बघेलखण्ड की वास्तुकला |Architect of Baghelkhand
बघेलखण्ड की वास्तुकला
बघेलखण्ड की वास्तुकला
बघेलखण्ड की वास्तुकला स्तरीय थी। यहाँ की वास्तु के क्रमिक विकास का विवरण अग्रलिखित है-
(1) भवन, मंदिर और छतरियाँ
- तेरहवीं शताब्दी में बघेल राज्य की नींव गहोरा में पड़ चुकी थी, परन्तु इस राज्य की कला-परम्परा का शुभारम्भ बघेल राजा बुल्लारदेव के काल से हुआ। यह गहोरा का प्रथम स्वतंत्र राजा था। इसकी रानी राजमल्लदेवी ने राजधानी गहोरा में राजभवन के पास एक बावली और एक तालाब का निर्माण करवाया था, जिसके तट पर बघेलवंश की कुल देवी शीतला का मंदिर स्थापित है। बुल्लार के उत्तराधिकारी वीरमदेव पर कालपी के मलिकजादा सुलतान नसीरुद्दीन महमूद (1390-1411ई.) ने आक्रमण करके गहोरा की बड़ी-बड़ी इमारतों को ध्वस्त कर दिया था, जिसका उल्लेख तारीख-ए-मुहम्मदी में आया है। बघेल राज्य की वास्तु कला के विकास के क्रम में भैदचन्द्र (1470-95 ई.) वीरसिंह (1500-35 ई.) और वीरभानु (1535-55 ई.) ने गहोरा में उच्च कलात्मक भवनों का निर्माण करवाया था, जिनकी प्रशंसा बड़े-बड़े वास्तुकारों ने की है। किन्तु खेद की बात है कि 'वीरभानूदय काव्यम्' में उल्लिखित इन कलात्मक इमारतों के अवशेष वर्तमान गहोरा में नष्ट-प्राय हो चुके हैं।
- कुछ वर्षों के अन्तराल के बाद महाराजा भावसिंह (1675-1694 ई.) ने रीवा-किला के प्रांगण में मृत्युन्जय नाथ का भव्य मंदिर बनवाया और पुरी से जगन्नाथ जी की दो मूर्तियाँ लाकर मुकुन्दपुर और कोटर में मंदिर बनवाकर स्थापित की। ये तीनों मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। भावसिंह की राणावत रानी ने रीवा में एक तालाब बनवाया था, जो 'रानी-तालाब' के नाम से जाना जाता है, जिसकी मेढ़ पर एक देवी की स्थापना की गयी थी। तालाब के मध्य में एक मंदिर है, जिसमें एक शिलालेख भी है। इस तालाब के पास कुछ बघेल राजाओं और राजपूत सरदारों की छतरियाँ भी बनायी गयी थीं, जो आज भी उनकी प्रतीक बनी खड़ी हैं। कुछ छतरियों में सम्बन्धित व्यक्ति का नाम भी खुदा हुआ है। 1726 ई. में बुंदेली लड़ाई के दौरान जो करचुली सरदार वीरगति को प्राप्त हुए थे, उनकी छतरियों के अवशेष रीवा में मौजूद हैं। इनमें तीन छतरियाँ, जो घोघर मोहल्ले में ठा.रणमत सिंह के वंशजों के निवास 'बाबा साहब हाउस' के ठीक पीछे स्थित हैं; अभी भी अपनी पूर्ण अवस्था में खड़ी है। इसी क्रम में सन् 1796 ई. की नैकहाई की लड़ाई में मारे गये सरदारों की छतरियाँ चोरहटा के पास बाबूपुर में निर्मित करवायी गयीं थीं। इनमें नायक की छतरी का शिल्पांकन आकर्षक एवं उत्कृष्ट है।
(2) बघेलखण्ड की प्रमुख दुर्ग एवं गढ़ियाँ
मध्यकाल में बघेलखण्ड के अन्तर्गत दुर्गों और गढ़ियों का निर्माण विभिन्न राजाओं एवं इलाकेदारों द्वारा करवाया गया था; जिनकी संख्या 60 से भी अधिक है। यहाँ पर हम कुछ विशिष्ट दुर्गों एवं गढ़ियों का संक्षेप में विवरण प्रस्तुत करेंगे।
(i) केवटी दुर्ग
- यह दुर्ग रीवा से लगभग 33 किलोमीटर उत्तर में महाना नदी के तट पर स्थित है। इस दुर्ग का निर्माण 14वीं-15वीं शताब्दी में करवाया गया था। इस दुर्ग की आधारशिला चन्देल शासक हम्मीरदेव (1288-1310ई.) ने रखकर, इसका कुछ हिस्सा निर्मित करवाया था, जिसे बाद में बघेलों ने पूरा करवाया। बघेल राजा सालिवाहन (1495-1500 ई.) के दूसरे पुत्र नागमल देव को केवटी इलाका भाई-बाँट में मिला था, जिसने केवटी को अपना मुख्यालय बनाया। क्योंकि सुरक्षा एवं सामरिक दृष्टि से केवटी दुर्ग अत्यन्त महत्वपूर्ण था। यह दुर्ग उत्तर, दक्षिण और पूर्व में सुदृढ़ प्राचीरों और दक्षिण-पश्चिम में 336 फीट ऊँची खड़ी प्राकृतिक चट्टानों से सुरक्षित है। यहीं से जल प्रपात निर्गत होता है। इसकी प्राचीर में कुल दस बुर्ज हैं। सभी बुर्ज द्विमंजिले और प्राचीर से 8 फीट ऊँचे हैं; जिनमें तोप छिद्र और युद्ध स्थानक बने हुए हैं। प्राचीर के चारों ओर गहरी खायी है, जो घने जंगलों से आच्छादित हैं।
- केवटी दुर्ग की जल आपूर्ति का मुख्य स्रोत महाना नदी थी। इसके अतिरिक्त चट्टानों को काटकर झिरियानुमा जल कुण्ड भी निर्मित किये गये थे। दुर्ग से गन्दा एवं वर्षा के पानी की निकासी के लिए नालियों एवं नरदों की भी व्यवस्था थी।
(ii) मैहर दुर्ग
- इस दुर्ग की बुनियाद बघेल राजा भैदचन्द्र (1470-95 ई.) ने रक्खी थी। भैदचन्द्र के पौत्र वीरसिंहदेव (1500-35 ई.) के छोटे पुत्र जमुनीभान को मैहर और सोहागपुर इलाके भाई-बॉट में प्राप्त हुए थे। जमुनीभान के बड़े पुत्र चन्द्रभान को मैहर और छोटे पुत्र रूद्र प्रताप को सोहागपुर इलाका मिला। चन्द्रभान ने ही मैहर दुर्ग को विस्तीर्ण किया था। इस दुर्ग के दो हिस्से हैं। जो हिस्सा खण्डहर रूप में दृष्टिगत होता है, वह बघेलों द्वारा निर्मित करवाया गया था और जो कलात्मक शैली में दृष्टिगोचर होता है, उसका निर्माण बुंदेलों द्वारा करवाया गया था। मैहर दुर्ग पूर्णतः कृत्रिम परिखा से सुरक्षित एवं द्विस्तरीय परकोटे (प्राचीर) से आच्छादित है। इसकी प्राचीर में कुल 29 बुर्ज हैं और 20 बुर्जियाँ हैं। दुर्ग के चारों दिशाओं में चार द्वार निर्मित हैं।
- बघेल कालीन खण्डहरों के दक्षिण त्रिमंजिली इमारत का निर्माण बुंदेलों द्वारा 18वीं शताब्दी में करवाया गया था। इसी हिस्से में मोती महल, हाथी महल आदि भवन स्थित हैं। इसमें बर्जु निवेश नहीं है। दुर्ग में जल आपूर्ति के लिए एक कूप और एक बाउली है। इनके अतिरिक्त दुर्ग के पश्चिम लिलजी नदी है, जो दुर्ग की पश्चिमी परिखा से जुड़ी थी; जिसके द्वारा भी जल आपूर्ति की जाती थी।
(iii) सोहागपुर गढ़ी
- इस गढ़ी की नींव वीरसिंहदेव ने रखी थी। जिसका विस्तार सोहागपुर इलाके के संस्थापक रूद्रप्रताप एवं इनके उत्तराधिकारियों ने करवाया था। इस गढ़ी के चारों तरफ परिखा निर्मित थी। गढ़ी के पश्चिमी ओर की परिखा 200 गज लम्बी और 15 फीट गहरी थी। परिखा से लगी हुई प्राचीर है; जिसकी ऊँचाई सामान्यतः 10 फीट है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर प्राचीर के मध्य में दो श्रृंखलाओं में तोप छिद्र हैं। गढ़ी में कुल तीन बुर्ज हैं। दो बुर्ज दक्षिणी और पश्चिमी कोने पर और तीसरा बुर्ज उत्तरी कोने पर स्थित है।
- गढ़ी का पूर्वी भाग द्विमंजिला इमारत है। इसमें सात द्वार हैं। पूर्वी द्वार को फतह दरवाजा कहते हैं; जिसे अपने मूल स्थान से हटाकर गढ़ी के उत्तरी कोने पर आरोपित किया गया है। इस गढ़ी के प्रमुख भवनों में मोती महल, छोटे का राउर और बड़े का राउर विशेष उल्लेखनीय हैं।
- गढ़ी की जल आपूर्ति के लिए तीन बाउलियाँ निर्मित हैं। सभी बाउलियाँ वर्गाकार हैं।
(iv) बाँधवगढ़ दुर्ग
- यह एक प्राचीन अभेद्य दुर्ग है। यह 2662 फीट ऊँची बान्धौ नामक पहाड़ी पर स्थित है; जिसके उत्तर एवं पूर्व में दलदल था और चारों तरफ नैसर्गिक खड़ी चट्टानें हैं, जो परकोटे तथा सुदृढ़ प्राचीर का कार्य करती हैं। सम्पूर्ण दुर्गीकरण का क्षेत्रफल लगभग 8 वर्ग किलोमीटर है। दुर्ग में केवल एक प्रवेश द्वार है; जो कर्ण द्वार कहलाता है। दुर्ग का पहुँच मार्ग ढालदार है। जब कोई शत्रु-सेना इस मार्ग से दुर्ग में पहुँचने का प्रयास करती थी, तो ऊपर से गोले-बेलनाकार बड़े-बड़े पत्थरों को लुढ़का दिया जाता था, जिससे शत्रु-सेना बुरी तरह घायल होकर वापस लौटने के लिए विवश हो जाती थी।
- बान्धव दुर्ग का निर्माण कब और किसने करवाया था। यह अभी तक अज्ञात है। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि ईसा की दूसरी शताब्दी में मघवंश ने बांधवगढ़ को अपनी राजधानी बनाया था। फिर आगे 9वीं से 12वीं शताब्दी तक यह कलचुरियों के अधिकार में रहा। इनके पश्चात् इस दुर्ग पर बघेल काबिज हुए। दुर्ग के भवनों की वास्तुशैली से पता चलता है कि विभिन्न शासकों ने दुर्ग-परिसर में अपनी रूचि के अनुसार कुछ नवीन भवनों का निर्माण करवाया था। जिनमें बघेल नरेशों द्वारा निर्मित करवायी गयी प्रमुख इमारतें मोती महल (राज निवास), कोषालय, छावनी, कबीर चौरा और मंदिर हैं। ये सभी इमारतें स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण थीं; लेकिन अब ये सभी क्षतिग्रस्त और खण्डहर अवस्था में मौजूद हैं।
- बान्धव दुर्ग में जल आपूर्ति के प्राकृतिक एवं कृत्रिम दोनों स्रोत उपलब्ध थे। दुर्ग परिसर में 12 तालाब निर्मित किये गये थे, जिनमें 5 तालाब विशिष्ट हैं। इनके अतिरिक्त दुर्ग के आसपास 12 तालाब और हैं। इन कृत्रिम तालाबों के अलावा चरण गंगा नदी, चक्रधरा नाला और झरने भी जल आपूर्ति के साधन थे।
(v) कालिन्जर दुर्ग
- यह एक प्राचीन दुर्ग है। इसका निर्माण कब और किसने करवाया था; इसके लिए ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यह बघेलखण्ड की सीमा से लगा हुआ रीवा से उत्तर-पश्चिम लगभग 60 मील की दूरी पर स्थित है। इस दुर्ग को बघेल राजा रामचन्द्र देव (1555-92 ई.) ने शेरशाह के उत्तराधिकारियों के पतन काल में बिजली खाँ से खरीद लिया था; लेकिन जुलाई 1569 ई. में इसे अकबर ने रामचन्द्र देव से छीन लिया।
- कालिंजर दुर्ग के वास्तु निर्माण में हिन्दू स्थापत्य शैली और मुगल शैली की छाप स्पष्ट झलकती है। वस्तुतः यह दुर्ग विभिन्न कालों में कलचुरियों, चन्देलों, भरों, बघेलों, बुंदेलों और मुगलों के आधिपत्य में रहा है। इसलिए इन सभी ने इस दुर्ग में कुछ न कुछ निर्माण कार्य करवाकर अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। इसलिए इस दुर्ग की वास्तु शैली मिश्रित है। प्रो. ए. एच. निज़ामी का कहना है कि वास्तु शैली के आधार पर इस दुर्ग के मोती महल, रंग महल और जकीरा महल को बघेलों द्वारा निर्मित करवाया गया होगा। क्योंकि इन भवनों में मिश्रित वास्तुशैली का प्रभाव दृष्टिगत होता है।
- इस दुर्ग की जल आपूर्ति झरनों, बाउली, तालाब, हौज और कूपों से की जाती थी। यह एक ऐसा दुर्ग है, जो किसी नदी के किनारे स्थित नहीं है। अर्थात् जल आपूर्ति मात्र कृत्रिम स्रोत पर ही आधारित थी।
(vi) रीवा किला
- यह किला बिछिया और बीहर नदियों के संगम पर स्थित है। इसकी नींव शेरशाह सूरी के छोटे पुत्र जलाल खाँ ने रखकर गढ़ी का निर्माण करवाया था। जिसे बघेल राजा विक्रमाजीत (1605-24 ई) ने विस्तीर्ण करके किला का रूप प्रदान किया। किले के पूर्व में बिछिया नदी प्रवाहित होकर दक्षिण में बीहर नदी से मिलकर पश्चिम की ओर बहती है। ये दोनों - नदियाँ परिखा का कार्य करती हैं। किले के उत्तर में कृत्रिम परिखा 'कृष्ण सागर' है और उत्तर-पूर्व में दलदल है। किले के पूर्वी, उत्तरी और पश्चिमी भाग में प्राचीर का निर्माण करवाया गया है; जिसकी ऊँचाई लगभग 30 फीट है और लम्बाई लगभग 3 किलोमीटर है। इसी के अन्दर उपरहटी (शहर पनाह) स्थित है। किले के उत्तर स्थित मछरिहा दरवाजे से प्रवेश करने पर शहर पनाह उपरहटी पड़ता है। तत्पश्चात् आगे बढ़ने पर घरिहा (घरियारी) दरवाजे से किले के अन्दर प्रवेश होता है। घरियारी दरवाजे का निर्माण राजा भावसिंह (1675-94 ई.) ने करवाया था। इसके साथ ही मोती महल और लम्बा घर का भी निर्माण भावसिंह ने करवाया था। ये दोनों इमारतें स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त किले में पुरोहितों, मंत्रियों, सैनिकों के आवास और शस्त्रशाला, गजशला, अस्तबल आदि का भी निवेश किया गया है। किले के परिक्षेत्र में कई मंदिर निर्मित हैं, जिनमें जगन्नाथ और मृत्युन्जय नाथ के मंदिर स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं; जिन्हें क्रमशः विक्रमाजीत और भावसिंह ने बनवाया था। मृत्युन्जय नाथ का मंदिर गुम्बदाकार एवं कलात्मक है।
- किले में जल आपूर्ति बिछिया और बीहर नदियों से साइफन विधि के द्वारा की जाती थी। यद्यपि मोतीमहल (राज प्रासाद) के सहन में एक कूप भी है, जिसकी वृत्ताकार चौड़ाई 8 फीट है। इससे रनिवास एवं आन्तरिक कक्षों में जल आपूर्ति की जाती थी। किले में जल निर्गमन की भी व्यवस्था थी। इसके लिए लगभग 200 गज भूमिगत लम्बी नाली का निर्माण करवाया गया था, जो पश्चिम से पूर्व की ओर जाकर पुतरिहा दरवाजे के पास कृष्ण सागर परिखा में मिलती है।
- इस प्रकार रीवा किला तीन अलंकृत द्वारों, सुदृढ़ प्राचीर, सुरक्षात्मक बुर्जों एवं आधुनिक जल व्यवस्था से परिपूरित था।
(vii) सोहावल दुर्ग
- सोहावल दुर्ग सतना से 10 मील पश्चिम सतना नदी के बायीं तट पर स्थित है। इस दुर्ग का निर्माण 10वीं शताब्दी में किया गया था। 17वीं शताब्दी में रीवा राजा अमर सिंह (1624-40 ई.) का ज्येष्ठ पुत्र फतेहसिंह (1630-93 ई.) ने गोसाँईंयों (सन्यासियों) से सोहावल क्षेत्र छीनकर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया और सोहावल दुर्ग को अपना मुख्यालय बनाया।
- सोहावल दुर्ग के दक्षिणी और पश्चिमी भाग का निर्माण गोसाँईयों द्वारा और पूर्वी भाग फतेहसिंह एवं उनके उत्तराधिकारियों द्वारा करवाया गया था। फतेहसिंह द्वारा निर्मित भाग द्विमंजिला है, जो व्यवस्थित द्वारों एवं सुरक्षात्मक बुर्जों से परिपूर्ण है। इस भाग का मुख्य द्वार 'हाथी द्वार' कहलाता है। इस भाग में भैरव बाबा ड्योढ़ी, चिकसारी (रनिवास), महारानी की रहाइस, राजमाता-निवास, बड़ी बारादरी, कोठी मर्दानी रहाइस, कुलदेवी की रहाइस, तुलसी चौरा, बादल महल, कठ बंगला, नौघड़ा, आंगन चौघड़ा, जेउनहरा, मालखाना आदि आवासीय भवन निर्मित हैं। यह भाग स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। दुर्ग का दक्षिणी भाग द्विमंजिला है। इसका दक्षिण-पश्चिमी कोना गुम्बदाकार स्तम्भयुक्त छतरियों से आच्छादित है। इस भाग की छतें ढालदार हैं। इस भाग की प्रमुख इमारत मोतीमहल है, जो वास्तुकला की दृष्टि से श्रेष्ठ है। इस दुर्ग की जल आपूर्ति का मुख्य स्रोत सतना नदी थी। लेकिन दुर्ग के भीतर एक बाउली और दो कूप भी निर्मित किये गये थे।
(viii) अमरपाटन की गढ़ी
- इस गढ़ी का निर्माण 1678 ई. में बघेल राजा भावसिंह ने अपनी रानी कुँज कुँवरि के निवास हेतु करवाया था। यह गढ़ी समतल भूमि पर स्थित परिखा एवं प्राचीर सहित लगभग 5 एकड़ में विस्तृत है। इसका मुख्य द्वार (सिंह द्वार) पूर्व की ओर है। दुर्ग का उत्तरी भाग सर्वोत्कृष्ट है। इसमें जल आपूर्ति के लिए एक बाउली और दो कूप निर्मित किये गये थे।
- उपरोक्त दुर्गों एवं गढ़ियों के अतिरिक्त बघेलखण्ड में कई ऐसे दुर्ग हैं, जो स्थापत्य के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनमें से जैसे रेवहुँटा दुर्ग, कोठी दुर्ग, माधवगढ़ का किला, शंकरगढ़ का किला, वर्दी दुर्ग, नईगढ़ी का दुर्ग, कंचनपुर की गढ़ी, चौखण्डी की गढ़ी, सोहरवा की गढ़ी, चंदिया की गढ़ी आदि हैं।
- इस प्रकार उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि बघेलखण्ड के शासकों की स्थापत्य के क्षेत्र में विशेष अभिरूचि थी।
- संगीत के क्षेत्र में बघेलखण्ड का विशिष्ट स्थान है। यहाँ के शासक संगीत और गायन विद्या के बहुत शौकीन थे। राज दरबार और समाज दोनों में संगीत का सम्मान था, अतएव यहाँ पर संगीत-कला खूब फली-फूली। प्रतिदिन संगीत की सभाएँ होती थीं। इन सभाओं में मृदंग, वेणु और वीणा का विशेष स्थान था, इनके अलावा तूर्य, पटह, और भेरी जैसे वाद्यों का प्रचलन था। मध्यकाल में यहाँ ध्रुपद गायकी का विशेष विकास हुआ। तानसेन के ध्रुपद गीतों की यहाँ धूम थी। बघेलखण्ड को संगीत की दुनिया में विशिष्ट स्थान दिलाने वाला मशहूर गायक मियाँ तानसेन ही था, जो बघेल राजा रामचन्द्र (1555-92 ई.) का दरबारी गायक था। जिसके ध्रुपद, राग और तान पर रामचन्द्र ने एक करोड़ चन्द्रांकित टँका दान किये थे। उसके ध्रुपद के गीत रामचन्द्र के यश से भरे हुए थे। 'वीरभानूदय काव्यम्' में तानसेन की प्रशंसा करते हुए लेखक ने लिखा है- "उसके जैसा निर्दोष कला मर्मज्ञ न कभी हुआ है और न ही उस समय कोई था।" इसी प्रकार अबुल फजल ने भी अपनी 'आईन-ए-अकबरी' में तानसेन के विषय में लिखा है कि "उसके समान गायक भारत में पिछले हजार वर्षों में नहीं हुआ।" सम्राट अकबर ने तानसेन की तारीफ को सुनकर 1562 ई. में उसे बांधव दरबार से अपने पास बुलवा लिया। तानसेन ने मुगल दरबार में पहुँच कर पहले दिन ही अपनी राग से सम्राट अकबर को मुग्ध कर लिया, जिस पर अकबर ने तानसेन को दो करोड़ दाम (उस समय के दो लाख रूपये के बराबर) का पुरस्कार दिया ।
- इस प्रकार बघेल राज्य का गवैया मुगल आश्रय में पहुँचकर एक राष्ट्रीय कलाकार के रूप में उभर कर प्रकाश में आया, जिसके नाममात्र को सुनकर आज भी बड़े-बड़े गायक अपना कान पकड़ लेते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बघेल दरबार से तानसेन के चले जाने पर बघेलखण्ड को नुकसान हुआ, परन्तु भारतवर्ष को लाभ मिला और तानसेन को संगीत की दुनिया में आगे बढ़ने के लिए व्यापक क्षेत्र मिला, जो एक विशेष गायन शैली 'ध्रुपद' का विशेषज्ञ सिद्ध हुआ, जिस शैली की परम्परा आज भी उत्तरी भारत में जीवित है।
- तानसेन जैसे कलाकार का बघेलखण्ड से सम्बन्ध होने के कारण यहाँ पर उसका संक्षिप्त परिचय भी बता देना समीचीन होगा। तानसेन का जन्म ग्वालियर (मध्यप्रदेश) के पास 'बेहद' गाँव में गौड़ ब्राह्मण परिवार में हुआ, था। उसके पिता का नाम मकरन्द पाण्डेय और माता का नाम कमला था। मकरन्द को हजरत मोहम्मद गौस ग्वालियरी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। एक बार उसने गौस से पुत्र प्राप्ति की इच्छा जाहिर किया, अतः उनकी दुआ से मकरन्द के तानसेन पैदा हुआ। जब तानसेन पाँच वर्ष का हुआ, तब मकरन्द ने उसे मोहम्मद गौस के पास ले जाकर निवेदन किया कि मेरा बेटा संगीत में नाम करे, अतएव गौस ने उसी वक्त अपने 'पान के पीक' (मुँह की लार) को तानसेन के मुँह में डाल. दिया। इस पर मकरन्द ने गौस साहब से कहा कि अब तो मेरा बेटा धर्म से अलग हो गया है, इसलिए उसे मैं आपकी सेवा में छोड़े जा रहा हूँ। अतः मोहम्मद गौस ने तानसेन की पुत्रवत् परवरिश की और ग्वालियर के मशहूर संगीतज्ञों से उसे संगीत और गान विद्या की शिक्षा दिलाई। उसके संगीत की प्रतिभा को बाबा हरिदास ने निखारा। प्रो. मोहम्मद असलम का कहना है कि तानसेन दक्षिण जाकर सुलतान आदिलशाह के यहाँ भी रहा और उसने नायक बख़्श की बेटी के पास पहुँचकर 'राग' सीखा।
- इस प्रकार तानसेन ने कई विद्वान संगीतज्ञों से शिक्षा प्राप्त करके अपने संगीत की प्रतिभा को प्रखर किया, तत्पश्चात् वह बघेल दरबार में पहुँचा, जहाँ से वह अकबरी दरबार में पहुँचकर एक राष्ट्रीय गायक बना। सन् 1588 ई. में इस महान गायक ने इस संसार को अलविदा कहा। तानसेन का मकबरा ग्वालियर में मोहम्मद गौस की मजार के करीब निर्मित है। जहाँ पर तानसेन के उपलक्ष्य में प्रति वर्ष संगीत सम्मेलन होता है।
3. बघेलखण्ड नृत्यकला
- यहाँ के राजा नृत्य के भी प्रेमी थे। राजधानी में गणिकाएँ और रूपजीवाएँ बसती थीं, जो सैनिकों का मनोरंजन भी करती थीं। उत्सवों में गणिकाओं के नृत्य भी होते थे। यहाँ का स्थानीय नृत्य विशेष प्रकार का न होकर साधारण था। आदिवासियों में प्रचलित सैला नृत्य और करमा नृत्य विशेष उल्लेखनीय है। 84 यहाँ के कोल समाज की कोलदहँकी आज भी मशहूर है।
बघेल राजाओं का साहित्य से विशेष अनुराग था। ये विद्वान होने के साथ-साथ विद्वानों का आदर और सम्मान भी करते थे। इनके दरबार में साहित्यकारों को प्रश्रय मिलता था। अतः बघेल राजाओं के नेतृत्व में बघेलखण्ड का साहित्य अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था, जिसका हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा है -
- बघेलखण्ड की साहित्यिक परम्परा राजा वीरसिंह देव से (1500-35 ई.) प्रारम्भ होती है। यह साहित्य प्रेमी था, इसी की प्रेरणा से कवि रामचन्द्र भट्ट ने संस्कृत में 'राधाचरित लिखा' । वीरसिंह बघेल की प्रशंसा में समकालीन कवियों के लिखे हुए फुटकर श्लोक भी मिलते हैं। कबीर पंथी परम्परा के अनुसार वीरसिंह संत कबीर का शिष्य था। बघेल महाराजा रघुराज सिंह ने अपने ग्रन्थ 'भक्तमाल' में लिखा है कि "वीरसिंहदेव, वीरभानु और रामचन्द्र तीनों नरेश कबीर के शिष्य थे और कबीर बांधवगढ़ तथा बांधवदेश में काफी समय तक ठहरे थे।" फिर भी इतना तो निश्चित है कि बघेलवंश में कबीरपंथी परम्परा वीरसिंह से लेकर महाराजा विश्वनाथ सिंह तक बनी रही, इसका प्रमाण बघेलखण्ड में प्रचलित 'साहिब-सलाम' में मौजूद है।
- 'वीरभानूदय काव्यम्', वीरसिंह के पुत्र वीरभानु (1535-1555ई.) के दरबारी कवि माधव द्वारा लिखा गया। वीरभानु के उत्तराधिकारी रामचन्द्र (1555-92ई.) ने स्वयं कोई रचना तो नहीं की, लेकिन वह साहित्य और संगीत कला का पारखी एवं पोषक था, विद्वानों का आदर करता था, इसलिए इसके दरबार में कई विद्वान साहित्यकार आया करते थे। अकबरी दरबार के कवि, राजा रामचन्द्र का बड़ा सम्मान करते थे। कवि गोविन्द भट्ट (अकबरीय कालिदास) ने इसकी प्रशंसा में एक संस्कृत ग्रन्थ 'रामचन्द्र-यशः प्रबन्ध' लिखा, जो प्रकाशित हो चुका है। कविराय बीरबल से रामचन्द्र की दोस्ती थी। बीरबल का बचपन बघेलखण्ड में ही बीता था। वह यहीं से अकबरी दरबार में पहुँचा था। बादशाही भाट नरहरि महापात्र और उसके पुत्र हरिनाथ को भी रामचन्द्र के दरबार में आश्रय प्राप्त था। कबीर-पंथी धरमदास से रामचन्द्र की घनिष्ठता थी।
- सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा रामचन्द्र के पुत्र वीरभद्र की संस्कृत रचनायें प्राप्त होती. हैं। वीरभद्र बहुत सुसंस्कृत पुरुष था। युवराज-अवस्था में उसका साहित्य अद्भुत था। इसने संस्कृत के दो ग्रन्थ लिखे। एक 'कन्दर्पचूड़ामणि' है ( रचना काल 1577ई.) और दूसरा है 'दशकुमारपूर्वकथासारः' । मिथिला के संस्कृत विद्वान पद्मनाथ मिश्र ने वीरभद्र की विद्वता पर मुग्ध होकर संस्कृत में 'वीरभद्रदेव चम्पू लिखा' । वह युवराज वीरभद्र का दरबारी कवि था।
- सत्रहवीं शताब्दी में राजा अमर सिंह (1624-40 ई.) के दरबारी कवि नीलकण्ठ शुक्ल ने लगभग 1635ई. में 'अमरेश विलास' की रचना की थी। नीलकण्ठ का समकालिक और मैहर के बघेलवंशीय कीर्तिसिंह के सभासद, भानुजि दीक्षित ने लगभग 1640 ई. में 'व्याख्या-सुधा' टीका लिखी। इसी क्रम में आगे सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रूपणि शर्मा का संस्कृत ग्रन्थ 'बघेलवंश-वर्णनम्' उपलबध होता है। रूपणि शर्मा बघेल नरेश भान सिंह (1675-94 ई.) का आश्रित कवि था, उसने 1678 ई. में उक्त ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें वंश वर्णन के साथ भावसिंह की सभा के नौ-रत्नों का भी उल्लेख किया गया है। इन नौ-रत्नों में छः विद्वान थे, किन्तु इन विद्वान नौ-रत्नों की कोई कृतियाँ उपलब्ध नहीं हैं।
- 18वीं शती के ग्रन्थों की जानकारी उपलब्ध नहीं है। केवल एक ग्रन्थ 'भगवन्त-भास्कर' का पता चल सका है, जो नीलकण्ठ भट्ट द्वारा 1790 ई. के आस-पास लिखा गया। इसमें सेंगर राजपूतों की गाथा उल्लिखित है ।
- उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि बघेल-नरेशों का संस्कृत और हिन्दी साहित्य से अटूट सम्बन्ध रहा है। ये साहित्य और कला के पारखी एवं पोषक थे। इनके नेतृत्व में बघेलखण्ड का संगीत और साहित्य उन्नति की पराकाष्ठा कर पहुँच गया था।
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