह आंदोलन मूलतः भावनात्मक है, दार्शनिक नहीं। उनकी दृष्टि में भक्ति, प्रेम तथा शरणागति से मोक्ष की प्राप्ति संभव है। वे एकेश्वरवादी थे और विष्णु की ही पूजा करते थे। विष्णु परमदेव विश्वात्मा, सर्वज्ञानमय, अनंत, अमेय है, असीम ब्रह्म होते हुए भी प्राणियों के अनुग्रह के लिए वह पृथ्वी पर अवतार लेता है और मूर्ति के रूप में सीमित रहता है। अवतारों में कृष्ण का अवतार लोकप्रिय है। विष्णु के अर्चनावतारों की पूजा से बैकुंठ में ईश्वर की सेवा का अवसर मिलता है। प्रपत्ति द्वारा ईश्वर से ऐक्य ऊंच और नीच सभी को प्राप्त हो सकता है। इसमें ज्ञान, सामाजिक स्तर तथा व्रत के बंधन नहीं हैं। अलवार में कुछ शूद्र थे, जैसे तिरूमंगाई वेल्लाल जाति का था।
2 शैव सम्प्रदाय
- हिन्दू धर्म के अंतर्गत जितने सम्प्रदाय थे उनमें शैव सम्प्रदाय सबसे अधिक प्रबल था। जनसाधारण के अतिरिक्त अनेक राजवंशों ने शैव धर्म अपनाया और मंदिर बनवाये। शैव धर्म अनेक मतों में बंटा हुआ था। इनमें सबसे अधिक प्राचीन पाशुपत मत था। इसके प्रवर्तक लकुलीश थे। उसके बाद उनके शिष्यों की परम्परा बनी रही।
- शैव का अतिमार्गी रूप भी था जिसे कापालिक और कालुमख के नाम से जाना जाता है। रामानुज के श्रीभाष्य मे कापालिकों का वर्णन इस प्रकार है: वे खोपड़ी में भोजन करते थे, शरीर में राख मलते थे, हाथ में गदा रखते थे। सुरापात्र में विद्यमान देवता की पूजा करते थे। मालती माधव नाटक में कापालिकों को जटाधारण किए हुए दिखाया गया है। वे अपने साथ खट्वांग (एक शस्त्र) रखते थे। चामुंडा को मनुष्य की बलि देते थे। कापालिकों और कालमुखों के धार्मिक कृत्यों में अनेक तांत्रिक क्रियाएं सम्मिलित थीं। वे नरमुंडमाला पहनते थे और श्मशान के समीप निवास करते थे। ये कालमुख भैरव की देवता के रूप में आराधना करते थे और भैरव को नरबलि तथा मदिरा चढ़ाई जाती थी। वे भक्ष्याभक्ष्य सभी ग्रहण करते थे। उनका विश्वास था कि मदिरापान आदि घृणित पदार्थों के भक्षण से चमत्कारिक शक्ति पैदा होती है और भक्ष्याभक्ष्य खान-पान तथा वीभत्स तांत्रिक क्रियाओं से सिद्धि तथा मोक्ष प्राप्ति होती है। किन्तु वास्तव में ये विचार मुनष्य की बुद्धि और आत्मा की पथभ्रष्टता, मतिभ्रम और नैतिक हास के द्योतक हैं।
3 शाक्त सम्प्रदाय
- शक्ति-पूजा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही थी किन्तु पूर्व मध्यकाल में यह बहुत व्यापक हो गई। शक्ति पूजा के मूल में यह दार्शनिक विचार है कि ईश्वर अपनी शक्ति की सहायता से ही सृष्टि धारण एवं संहार करता है। परिणाम यह हुआ कि ईश्वरवादी संप्रदायों में, शक्ति, परमदेवता की अर्धांगिनी के रूप में संसार में प्रचलित हो गई। छठी शताब्दी से शक्ति-उपासना स्पष्ट एवं निश्चित रूप में दिखाई देती है और नवीं शताब्दी से तो इस मत का प्रबल प्रभाव दिखाई देता है। मध्यप्रदेश और उड़ीसा में चौंसठ योगिनियों के मंदिर हैं, जिनमें मातृदेवी चौंसठ रूपों में दिखाई गई हैं। इन चौंसठ योगिनियों के मंदिरों में तीन भेड़ाघाट (जबलपुर के पास), खजुराहो तथा उड़ीसा में सम्भलपुर में है। चौथा मंदिर कालाहंडी में और पांचवां ललितपुर (उत्तरप्रदेश) में है। जबलपुर और खजुराहों के मंदिर 9 वीं शताब्दी के हैं। बंगाल में शबर जाति के लोग शबरोत्सव पर पत्तों से आच्छादित पर्णेश्वरी की पूजा करते हैं। तांत्रिक पूजा की वृद्धि के साथ शक्ति मत का और विस्तार हुआ और अधिकंश तांत्रिक ग्रन्थों की रचना सीमावर्ती आदिवासी क्षेत्र में हुई।
4 गणेश पूजा
- यद्यपि अग्नि और बराह पुराण में गणेश को उद्देश्य-पूर्ति में विघ्न डालने वाला कहा गया है, किन्तु जनसाधारण में गणेश को सिद्धि देने वाला तथा उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक देवता माना गया है। दसवीं शताब्दी में वह हिन्दू परिवार का लोकप्रिय देवता हो गया। विशेषकर पश्चिमी भारत में गणपति पूजा बहुत प्रचलित हो गई और गणपत्य संप्रदाय का आविर्भाव हुआ जो कि गणपति को सब देवताओं में श्रेष्ठ मानने लगा। गणेश के उपलक्ष में गणेश चतुर्दशी के व्रत का माहात्म्य अग्नि पुराण में दिया गया है जिसे 9 वीं 10वीं शताब्दी की रचना माना जाता है। गणपति-पूजा का जब अधिक प्रचलन हुआ तो अनेक रूपों मे गणेश की मूर्तियां बनाई जाने लगी।
5 सूर्य पूजा
- भारत में सूर्य पूजा बहुत प्राचीन काल से प्रचलित रही है किन्तु बृहत् संहिता, भविष्य पुराण, अभिलेखों, अनेक सूर्य प्रतिमाओं और मंदिरों से पता चलता है कि सूर्य इस युग के अधिक लोकप्रसिद्ध था। आदित्य सेन और जीवितगुप्त के शाहपुर और देववर्नाक अभिलेख में सूर्य-पूजा का उल्लेख है।
- कुछ प्रतिहार नरेश परम आदित्यभक्त थे। पालों के समय के बंगाल में सूर्य की अनेक मूर्तियां मिली हैं जिससे यह अनुमान स्वाभाविक है कि सूर्यपूजा लोकप्रसिद्ध थी। बंगाल के सेन शासक विश्वरूप सेन सूर्योपासक होने के कारण 'परमसोर' पदवी से विभूषित किए गए। ललितादित्य, जैसा कि उसके नाम से स्पष्ट है, सूर्योपासक था। उसने कश्मीर में सूर्य का प्रसिद्ध मार्तण्ड मंदिर बनवाया। इसके वर्तमान ध्वंसावशेष उसकी प्राचीन भव्यता का आभास देते हैं।
- सूर्य पूजा का प्रसिद्ध केंद्र मुल्तान में था। मुल्तान के सूर्य मंदिर का उल्लेख ह्वेनसांग, आवूजइद, अलमसूदी तथा अलबरूनी ने किया है।
6 तांत्रिक सम्प्रदाय
- तांत्रिक धर्म वह धर्म है जिसमें चर्या (ब्रह्म धार्मिक कृत्य), क्रिया (मंदिर निर्माण तथा मूर्ति पूजा), योग तथा ज्ञान के द्वारा मुक्ति और मुक्ति से इस लोक की सिद्धि, ऐश्वर्य तथा इष्टदेव के साथ अद्वैत भावना प्राप्त की जा सकती है। तांत्रिक रचनाओं का प्रारंभ छठी शताब्दी माना गया है, यद्यपि बौद्ध तंत्र और भी पहले के हैं।
- पूर्व मध्य युग में तांत्रिक धर्म की व्यापक लोकप्रियता का प्रमाण वैष्णव, शैव, बौद्ध आदि अनेक प्राचीन धर्मों में दृष्टिगोचर होता है। जहां तक इस प्रवृत्ति के कारणों का प्रश्न है, यह विचारणीय तथ्य है कि जिस सामाजिक-आर्थिक संरचना का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, उसका स्पष्ट प्रभाव तांत्रिक प्रथाओं की बढ़ती लोकप्रियता पर भी दृष्टिगोचर होता है। भूमिगत बिचौलियों के उदय एवं कृषि के प्रसार के परिप्रेक्ष्य में उपरोक्त विकास को देखने का प्रयास किया गया है। तांत्रिक धर्म के तत्वों में केवल पंच मकार-मद्य, माँस, मत्स्य, मैथुन एवं मुद्रा ही नहीं अपितु मातृदेवी पंथ की महत्ता भी महत्वपूर्ण है।
- भूमिदान अनुदानों के माध्यम से इन पिछड़े जनजातीय क्षेत्रों में को सभ्यता के कगार से हटाकर मुख्या धारा में मिलाने के प्रयास के फलस्वरूप तांत्रिक प्रथाओं का समागम अन्य धर्मों में भी हो गया। मिथुन एवं मातृदेवी प्रथाओं का, प्रजननशक्ति से सम्बन्ध होने के कारण, कृषिगत समुदायों में विशेष स्थान था और इसीलिए तांत्रिक धर्म में भी ये विशेश रूप से हमारे सामने आते हैं। जब बौद्ध संघ भी अपने द्वार दासों एवं ऋणियों के लिए बंद कर रहा था, तब तांत्रिक चक्र ने वर्ण, लिंग आदि का विचार किए बिना अपने द्वार सभी प्रकार के लोगों के लिए खोल दिए।
7 बौद्ध धर्म
- अधिकांश विद्वानों का मत है कि सातवीं शताब्दी से बौद्ध धर्म का पतन स्पष्ट रूप से प्रारम्भ हो गया था। पाल राजाओं के संरक्षण में बंगाल और बिहार में बौद्ध धर्म सम्पन्न अवस्था में था। बोधगया, नालंदा, ओदंतपुरी, विक्रमशील पुरानी परंपरा को बनाए हुए थे किन्तु यहां भी वज्रयान और कालचक्रयान में बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों पर दूषित विचारों का बोलबाला हो गया था और वे बौद्ध धर्म को पतन की ओर अग्रसर कर रहे थे। 9 वीं से 12 वीं सदी तक बंगाल और बिहार इस दूषित पतनशील बौद्ध धर्म के प्रभाव क्षेत्र बने रहे किंतु बंगाल में सेन वंशीय राजाओं के आगमन से ब्राह्मण धर्म ने बौद्ध धर्म को निष्कासित कर दिया और बिहार में बख्तियारूद्दीन खिलजी के विध्वंसात्मक आक्रमण ने बौद्ध धर्म का उन्मूलन कर दिया।
8 जैन धर्म
- इस समय तक जैन धर्म का पूर्ण रूप से विकास हो चुका था और इसके अनेक संप्रदाय थे जिनमे से दिगंबर और श्वेतांबर महत्वपूर्ण थे। राजस्थान, गुजरात तथा मालवा के अतिरिक्त उत्तर भारत में जैन धर्म को राजाओं का आश्रय नहीं मिला। किन्तु वैश्य वर्ग में यह लोकप्रिय था। इन राजपूत राजाओं से जैन धर्म को आश्रय तथा सम्मान मिला। नागभट्ट द्वितीय के जैन आचार्य अक्षदेव से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध थे। राजस्थान में अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें ओसिया में महावीर का मंदिर प्रसिद्ध है। मांडोर के प्रतिहार नरेश ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे।
- जैन धर्म को लुप्त होने से बचाने तथा एक सजीव तथा उत्प्रेरक धर्म बनाने का श्रेय राजस्थान के अनेक जैनाचार्यों को है। इनमें से हरिभद्र सूरि का नाम उल्लेखनीय है। मठों और चैत्यों के जैनाचार्य, मंदिरों के लिए एकत्रित धर्म का अपने निजी व्यय के लिए उपयोग कर रहे थे और सरल जीवन को त्यागकर विलासी जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनके प्रवचन सरल और सुग्राह्य नहीं थे। वे धनी लोगों को प्रसन्न करने में लगे थे। हरिभद्र सूरि ने इन बुराइयों के विरूद्ध आंदोलन प्रारम्भ किया और जैन आचार्यों और श्रावकों में धार्मिक सुधार सम्बन्धी विचारों का प्रचार किया। हरिभद्र ने विद्वानों के लिए ही नहीं वरन् जनसाधारण के लिए भी ग्रंथों की रचना की। इनमें अनेकान्त विजय तथा धर्मबिन्दु उल्लेखनीय हैं।
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