बघेल राजा वीरसिंह देव और वीरभानु का मुगलों से सम्बन्ध (1500-1555 ई.)
बघेल राजा वीरसिंह देव और वीरभानु का मुगलों से सम्बन्ध
16वीं शताब्दी के तीसरे दशक में, जब मुगलों का पदार्पण भारतवर्ष की धरती पर हुआ, उस समय गहोरा की राजगद्दी पर वीरसिंहदेव बघेल (1500-35 ई.) आसीन था। वह शूरवीर, पराक्रमी और कुशल प्रशासक था। इसने अपनी सैनिक शक्ति और राज्य-सीमा, दोनों को इतना अधिक बढ़ा लिया था कि बाबर ने भी इसके प्रभाव को स्वीकार करके अपनी आत्मकथा में भारतवर्ष के जिन तीन बड़े राजाओं का उल्लेख किया है, उनमें से एक यही वीरसिंहदेव है।" भारत में बाबर के आक्रमण के लिए प्रमुख रूप से यहाँ की राजनीतिक फूट ही जिम्मेदार थी। फिर भी यहाँ के राजपूतों में अपेक्षाकृत कुछ मायने में एकता कायम थी, जिसकी मिसाल खानवा-युद्ध (17 मार्च 1527) में देखने को मिलती है। इस युद्ध में वीरसिंह देव बघेल ने भी अपने 400 घुड़सवारों के साथ बाबर के विरुद्ध राणा साँगा की मदद की थी, जिसका उल्लेख बाबर ने अपनी दिनचर्या में किया है। अन्त में जब राणा साँगा की पराजय ने भारत में मुगल साम्राज्य के स्थायित्व को सिद्ध कर दिया, तब वीरसिंह देव ने बाबर से मित्रता करके अपनी कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता का परिचय दिया। बाबर भी तात्कालिक परिस्थितियों को सन्तुलित करने के उद्देश्य से वीरसिंह को माफ कर 'भट्टा-गहोरा' का बघेल राज्य इसे वापस कर दिया। वीरसिंह देव और बाबर की प्रगाढ़ मित्रता का प्रमाण बाबरनामा में उल्लिखित इस बात से हो जाता है वीरसिंह देव ने 13 जनवरी 1529 ई. को बाबर के पास सूचना के बतौर एक पत्र भेजा था कि सिकन्दर लोदी के पुत्र महमूद ने बिहार पर अधिकार जमा लिया है। बाद में इन दोनों की मित्रता, भ्रातृभाव में परिणित हो गई, जिसकी पुष्टि 'वीरभानूदय-काव्यम्' से भी होती है। 18 यह मुगल-बघेल भ्रातृभाव पूरे मुगलकाल तक स्थायी बना रहा, जिसके तहत् विपत्तियों में भी ये एक दूसरे के सहायक बने रहे, जिसे आगे वर्णित किया जायेगा।
वीरसिंह देव के उत्तराधिकारी वीरभानु के शासन काल (1535-55 ई.) में बघेल-मुगल मैत्री के इम्तहान का एक अवसर उस समय आया, जब हुमायूँ चौसा के युद्ध (जून 1539 ई.) में शेरशाह सूरी से पराजित होकर अपनी प्राणरक्षा हेतु भागते-भागते अरैल (प्रयाग) में गंगा-यमुना के तट पर पहुँचा और नाव के अभाव में उसे नदी पार करना असम्भव प्रतीत हो रहा था तथा पीछे से शेरशाह का सेनापति बरमजीद गौर अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ लगातार आगे बढ़ रहा था। ऐसी विकटापन्न स्थिति में असहाथ हुमायूँ को बघेल राजा वीरभानु ने अपने 5-6 अश्वारोहियों के साथ नदी पार कराया और हुमायूँ का पीछा कर रहे शेरशाह सूरी के सेनापति को मार भगाया। हुमायूँ तथा उसके सैनिकों, जो 4-5 दिनों से भोजन व मदिरा के बिना बेचैन हो रहे थे, के लिए राजा ने एक बाजार लगवा दिया। जिन प्यादों के घोड़े मर गये थे, उन्हें अच्छी नस्ल के नए घोड़े उपलब्ध कराए गए। इस प्रकार वीरभानु ने हुमायूँ और उसकी सेना को विश्राम करने एवं थकावट दूर करने का भरसक प्रयत्न किया। कुछ दिन बाद हुमायूँ राजा वीरभानु से विदा लेकर आगरा की ओर प्रस्थान किया ।
मई 1540 ई. में जब हुमायूँ और शेरशाह अपनी-अपनी सेनाओं के साथ कन्नौज (बिलग्राम) में एक दूसरे के आमने-सामने पहुँच चुके थे, तब इस बार पुनः वीरभानु ने हुमायूँ की मदद करके बघेल-मुगल मैत्री का निर्वाह करना चाहा। जैसा कि 'तजकिरातुल वाकेआत' के लेखक जौहर का कहना है कि "जब दोनों सेनाएँ गंगातट पर कन्नौज में डटी हुई थीं तब अरैल (भट्टा-गहोरा) के राजा वीरभानु ने बादशाह हुमायूँ को बांधवगढ़ के अभेद्य दुर्ग में ठहरने के लिए आमंत्रित किया और कहा कि वह बादशाह की सेवा में रहकर शत्रुओं से बदला लेने में भी उसका सहायक होगा। लेकिन हुमायूँ ने इसके निवेदन पर विचार न करके शेरशाह से युद्ध करने का निर्णय लिया ।
बघेल राजा वीरभानु और सूरवंश
1539-40 ई. में बघेल राजा वीरभानु ने शेरशाह सूरी के विरुद्ध हुमायूँ की मदद करके शेरशाह से दुश्मनी मोल ले ली थी। इसलिये शेरशाह सूरी ने हुमायूँ को भारत से भगाने के पश्चात् अपने दूत द्वारा वीरभानु को दरबार में उपस्थित होने के लिये बुलवाया। किन्तु वीरभानु भयवश शेरशाह के दरबार में जाने के बजाय कालिंजर के तत्कालीन राजा कीरत सिंह चंदेल की शरण में चला गया। तब शेरशाह ने कीरत सिंह से वीरभानु की माँग की, लेकिन उसने मना कर दिया। इससे शेरशाह को कालिंजर पर आक्रमण करना आवश्यक हो गया।
शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण करने से पहले कीरत सिंह को बाह्य सहायता से वंचित करने हेतु अपने बड़े पुत्र आदिल खाँ को रणथम्मोर, अजमेर, बयाना और निकटवर्ती प्रदेशों पर नियंत्रण करने के लिये और दूसरे पुत्र जलाल खाँ को कैमोर के उत्तरी पठार पर नियंत्रण करने के लिए नियुक्त किया, जिसने रीवा की गढ़ी (वर्तमान रीवा का किला) को अपना निवास बनाया ।
इस प्रकार पूरी व्यवस्था करने के पश्चात् शेरशाह ने नवम्बर 1544 ई. में 80000 घुड़सवारों, 2000 हाथियों, और अनेंक बड़ी तोपों के साथ कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। कालिंजर दुर्ग का घेरा लगभग 6 माह तक चलता रहा। इसी घेरे के दौरान शेरशाह एक गोले के फटने से बुरी तरह घायल हो गया, और 22 मई 1545 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। अन्ततः शेरशाह के सैनिकों ने कालिंजर दुर्ग को फतह कर लिया। शेरशाह की मृत्यु की खबर सुनते ही उसके दोनों पुत्र कालिंजर की ओर रवाना हुए, परन्तु जलाल खाँ, कालिंजर के नजदीक भट्टा क्षेत्र में होने के कारण आदिलशाह से पहले वहाँ पहुँचा। इस तरह शेरशाह के पुत्रों में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष प्रारम्भ हो गया, जिसका लाभ उठाकर कीरत सिंह अपने साथियों सहित वहाँ से बचकर भाग निकला, लेकिन दूसरे दिन वह पकड़ लिया गया। मख़जन-ए-अफगानी में नियमत-उल्ला लिखता है "इस्लामशाह (जलाल खाँ) ने पहला काम यह किया कि इस राजा (कीरत सिंह) को मरवा दिया।
कालिंजर से बच निकलने के पश्चात् वीरभानु और शेरशाह के उत्तराधिकारियों के मध्य क्षणिक समझौता हो गया था, क्योंकि बाद में बघेलों और सूरियों के बीच संघर्ष के बजाय शेरशाह के भाई मियाँ निजाम खाँ का पुत्र और इस्लामाशाह सूर का साला मुवारिज खाँ, जो आदिलशाह (अदिली) (1553-55 ई.) के नाम से गद्दी पर बैठा था, अपने विरोधी बहनोई एवं चचेरे भाई इब्राहीम खाँ सूर से पराजित होकर भट्टा के राजा रामचन्द्र बघेल (1552-92 ई.) की शरण में आया था, इसलिए इब्राहीम खाँ ने अदिली का पीछा करते हुए रामचन्द्र पर चढ़ाई कर दी। किन्तु वह बघेल राजा द्वारा पराजित कर बन्दी बना लिया गया। लेकिन रामचन्द्र देव ने उसके साथ सद्व्यवहार किया ।
यहाँ पर स्पष्ट है कि शेरशाह के उत्तराधिकारियों से बघेल राजाओं के सम्बन्धों में सुधार आ गया था, इसलिए रामचन्द्र ने अदिली को शरण प्रदान कर उसकी रक्षा की और तत्पश्चात् अदिली के विरोधी इब्राहीम सूर को पराजित करने के बावजूद भी उसके साथ सद्व्यवहार किया। सूरवंश के सुलतानों के साथ बघेल राजाओं की मित्रता क्षणिक ही कही जा सकती है, क्योंकि हुमायूँ के दुबारा भारत आने पर इनकी मुगलों के साथ दोस्ती पूर्ववत् बनी रही।
बघेल राजा वीरसिंहदेव और मेवाड़ का राणा साँगा
16वीं शताब्दी में मेवाड़ राज्य लगभग समस्त राजपूताना का नेतृत्व कर रहा था। जिसका प्रभावशाली एवं प्रतापी शासक राणा साँगा हुआ। उसके काल में मेवाड़ राज्य अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर था। ऐसे शक्तिशाली राज्य से बघेल राजा वीरसिंह देव जैसे कूटनीतिक एवं महत्वाकांक्षी वीर के लिए मैत्री-सम्बन्ध बनाना स्वाभाविक ही था। अपने इन्हीं मैत्री-सम्बन्धों की मिसाल प्रस्तुत करने के उद्देश्य से वीरसिंहदेव ने खानवा के युद्ध (17 मार्च 1527 ई.) में अपने 400 अश्वारोहियों के साथ बाबर के विरुद्ध राणा साँगा की सहायता की थी। 24 लेकिन युद्ध में राणा साँगा के मारे जाने के पश्चात् वीरसिंहदेव ने भी अन्य राजपूत राजाओं का अनुकरण किया और बाबर से मित्रता करके अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया।
इस प्रकार वीरसिंहदेव ने कई शासकों को पराजित करके भट्टा-गहोरा के बघेल राज्य की सीमाओं का विस्तार किया; जिसके फलस्वरूप बघेल-राज्य का व्यापक स्वरूप निर्मित हो सका। वास्तव में वीरसिंहदेव की विजय श्रृंखलाओं के आधार पर इसे बघेलवंश के इतिहास में महान विजेता के रूप में निरूपित किया जा सकता है।
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