बाँधव-राज्य का राजनीतिक परिदृश्य | Bandhvagarh Political History
बाँधव-राज्य का राजनीतिक परिदृश्य (1555-1605 ई.)
बाँधव-राज्य का राजनीतिक परिदृश्य (1555-1605 ई.)
- 16वीं शताब्दी में बघेल-सत्ता अपने चर्मोत्कर्ष पर थी। लेकिन इसके पश्चात् यह उत्तरोत्तर अवनति की ओर अग्रसर होती चली गयी। 1555 ई. में वीरभानु की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रामचन्द्र देव (1555-1592 ई.) बघेल राजगद्दी पर आसीन हुआ। यह अकबर का समकालिक था। इसने अकबर के बढ़ते हुए प्रभाव से गहोरा को असुरक्षित महसूस किया और 1564 ई. में अपनी राजधानी बांधवगढ़ स्थानान्तरित कर ली। क्योंकि बांधव-दुर्ग उस समय अभेद्य दुर्गों में से एक था। इसी बांधवगढ़ के कारण भट्ट्टा-गहोरा के बघेल-राज्य को बांधव-राज्य (बान्धू राज्य) कहा जाने लगा और बघेल राजा बांधवेश (बाँन्धूपति) कहे जाने लगे । तब से सभी परवर्ती बघेल राजा 'बांधवेश' कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे।
16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बांधवराज्य की राजनीतिक उपलब्धियों का ब्यौरा निम्नलिखित है-
(1) बघेल राजा रामचन्द्रदेव और अकबर
- रामचन्द्रदेव के शासनकाल में बांधव राज्य काफी विस्तृत था। इसकी सीमाओं को अबुल फजल ने उल्लिखित किया है कि इस राज्य के उत्तर में गंगा-यमुना हैं, जो इलाहाबाद सूबा से मिलता है। दक्षिण में गढ़ा का प्रदेश है। पूर्व में सरगुजा और पश्चिम में पन्ना-प्रदेश है। 26 इस राज्य की सुरक्षा के लिए हाथियों-घोड़ों से परिपूरित एक बड़ी सेना थी। इसी कारण अबुल फजल ने बांधव-राज्य को एक शक्तिशाली राज्य के रूप में स्वीकार किया है। 27 1539 ई. में इस राज्य के राजा वीरभानु द्वारा हुमायूँ के ग्राणों की रक्षा किये जाने के कारण मुगल शासक इस राज्य के प्रति हमेशा एहसानमन्द रहे और इसीलिए उन्होंने इसे 'कर' से मुक्त रखा। यह अलग बात है कि राजनीतिक उठा-पटक में इन दोनों सत्ताओं के बीच यदाकदा टकराव की स्थिति अवश्य उत्पन्न हुई थी, जिसका विवरण आगे आयेगा।
- राजा रामचन्द्रदेव एक कुशल शासक होने के साथ-साथ कला और विद्या का पोषक था। इसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय मिलता था। संगीत सम्राट तानसेन इसका दरबारी गायक था। जिसकी ख्याति सुनकर अकबर ने 1562 ई. में जलाल खाँ कोर्ची को राजा रामचन्द्र के पास भेजकर तानसेन को अपने दरबार में बुलवा लिया। राजा ने तानसेन को शाही दरबार में भेजकर प्रसन्नता जाहिर की। क्योंकि तानसेन को उन्नति करने के लिए व्यापक क्षेत्र मिल गया था। इसके अतिरिक्त राजा रामचन्द्र के प्रति अकबर की विश्वसनीयता को बल मिला। लेकिन अगले वर्ष 1563 ई. में रामचन्द्र ने अकबर के विद्रोही सेवक गाज़ी खाँ तन्नौरी को शरण देकर अकबर के उक्त विश्वास पर पानी फेर दिया। पहले तो अकबर ने राजा को समझा बुझाकर गाजी खाँ वगैरह को शाही सेना के हाथों में सौंपने की सलाह दी। लेकिन रामचन्द्र ने शरणागत की रक्षा करना अपना क्षत्रिय धर्म समझकर अकबर की सलाह को मानने से मनाकर दिया। अतः अकबर ने कड़ा के सूबेदार आसफ खाँ को राजा रामचन्द्र के विरुद्ध आक्रमण करने के लिए भेजा। मार्च 1563 में दोनों पक्षों के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें गाजी खाँ अपने साथियों सहित मारा गया और राजा रामचन्द्र ने अपनी सुरक्षा के लिए बांधवगढ़ दुर्ग में शरण ली। अन्त में बीरबल की मध्यस्थता से रामचन्द्रदेव और अकबर के बीच सुलह हो गयी। तत्पश्चात् अकबर ने आसफ खाँ को बांधव राज्य में किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये बगैर वापस बुलवा लिया। 28 यहाँ पर स्पष्ट है कि रामचन्द्रदेव की विरोधी प्रवृत्ति के बावजूद भी अकबर का रुख बघेल-राज्य के प्रति पूर्णतया उदार और समझौतावादी ही था।
- 1569 ई. में एक बार पुनः अकबर ने कालिंजर का अभेद्य दुर्ग प्राप्त करने के लिए बांधव राज्य में अपनी सेना भेजी। उस समय यह दुर्ग बघेल राजा रामचन्द्रदेव के अधिकार में था। बघेलों ने इस दुर्ग को अफगानों के पतनकाल में इस्लामसूर के एक अधिकारी बिजली खाँ से खरीदा था। क्योंकि इनकी राजधानी गहोरा के नज़दीक कोई भी दुर्ग नहीं था। जब रामचन्द्र को रणथम्भौर और चित्तौड़गढ़ जैसे दुर्गों को विजित किये जाने की खबर मिली, तो इसने युद्ध करना व्यर्थ समझा और रणथम्भौर-चित्तौड़ विजयों के उपलक्ष में बधाई प्रेषित कर कुछ उपहार सहित दुर्ग की चाबी अकबर के पास भिजवा दी, 29 जो उसकी कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता का परिचायक है।
- यद्यपि राजा रामचन्द्रदेव ने कालिंजर दुर्ग की चाबी भेजकर अकबर के प्रति अपनी वफादारी प्रकट की और अपने पुत्र वीरभद्रदेव को अकबरी दरबार में प्रतिनिधित्व करने के लिये भेज दिया था। लेकिन शंकावश स्वयं अकबर के समक्ष कभी नहीं उपस्थित हुआ। इसलिए 1583 ई. में जब अकबर इलाहाबाद के किले का निर्माण करवा रहा था, तब वर्तमान् सीधी जिला के सेमौतहा ब्राह्मण राजा रामचन्द्रदेव की शिकायत करने के लिए अकबर के पास इलाहाबाद गये। दरअसल रामचन्द्रदेव के आदेश पर चुरहट (जिला-सीधी) के राव विक्रमादित्य ने इन ब्राह्मणों की जागीर छीन ली थी। अतएव अकबर ने ब्राह्मणों की शिकायत के बहाने रामचन्द्रदेव को अपने समक्ष उपस्थित करने के लिए एक सेना भेजनी चाही। लेकिन वहाँ उपस्थित युवराज वीरभद्रदेव के निवेदन पर विचार करके अकबर ने जैन खाँ कोका और बीरबल को बांधवगढ़ भेजा। बीरबल ने अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से राजा को रिझा लिया और आतिथ्य सत्कार के बहाने इस अकबर के पास चलने के लिए राजी कर लिया। उधर अकबर राजा रामचन्द्र के इलाहाबाद पहुँचने के पहले ही फतहपुर सीकरी की ओर प्रस्थान कर गया। बीरबल ने रामचन्द्र को मिला-फुसलाकर बादशाह के पीछे-पीछे बढ़ाता गया। इस तरह ज्यों-त्यों करते-करते फरवरी 1584 ई. में रामचन्द्रदेव और अकबर की भेंट फतहपुर सीकरी में हुई। राजा ने बादशाह अकबर को 120 हाथी और बहुत सी कीमती वस्तुएँ, जिनमें कुछ लाल (हीरा) भी थे, उपहार में प्रदान की। इससे अकबर ने प्रसन्न होकर रामचन्द्र को बांधवराज्य के शासक के रूप में मान्यता दी और उसे 101 घोड़े प्रदान किये ।
- इस प्रकार इस भेंट के फलस्वरूप राजा रामचन्द्रदेव के दिल में अकबर के प्रति जो शंका एवं भय था, उसका अंत हुआ और बघेल-मुगल सम्बंध का नवीनीकरण हुआ।
बाँधव-राज्य मुगलों के अधीन (1597-1605 ई.)
- 1592 ई. में रामचन्द्रदेव की मृत्यु हो जाने पर अकबर ने उसके पुत्र वीरभद्रदेव को राजा की पदवी देकर बांधव-राज्य का शासक नियुक्त किया। अतः 1593 ई. में वीरभद्र मुगल सम्राट से अनुमति प्राप्त करके बांधवगढ़ के लिए प्रस्थान किया। किन्तु रास्ते में बरौंधा (जिला शहडोल) नामक स्थान पर पालकी से गिर पड़ा; जिससे उसके सिर में चोट लगने के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। बरौंधा में टीरभद्र की छतरी आज भी मौजूद है।
- वीरभद्र के आकस्मिक निधन को सुनकर अकबर ने मृतक के ससुर बीकानेर के राय रायसिंह के स्थानीय निवास पर जाकर शोक व्यक्त किया। रायसिंह की बड़ी पुत्री वीरभद्र के साथ और छोटी सलीम के साथ ब्याही गयी थी। इस तरह वीरभद्र और सलीम निजी रिश्ते में परस्पर साढू थे।
- वेोरभद्रदेव की मृत्यु के उपरान्त इसके नाबालिग पुत्र विक्रमाजीत (विक्रमादित्य) (जन्म 1582 ई) को बांधव की राजगद्दी पर बैठाकर दरबार के कुछ स्वार्थी लोगों ने अपना उल्लू सीधा करना चाहा। जिससे बांधव-दरबार में अव्यवस्था और अशांति फैलने लगी। साथ ही इन्हीं स्वार्थी तत्वों के बहकावे में आकर राजा विक्रमाजीत ने अकबर की अधीनता अस्वीकार कर दी। जिसके कारण 1594 ई. में अकबर ने राय त्रिपुरदास खत्री को एक विशाल सेना के साथ विक्रमाजीत को सबक सिखाने के लिए बांधवगढ़ भेजा। सर्वप्रथम त्रिपुरदास ने बघेल सेना को पराजित करके बांधव-राज्य पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् उसने बांधव दुर्ग का घेरा डालकर उसकी रसद सामग्री काट दी। कई दिनों तक घेरे के कारण जब दुर्ग में रसद सामग्री का अभाव होने लगा, तब दुर्ग के रक्षकों ने त्रिपुरदास के पास यह प्रस्ताव भेजा कि अगर बादशाह का कोई खास व्यक्ति राजा विक्रमाजीत को मुगल दरबार से सुरक्षित वापस लाने की गारन्टी ले, तो हम राजा विक्रमाजीत को मुगल दरबार में भेज देंगे। अकबर इस बात पर राजी हो गया और अल्पवयस्क बघेल राजा विक्रमाजीत को मुगल दरबार में लाने के लिए 1596 ई. में इस्माइल कुली खाँ को बाधवगढ़ भेजा। विक्रमाजीत को मुगल दरबार भेज दिया गया, लेकिन मुगलों ने दुर्ग का घेरा नहीं उठाया और कहा कि जब तक बघेल-सेना द्वारा बांधव दुर्ग खाली नहीं कर दिया जाता है, तब तक राजा विक्रमाजीत को वापस नहीं किया जायेगा। बघेल सेना ने अकबर के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसलिए दुर्ग का घेरा लम्बे समय तक चलता रहा। इससे दुर्ग की सेना के सामने रसद-सामग्री के अभाव में विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी। इसी बीच त्रिपुरदास दुर्ग के कुछ सैनिकों को अपनी ओर मिलाने में भी सफल हो गया। इसलिए विवश होकर दुर्ग की सेना ने 8 जुलाई 1597 को त्रिपुरदास से संधि करके बांधव दुर्ग खाली कर दिया। दुर्ग की लूट में मुगल सेना को बहुत सा धन और सामान मिला। इस प्रकार यह घेरा 8 माह और 20 दिनों तक चला।32 तत्पश्चात् यहाँ की आन्तरिक स्थिति को देखते हुए अकबर ने त्रिपुरदास को बांधवगढ़ का सूबेदार नियुक्त कर दिया; जिसने 1601 ई. तक मुगलों की तरफ से बांधव राज्य पर शासन किया। 1602 ई. में अकबर ने वीरभद्र के दासी-पुत्र जिर्णोधन (दुर्योधन) को बांधव राजगद्दी पर बैठाया और भारतीचन्द्र को इस अल्पायु राजा का संरक्षक नियुक्त किया। इस प्रकार 1602 से 1605ई. तक जिर्णोधन के नाम से बांधव-राज्य पर मुगलों ने शासन किया।
- इस प्रकार स्पष्ट है कि अकबर जैसे शक्तिशाली सम्राट को भी बांधवगढ़ के अभेद्य दुर्ग को. विजित करने के लिए कूटनीति का सहारा लेना पड़ा था। इसीलिए अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि "उदारता किला प्राप्त करने के लिए कुन्जी बन गयी।" यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बांधव-दरबार के स्वार्थी तत्वों के षड़यत्र को विफल करने के लिए ही अकबर ने अपने सहयोगी बांधव राज्य को कुछ समय के लिए अपने अधीन करके इसे सुरक्षा प्रदान की थी।
- 1605 ई. में जहाँगीर सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने अपने साढू-पुत्र विक्रमाजीत का राज तिलक करके उसे बांधव-राज्य के 18 परगनों की सत्ता सौंपी। इन 18 परगनों में बांधवगढ़ सम्मिलित नहीं था। इसलिए विक्रमाजीत ने रीवा को अपनी राजधानी बनाया और 1545 ई. में शेरशाह सूरी के कनिष्ठ पुत्र जलाल खाँ द्वारा निर्मित गढ़ी का विस्तार करके उसे किला के रूप में परिवर्धित किया। 34 तब से बाँधव-राज्य को रीवा-राज्य के नाम से पुकारा जाने लगा। लेकिन रीवा के परवर्ती बघेल राजा 'बांधवेश' पदवी को धारण करने में गौरव का अनुभव करते थे।
- बांधवगढ़ जैसे अभेद्य दुर्ग का हाथ से निकल जाना, विक्रमाजीत के लिए असह्य था। क्योंकि यह दुर्ग प्रारम्भ से ही बघेल राजाओं का सुरक्षा कवच था। इसलिए इसे प्राप्त करने के लिए 1610 ई. में विक्रमाजीत ने विद्रोह कर दिया। अतः उसे दण्डित करने के लिए जहाँगीर ने मानसिंह कछवाह के पौत्र महासिंह को बांधवगढ़ भेजा। फलतः विक्रमाजीत को मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश होना पड़ा। बाद में 1612 ई. में जहाँगीर ने महासिंह को बांधवगढ़ पुरस्कार में दे दिया। इस प्रकार राजा विक्रमाजीत की विद्रोही प्रवृत्ति के कारण बांधवगढ़ बघेलों के बजाय कछवाहों के अधिकार में चला गया। साथ ही विक्रमाजीत मुगल सम्राट की नज़रों से गिर गया। इस स्थिति से उबरने के लिए विक्रमाजीत ने मुगल-दरबार के अपने प्रवासकाल में शहजादा खुर्रम से हुई मित्रता को आधार बनाया। फलतः 1616 ई. में खुर्रम की सिफारिश पर जहाँगीर ने विक्रमाजीत के अपराधों को क्षमा कर दिया। 1619 ई. में विक्रमाजीत पुनः मुगल-दरबार गया और जहाँगीर को एक हाथी और एक रत्नजड़ित शुतुर्मुर्ग का 'पर' दिया। अतः विक्रमाजीत के प्रति जहाँगीर का व्यवहार मधुर एवं सौहार्द्रपूर्ण हो गया। इसलिए 1624 ई. में उसने विक्रमाजीत को बांधव-राज्य के कुछ और परगने प्रदान किये थे, 35 जिनमें बांधवगढ़ भी था। लेकिन विक्रमाजीत ने अपनी राजधानी रीवा में ही कायम रखी और बांधवगढ़ को अपनी सेना का मुख्यालय बनाया।
- 1624 ई. में विक्रमाजीत की मृत्यु के पश्चात् रीवा-राज्य की स्थिति उत्तरोत्तर दुर्बल होती चली गयी। राजा वीरभद्र (1592-93 ई.) और राजा विक्रमांजीत (1605-1624 ई.) को मजबूरीवश मुगल दरबार में रहना पड़ा था। लेकिन विक्रमाजीत के पुत्र अमर सिंह (1624-1640 ई.) ने तो 1626 ई. में स्वेच्छा से मुगलों की अधीनता स्वीकार करके उनकी प्रत्यक्ष सेवा में पहुँच गया। इसीलिए अमर सिंह को 1635 ई. में रतनपुर के जमींदारों के विद्रोह का दमन करने के लिए मुगल सेनापति अब्दुल्ला खाँ फिरोज जंग के साथ भेजा गया था। अमरसिंह की मध्यस्थता से रतनपुर के जमींदार बाबू लक्ष्मण ने शाहजहाँ की अधीनता स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् अमरसिंह और अब्दुल्ला दोनों शाही दरबार चले गये ।
- 1635 ई. में जुझार सिंह बुंदेला ने भी विद्रोह किया था; जिसके दमन के लिए राजा अमरसिंह को पुनः अब्दुल्ला के साथ नियुक्त किया गया। इस संघर्ष में जुझार सिंह अपने पुत्र विक्रमाजीत बुंदेला सहित मारा गया। इस घटना से पूर्व जब खानेजहाँ लोदी ने मुगल बादशाह के विरुद्ध विद्रोह (1628-31 ई.) किया था, तब उसके दमन के लिए अमरसिंह को मुगलों की सहायता करनी पड़ी थी। भाण्डेर के पास नीमी नामक गाँव में युद्ध हुआ; जिसमें खानेजहाँ पराजित होकर भाग निकला। लेकिन कालिंजर के पास केन नदी के किनारे स्थित सेहुँड़ा नामक स्थान पर वह बघेल राजा अमरसिंह के हाथों मारा गया ।
- 1651 ई. में शाहजहाँ ने पहाड़ सिंह बुंदेला को चौरागढ़ की जमींदारी सौंप दी। अतः पहाड़ सिंह के चौरागढ़ पहुँचने पर वहाँ का गोंड़ सामन्त हृदयराम (हिरदेराम) भागकर रीवा राजा अनूपसिंह की शरण में चला आया। अतएव अनूप सिंह (1640-75 ई.) को पहाड़ सिंह बुंदेला के आक्रमण का शिकार होना पड़ा। इस आक्रमण में पहाड़ सिंह का सामना न कर पाने की स्थिति मे अनूपसिंह को अपने परिवार सहित त्योंथर (जिला-रीवा) के जंगलों में शरण लेनी पड़ी। लगभग 1656-57 ई. में अनूपसिंह इलाहाबाद के मुगल सूबेदार सलावत खाँ सैयद के माध्यम से शाहजहाँ के दरबार में उपस्थित हुआ। शाहजहाँ ने अनूपसिंह का सम्मान किया और 3000 जात व 2000 सवार का मनसब प्रदान करके रीवा-राज्य को बहाल किया। इस प्रकार लगभग पाँच वर्षों तक निष्कासित जीवन व्यतीत करने के बाद मुगलों की कृपा से अनूपसिंह को पुनः रीवा की राजगद्दी मिली। इसलिए अनूपसिंह जीवन पर्यन्त मुगलों के प्रति निष्ठावान बना रहा ।
- अनूप सिंह के पश्चात् इसके उत्तराधिकारियों ने भी अपने पूर्वजों के पदचिन्हों पर चलकर मुगलों के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बंध बनाये रखा; जिससे बघेल राजा औरंगजेब जैसे असहिष्णु सम्राट के भी कृपा पात्र बने रहे। औरंगजेब के बाद उसके उत्तराधिकारी निकम्मे शासक सिद्ध हुए। इसलिए मुगल दरबार षडयंत्रों का गर्म अखाड़ा बन गया। इससे मुगल प्रशासन अव्यवस्थित एवं शिथिल होता गया। इसी दुर्बल स्थिति के कारण रीवा राज्य को अभी तक मुगलों के द्वारा जो संरक्षण एवं सहयोग प्राप्त हो रहा था, वह अब काफी सीमित हो गया। दूसरी तरफ बघेल राज्य की आन्तरिक स्थित राजा रामचन्द्रदेव (1555-92 ई.) के बाद से ही दुर्बल होना प्रारम्भ हो गयी थी, जो उत्तरोत्तर दुर्बल होती ही गयी और राजा अजीतसिंह के शासनकाल (1755-1809 ई.) तक पहुँचते-पहुँचते इसकी हालत काफी जर्जर हो गयी। फिर भी अपनी कमजोर और दुर्बल स्थिति में भी बघेल- मुगल दोनों परस्पर एक दूसरे के सहयोगी मित्र बने रहे। 39 वास्तव में इन दोनों राजवंशों के बीच अटूट विश्वास और पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हो गये थे; जिसका मूर्तरूप निम्नलिखित घटनाओं में प्रतिबिम्बित होता है.
- 1726 ई. में छत्रसाल बुंदेला के पुत्र हृदयशाह ने रीवा-राज्य की असहाय स्थिति को देखते हुए, इस पर आक्रमण करके जब इसे अधिकृत कर लिया, तब मुगल सम्राट ने रीवा राज्य की रक्षा के लिए इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद खाँ बंगश को भेजा था। जिसकी सैनिक कार्यवाही के परिणामस्वरूप हृदयशाह को रीवा से हटना पड़ा था। इसी प्रकार 1758 ई. में जब मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (1754-59 ई.) का बड़ा शहजादा अलीगौहर उर्फ शाह आलम अपने प्रथम पटना अभियान में असफल होकर बनारस लौटा, तब लार्ड क्लाइव की सैनिक कार्यवाही से बचने के लिए अपनी गर्भवती बेगम 'मुबारक महल' उर्फ लालबाई के साथ रीवा की ओर प्रस्थान किया। रीवा राजा अजीतसिंह (1755-1809 ई.) ने शहजादा अलीगौहर के रीवा आने की सूचना पाकर अपने दीवान लाला चैनसुख को शहजादा की सेवा में भेजा और स्वयं मनगवाँ तक उसकी अगवानी करने गया। अलीगौहर अपनी गर्भवती बेगमं 'मुबारक महल' के साथ अमहिया (रीवा) में ठहरकर बरसात व्यतीत किया। बरसात बाद वह अक्टूबर 1759 ई. में अपनी गर्भवती बेगम को अजीतसिंह की सुरक्षा में छोड़कर बक्सर, (बिहार) चला गया। अजीतसिंह ने बेगम को रीवा से 10 मील दक्षिण स्थित मुकुन्दपुर की गढ़ी में सुरक्षा व्यवस्था के साथ ठहरा दिया और मौजा मुकुन्दपुर की आमदनी उसके (बेगम) खर्च में लगा दी। 1759 ई. में इसी गढ़ी में बेगम लालबाई से अकबर द्वितीय पैदा हुआ।
- लगभग साढ़े पाँच माह तक बेगम अपने नवजात शिशु के साथ मुकुन्दपुर की गढ़ी में निवास की। इस दौरान जच्चे और बच्चे की चिकित्सा हेतु रीवा राजा ने अपने राजवैद्य जगेश्वरैराय के पुत्र सरबसुख को मुकुन्दपुर में नियुक्त किया। सरबसुख ने सोबरी में बेगम और शिशु की चिकित्सा बड़ी सतर्कता के साथ की, परन्तु इसका बख्शीश (पुरस्कार) मुगल बादशाह की तरफ से उसको नहीं दिया गया। इसलिए जिस समय (1765-66 ई.) मुगल बादशाह पेंशनर के रूप में इलाहाबाद के किले में रह रहा था, उसी समय सरबसुख ने इलाहाबाद जाकर बादशाह शाहआलम द्वितीय से उक्त चिकित्सा का बख्शीश माँगी। अतः बादशाह के आदेश पर शहजादा अकबर द्वितीय ने सरबसुख को इलाहाबाद-सूबा के अन्तर्गत (सरकार कोड़ा) स्थित मौज़ा 'अकारी' का फरमान दिया।
- जब शाहआलम बिहार से वापस इलाहाबाद लौटा, तब उसने अपनी बेगंम और बच्चे को रीवा से बुलवाया। अतः राजा अजीतसिंह स्वयं उनको लेकर इलाहाबाद पहुँचा और वहाँ से शाहआलम के कहने पर उसके साथ दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। जाजमऊ (जिला कानपुर) पहुँचने पर अजीतसिंह ने शाहआलम से विदा लेकर जब रीवा वापस होने लगा, तब उसने अपने दो बघेल सरदारों को आदेश दिया कि वे बादशाह शाहआलम के साथ दिल्ली जाकर उसे तख्त पर बैठाने में सहायता करें और उसके बाद बादशाह से अनुमति लेकर ही रीवा वापस हों। अतः अजीतसिंह के इन उपकारों से प्रसन्न होकर शाहआलम ने चौखण्डी (जिला-रीवा) परगना रीवा दरबार को प्रदान किया था ।
- शाहआलम और शहजादा अकबर द्वितीय के दुवारा रीवा आने का उल्लेख तो मिलता है, लेकिन मौजा मुकुन्दपुर, जो अकबर द्वितीय और उसकी माँ बेगम लालबाई को राजा अजीतसिंह ने गुजारे में दिया था, की जमा (लगान) प्रतिवर्ष मुंगल सम्राट के पास रीवा राजा द्वारा भिजवायी जाती रही। बीच में कभी यहाँ की जमा रीवा दरबार द्वारा मुगलों के यहाँ भिजवाना बन्द कर दी गई थी, इसीलिए बहादुरशाह द्वितीय ने 1857 के विद्रोह से पूर्व अपनी आर्थिक परेशानी के कारण ब्रिटिश गवर्नर जनरल को पत्र लिखकर निवेदन किया था कि वह रीवा राजा रघुराजसिंह (1854-80 ई.) से कहकर मुकुन्दपुर की 'जमा' मेरे पास भिजवाये। अतः गवर्नर जनरल के कहने पर रघुराज सिंह द्वारा मुकुन्दपुर की जमा बाँकेसिंह सकत्तर के हाथों पुनः भिजवायी जाने लगी। 'जमा' के साथ रीवा राजघराने से बरी, अचार, खटाई आदि भी भेजी जाती थी, जो बघेलों और मुगलों के पारिवारिक सम्बन्ध को दर्शाता है।
- इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से विदित है कि अपनी दुर्बल और दयनीय दशा में भी बघेल-मुगल एक दूसरे की सहारे की छड़ी बनकर सदियों से चली आ रही मैत्री का निर्वाह करके आगामी पीढ़ियों के लिए सबक के बतौर एक मिसाल पेश की।
बघेल-बुंदेल संघर्ष
सत्रहवीं शताब्दी में रीवा राज्य के पश्चिमी छोर पर बुंदेल सत्ता का उदय हुआ; जो शीघ्रता के साथ उन्नति की ओर अग्रसर हो रही थी। जबकि रीवा की बघेल सत्ता पतनोन्मुख हो रही थी। इसलिए बुंदेलों ने रीवा राज्य को बार-बार प्रभावित किया था, जिसका उल्लेख अग्रलिखित है-
- 1635 ई. में जुझार सिंह बुंदेला ने चौरागढ़ के गोंड़ शासक भीमनारायण को मारकर चौरागढ़-दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अतः शाहजहाँ ने जुझार सिंह से चौरागढ़ की लूट के कुछ हिस्से की माँग की। लेकिन जुझार सिंह हिस्सा देने के बजाय युद्ध के लिए तत्पर हुआ। अतः शाहजहाँ ने उसका दमन करने के लिए मुगल सेना के साथ रीवा राजा अमर सिंह को भेजा। इस संघर्ष में वीरसिंह बुंदेला अपने पुत्र विक्रमाजीत सहित मारा गया था। तभी से बघेलों और बुंदलों के बीच वैमनस्य स्थापित हो गया। बाद में यह वैमनस्य और अधिक तब बढ़ गया, जब 1651 ई. में रीवा राजा अनूपसिंह ने पहाड़सिंह बुंदेला के शत्रु हृदयराम गोंड़ को अपने यहाँ शरण दी। जिसके परिणामस्वरूप पहाड़ सिंह ने हृदयराम का पीछा करते हुए रीवा पर आक्रमण करके उसे अधिकृत कर लिया। इस घटना का उल्लेख पिछले पृष्ठों पर किया जा चुका है।
- 1672 ई. में बुंदेला शासक छत्रसाल ने रीवा राज्य के मैहर इलाके पर आक्रमण कर दिया। क्योंकि उस समय मैहर का शासक समर सिंह था और उसकी माँ उसकी संरक्षिका बनकर शासन कर रही थी। इससे मैहर इलाके का शासन काफी शिथिल था। दूसरी तरफ रीवा राजा अनूपसिंह स्वयं दुर्बलता की स्थिति में था। जिससे उसके मदद की आशा नहीं थी। बुंदेली सेना ने मैहर गढ़ी का घेरा डाल दिया और 12 दिनों बाद गढ़ी पर कब्जा करके वहाँ के सेनापति माधव सिंह गूजर को बन्दी बना लिया। अतः बघेलों ने विवश होकर बुंदेलों को मुक्ति धन देकर माधव सिंह को मुक्त कराया और 3000 रूपये वार्षिक 'कर' देते रहने का वचन दिया।
- मैहर पर बुंदेलों का दूसरा आक्रमण 1707 ई. में छत्रसाल के पुत्र हृदयशाह के नेतृत्व में हुआ था। इस आक्रमण का मुख्य कारण यह था कि समर सिंह का छोटा भाई हरीसिंह अत्याधिक महत्वाकांक्षी था। वह मैहर की गद्दी अपने बड़े भाई समर सिंह से छीनना चाहता था। अतः इसके लिए उसने छत्रसाल से सहायता प्राप्त करने हेतु अपनी पारिवारिक परम्परा से हटकर छत्रसाल की पुत्री से विवाह कर लिया। अतः समर सिंह ने परम्परा के विपरीत विवाह करने के कारण हरीसिंह की हत्या करवा दी। तब उसकी पत्नी (छत्रसाल की पुत्री) सती हो गयी। इस घटना से कुपित होकर प्रतिशोध की भावना से हृदयशाह बुंदेला ने मैहर पर आक्रमण करके समर सिंह को मार डाला और समस्त पश्चिमी बघेलखण्ड पर अधिकार कर लिया।
- मैहर को विजित करते समय बुंदेलों को बघेलों की शक्ति और संगठन के अभाव का एहसास हो गया था। साथ ही उन्हें रीवा राज्य की अव्यवस्था और अराजकता की भी भनक मिल चुकी थी। इसलिए हृदयशाह बुंदेला को अपना पृथक राज्य बनाने की महत्वाकांक्षा को पूरा करने का अच्छा अवसर मिल गया। अतः उसने 1726 ई. में रीवा पर आक्रमण करके सम्पूर्ण रीवा-राज्य पर अधिकार कर लिया। रीवा राजा अवधूत सिंह (1694-1755 ई.) अपनी माँ के साथ अपने ननिहाल प्रतापगढ़ चला गया और वहाँ से हृदयशाह के आक्रमण का सारा हाल मुगल बादशाह के पास भिजवाया। अतः मुगल बादशाह ने हृदयशाह के विरुद्ध मुहम्मद खाँ बंगश को भेजा। मुगल सेना के आने की खबर सुनकर हृदयशाह ने अपनी कुछ सेना रीवा में छोड़कर पीछे हट गया। हृदयशाह बुंदेला के रीवा से हटते ही उसकी शेष सेना पर रायपुर-कलचुरियान के 46 करचुली सरदारों ने रात्रि में हमला कर दिया और बुंदेली सेना में तबाही मचा दी। दोनों पक्ष में घमासान युद्ध हुआ। अन्त में बुंदेले किसी तरह से अपनी जान बचाकर भाग खड़े हुए।इस युद्ध में जो करचुली वीरगति को प्राप्त हुए थे, उनकी छतरियाँ अभी भी रीवा में मौजूद हैं।
- इस प्रकार बुंदेलों से रीवा खाली करवा लिया गया। लेकिन बिरसिंहपुर (जिला-सतना) तक के पश्चिमी बघेलखण्ड पर हृदयशाह का कब्जा बना रहा। तब से यह क्षेत्र बघेल राजाओं के अधिकार से बाहर ही रहा आया। हृदयशाह ने अपनी विजय स्मृति में एक दरवाजा रीवा के शहरपनाह में बनवाया था, जो 'बुंदेलहा दरवाजा' के नाम से पुकारा जाता था, जिसे बाद में महाराजा रघुराज सिंह (1854-80ई.) ने गिरवा दिया था। बघेलखण्ड के इतिहास में यह घटना 'बुंदेलही लड़ाई' के नाम से प्रसिद्ध है।
- वस्तुतः 17वीं-18वीं शताब्दियों में जहाँ एक ओर बघेलों का पतन प्रारम्भ हुआ, वहीं दूसरी ओर बुंदेलों का उत्थान। इसलिए दोनों के बीच हुए संघर्ष में बुंदेला हावी रहे और बघेलों के सिरदर्द बने रहे। यहाँ पर यह उल्लिखित करना समीचीन होगा कि रीवा राज्य में व्याप्त अराजकता और अव्यवस्था का मूलाधार राजा भावसिंह (1675-1692 ई.) का निःसन्तान होना था। यद्यपि उनके कई पुत्र पैदा हुए, लेकिन कोई जीवित न रहा। इसलिए भावसिंह ने अपने कनिष्ठ भ्राता जसवन्त सिंह (इलाकेदार-गुढ़) के छोटे पुत्र अनिरूद्ध सिंह (जन्म 1676 ई.) को गोद लेकर अपने जीवनकाल में ही 1692 ई. में उसका राज्याभिषेक कर दिया। अनिरूद्ध सिंह का बड़ा भाई मुकुन्द सिंह बहुत उद्दण्ड था। इसलिए भावसिंह ने उसे गोद नहीं लिया। मुकुन्द सिंह ने इस व्यवस्था का विरोध किया और रीवा-दरबार के आदेशों की अवहेलना करने लगा। उसकी देखादेखी अन्य इलाकेदार भी मनमानी करने लगे। जिससे रीवा राज्य में सर्वत्र अराजकता और अशांति की स्थिति निर्मित हो गयीं, जिसका लाभ उठाकर हृदयशाह बुंदेला ने आक्रमण किया था।
- हृदयराम सुरकी और अवधूत सिंह दोनो घनिष्ट मित्र थे। जब 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बुंदेलों द्वारा इन दोनो के राज्यों को अधिकृत कर लिया गया; तब इन्होंने संयुक्त रूप से मुगल सम्राट और प्रतापगढ़ के राजा की सहायता से अपना-अपना राज्य प्राप्त करने का सफल प्रयास किया था। जिसका विस्तृत विवरण कवि भूषण ने अपने ग्रन्थों 'शिवराज भूषण' और 'शिव बावनी' में दिया है। साथ ही लालकवि ने भी अपने ग्रन्थ 'छत्रप्रकाश' में अवधूत सिंह और हृदयराम के संयुक्त अभियान का उल्लेख किया है। रीवा राजा अवधूत सिंह ने उक्त विजयोत्सव के समय हृदयराम सुरकी को गहोरा परगना के 1043 गाँव की जागीर सनद के साथ प्रदान की थी। इस जागीर पर सुरकी-शासक रीवा राजा अजीत सिंह (1755-1809 ई.) के समय तक काबिज बने रहे। इसके बाद हृदयराम की चौथी पीढ़ी के रामसिंह देव को बाँदा-नवाब समशेर बहादुर द्वारा पराजित कर समस्त तरौंहा और गहोरा परगना को विजित कर लिया गया। तब रामसिंह देव अपने पुत्र फतहबहादुर सिंह के सहित भागकर अजीत सिंह की शरण में रीवा आ गया। 45 अतः अजीत सिंह ने इन्हें पटेहरा और पड़री नामक गाँव गुजारे में दे दिया; जहाँ पर इनके वंशज वर्तमान् में भी मौजूद हैं।
- इस प्रकार स्पष्ट है कि बघेलों और सुरकियों में प्रगाढ़ मैत्री थी। सुरकियों के प्रति बघेलों में हमदर्दी थी। यें लोग आपत्तिकाल में सुरकियों के संरक्षक थे।
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