बघेलखण्ड नैकहाई की लड़ाई | Baghelkhand Naikhayi Ladayi
बघेलखण्ड नैकहाई की लड़ाई
बाँदा नवाव से दो युद्ध
- बाँदा-नवाब अलीबहादुर ने समस्त बुंदेलखण्ड पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके पश्चिमी बघेलखण्ड की रियासतों को भी अपना करद बना लिया था। लेकिन रीवा राजा अजीत सिंह ने उसकी परवाह नहीं की। इसलिए अलीबहादुर रीवा राज्य पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हो गया। उसने रीवा पर दो आक्रमण किये थे, जिनका विवरण अधोलिखित है -
अलीबहादुर ने रीवा पर आक्रमण करने के लिए अपने नायक जसवन्तराय को भेजा था। जिसमें नायक मारा गया था। इसलिए यह युद्ध बघेलखण्ड में नैकहाई की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। इस लड़ाई के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ निम्नलिखित थीं -
- रीवा के तात्कालिक राजा अजीत सिंह (1755-1809 ई.) ने अपनी विलासिता के कारण राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था को अत्यधिक जर्जर कर दिया था। इसके अतिरिक्त सेमरिया के इलाकेदारों के सतत् विरोध से भी रीवा-राज्य में अराजकता और अव्यवस्था को बढ़ावा मिला। दरअसल रीवा राजा भावसिंह (1675-94 ई.) निःसन्तान होने के कारण अपने अनुज जसवन्त सिंह के छोटे पुत्र अनिरूद्ध सिंह को अपना उत्तराधिकारी बना लिया था और बड़े पुत्र मुकुन्द सिंह को, जो उद्दण्ड प्रवृत्ति का था, सेमरिया का इलाका प्रदान किया था। इससे सेमरिया वाले रीवा राजा से ज्येष्ठ होने के नाते रीवा दरबार की अवहेलना करने लगे और उसके विरुद्ध षड़यंत्र करना शुरू कर दिये। जिसकी देखादेखी राज्य के जिरौंहा, क्योंटी, पथराहट जैसे कई इलाकेदारों ने रीवा-दरबार के विरुद्ध अपना सिर उठाने लगे। जिससे रीवा-राज्य में अराजकता का आलम छा गया। जिसे देखकर अलीबहादुर ने अपनी साम्राज्यवादी भूख और आर्थिक संकट को मिटाने के लिए रीवा-राज्य पर आक्रमण करने की योजना बनायी।
- भगवानदास गुप्त ने अलीबहादुर के रीवा-आक्रमण का मुख्य कारण आर्थिक संकट बताया है। उनके अनुसार- "अलीबहादुर को धन की अत्यधिक आवश्यकता थी। क्योंकि बुंदेलखण्ड के राजे-रजवाड़ों से उसे धन की विशेष उपलब्धि नहीं हुई थी और प्रदेश की आराजकतापूर्ण उजड़ी स्थिति से अधिक आय की आशा भी नहीं थी। फिर यह बात तो थी ही कि हिम्मत बहादुर गोसाँई भी उसे नये अभियानों के लिए उकसाता रहता था, ताकि उसका प्रभाव बना रहे और उसे भी धन तथा प्रदेशों की प्राप्ति होती रहे। "
- जब अलीबहादुर की सेना रीवा से लगभग पाँच मील की दूरी पर पहुँच गयी, तब राजा अजीत सिंह अत्यधिक घबड़ा गया और चौथ (कर) कबूल करके नायक से संधि करना चाहा; लेकिन चन्देलिन रानी कुन्दन कुवँरि इस बात को सुनकर अत्यन्त क्रोधित हुईं। उन्होंने राज्य के सभी सरदारों को अपनी ड्योढ़ी पर बुलवाया और एक बीड़ा भेजकर कहला भेजा कि सभी सरदार प्रतिज्ञापूर्वक तलवार पकड़कर नायक से युद्ध करें, या फिर जनानी पोशाक पहनकर घर में बैठें; और मैं स्वयं युद्ध करूँगी। यह सुनकर सरदारों की मर्दानगी जाग उठी और उन्होंने बीड़ा उठाकर नायक की सेना के साथ मरने-मारने पर उतारू हो गये। इस प्रकार रीवा के सभी सरदारों ने युद्ध का डंका बजाकर तत्काल तैयारियाँ शुरू कर दीं।
- रीवा के सरदारों ने अपनी तथा कथितं फौज को दो दलों में विभाजित किया। एक दल बघेलों का था, जिसका सेनापति तेंदुन ठाकुर गजरूप सिंह था और दूसरे दल में कलचुरी, परिहार, सिकरवार और कुछ मुसलमान थे, जिसका सेनापति कलन्दर सिंह कलचुरी था। पहले दल ने घोघर नदी पार करके नायक की सेना पर बगल से आक्रमण किया और दूसरे दल ने नायक की सेना के सामने से मुकाबला किया, जहाँ पर नायक की तोपें लगी हुई थीं। इससे इस दल को विशेष क्षति उठानी पड़ी। बहुत से वीर युद्ध में मारे गये। इन्हीं के साथ रामपुर-बधेलान का अठारह वर्षीय युवक अनूपसिंह भी वीरगति को प्राप्त हुआ था। इसी बीच बगल से जब बघेलों के दल ने नायक की सेना पर हमला किया, तब नायक की सेना दिशा विहीन हो गयी।
- जब बघेलों का दल लड़ते-लड़ते नायक के नज़दीक पहुँच गया तब महाराजसिंह ने हाथ से इशारा करते हुए नायक को बताया कि अब बघेल लोग आ गये हैं, संभल जाओ। महाराजसिंह के इशारे को देखकर खाझा गाँव के प्रतापसिंह बघेल ने नायक को पहचान लिया और तुरन्त नायक की छाती में बड़े जोर से भाला फेंक दिया, जिससे नायक जमीन पर गिर पड़ा और चौहदवीं गाँव के अमरसिंह ने उसका सिर काटकर महाराजा अजीतसिंह के पास पहुँचा दिया। नायक के मरते ही उसकी सेना नेतृत्व विहीन होकर भाग खड़ी हुई। डेन सेनापति मीसलबैक, जो जसवन्तराय के थोड़ा पीछे-पीछे बढ़ रहा था, वह भी बघेलों के आक्रमण के सामने नहीं ठहर पाया और न ही नायक की भागती हुई सेना को इकट्ठा कर सका।
युद्ध
- इस पराजय से अलीबहादुर अत्यधिक क्रोधित हुआ और प्रतिज्ञा की, कि जब तक वह रीवा राजा को अपने अधीन कर नायक जसवन्तराय की मौत का बदला नहीं ले लेगा, तब तक वह सिर पर पगड़ी नहीं धारण करेगा। दो वर्ष बाद दिसम्बर 1798 ई. में अलीबहादुर ने पुनः रीवा पर आक्रमण करने के लिए हिम्मत बहादुर गोसाँई के नेतृत्व में एक विशाल सेना रवाना की। उसके साथ मिस्टर पिल के अधीन सुप्रशिक्षित बटालियनें भी भेजी। हिम्मत बहादुर ने रीवा-राज्य में घुसकर दूर-दूर तक धावे मारना शुरू कर दिया और लूट में बहुत सारे मवेशियों को पकड़ लिया, जिन्हें अलीबहादुर ने अपने सैनिकों में वेतन के बतौर बँटवा दिया।
- इसी बीच अलीबहादुर स्वयं एक सेना के साथ रीवा की तरफ लगभग 16 मील आगे बढ़ आया था। अतः हिम्मत बहादुर और अलीबहादुर की संयुक्त सेनाओं की भयंकरता का अनुमान लगाकर अजीतसिंह काफी घबराया हुआ था। इस घबराहट का एक कारण अजीतसिंह के पास खाली खजाना (राजकोष) और दूसरा सेना का अभाव था। अधिकांश बघेल और कलचुरी सरदार नैकहाई की लड़ाई में काम आ गये थे। अभी उनके स्थान की क्षतिपूर्ति भी नहीं हो पायी थी कि रीवा राज्य के ऊपर पुनः संकट के बादल घिर आये। ऐसी विकट स्थिति में अजीतसिंह के सामने संधि करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता भी नहीं था। दूसरी ओर अलीबहादुर ने महाराजा के पास सूचना भेजी कि वार्षिक चौथ देना स्वीकार करो या फिर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। फलतः 19 दिसम्बर 1798 ई. को अजीतसिंह ने दरबार की तरफ से एक संधि पत्र कलन्दरसिंह कलचुरी के द्वारा अलीबहादुर के पास भेजा। अलीबहादुर ने उस पत्र को पढ़कर तथा कलन्दरसिंह की चाटुकारिता से प्रसन्न होकर खेराज (चौथ) लेना तो माफ कर दिया, लेकिन अपने सैनिक अभियान में लगे खर्च के लिए एक लाख रूपये की माँग कर दी। अजीतसिंह के राजकोष में इतनी बड़ी धनराशि देने की औकात कहाँ थी। इसलिए कुछ समय की मोहलत के लिए अलीबहादुर से प्रार्थना की गयी। अली बहादुर ने रीवा राजा की प्रार्थना तो स्वीकार कर ली, लेकिन कलन्दरसिंह कलचुरी को हर्जाना जमा होने तक जामिन के तौर पर (बन्धक) अपने साथ ले गया। बाद में अजीतसिंह ने सितलहा (त्योंथर) परगना को माण्डा के राजा ईश्वरसिंह के यहाँ गच्छ (गहन) कर हर्जाना की राशि (एक लाख रूपये) अलीबहादुर के पास भेज दी और कलन्दरसिंह को मुक्त करा लिया।
- इस प्रकार अलीबहादुर के दूसरे आक्रमण (1798 ई.) के समय भी रीवा राज्य का उसके भाग्य ने साथ दिया और एक करद राज्य होते-होते बच गया। इस घटना का रीवा राज्य के इतिहास में बड़ा महत्व है; क्योंकि 1802 ई. में कालिंजर के घेरे के समय अलीबहादुर की मृत्यु हो जाने पर और 1802 ई. में पेशवा और अंग्रेजों के मध्य 'बसीन' की संधि हो जाने पर समस्त बुंदेलखण्ड अंग्रेजों के प्रभुत्व में आ गया। अलीबहादुर के अधीन बुंदेलखण्ड के किसी भी राजा के साथ अंग्रेजों ने संधि नहीं की थी, बल्कि सभी के पास अंग्रेजों द्वारा दी गयी सनदें थीं। इस क्षेत्र में रीवा राजा के साथ अंग्रेजों ने 1812 और 13 ई. में संधि की थी; जिसका वर्णन आगे किया जायेगा। यदि 1798 ई. में अलीबहादुर रीवा राज्य पर विजय प्राप्त कर लेता तो इस राज्य को भी अंग्रेजों की सनद स्वीकार करनी पड़ती।
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