बघेल राजतंत्र के प्रमुख अंग |Major organs of Baghel monarchy
बघेल राजतंत्र के प्रमुख अंग
बघेल राजतंत्र के प्रमुख अंग
(1) राजा
- राज्य की सम्पूर्ण शक्ति राजा के हाथों में केन्द्रित थी। वह कार्यकारी, विधायी और न्यायिक क्षेत्र में सर्वेसर्वा था। उसको सभासदों (मंत्रियों) एवं अधिकारियों को नियुक्त करने या पदच्युत करने का अधिकार था। लेकिन नीति निर्धारण एवं प्रशासन सम्बंधी महत्वपूर्ण विषयों के सम्बंध में विचार-विमर्श करने के लिए मंत्रणा कक्ष में अपने सभासदों के बीच बैठता था। ताकि वे भय रहित होकर स्वतंत्रतापूर्वक चर्चा में भागीदार बनकर अपने विचार व्यक्त कर सकें। खास बात यह है कि मंत्रणाएँ गुप्त रखी जाती थीं.
(2) राजसभा
- राजसभा के सभासदों में अमात्य, सचिव, मंत्री, राजपुरोहित और राजवैद्य थे। अमात्य वित्त विभाग से और सचिव गृह विभाग से सम्बंधित होते थे। लेकिन मंत्री कई होते थे, जो विभिन्न विभागों के पृथक-पृथक प्रभारी होते थे। ताकि प्रशासन सुचारू रूप से संचालित हो सके। राजवैद्य और राज पुरोहित क्रमशः स्वास्थ्य एवं धर्म सम्बंधी कार्यों को सम्पादित करते थे। साथ ही सभी सभासद महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने के लिए राजा के साथ विचार-विमर्श करके अपने सुझाव भी देते थे।वस्तुतः राजसभा बघेलों के प्रशासन की प्रमुख इकाई थी।
(3) राजकीय कर्मचारी
- वीरभानूदय काव्यम् में राजकीय कर्मचारियों के बारे में स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। केवल सामूहिक रूप से 'नियोगी' और भृत्य का उल्लेख मिलता है। ये कर्मचारी योग्य तथा राजभक्त होते थे। ये अपने राज्य और राजा के प्रति निष्ठावान होते थे। कुशल कर्मचारियों को सम्मानित किया जाता था और विलासी एवं भ्रष्ट कर्मचारियों को दण्डित किया जाता था।
(4) सेना और सैन्य व्यवस्था
राज्य की सुरक्षा और उसके विस्तार के लिए बघेल राजाओं ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया था, जो प्राचीन सैन्य प्रणाली पर आधारित थी।
(i) सेना के अंग
- इस राज्य की सेना में पैदल, अश्वारोही और गजारोही सैनिक होते थे। रसद सामग्री और युद्ध सामग्री को ढोने के लिए ऊँटों का भी दल होता था। इनमें अश्वारोही सेना को विशिष्ट स्थान प्राप्त था। युद्ध काल में राज्य के सभी सामन्तों की सेनाओं का भी उपयोग किया जाता था .
(ii) अस्त्र-शस्त्र
- यहाँ के सैनिकों का मुख्य हथियार धनुष-बाण था। इसके अतिरिक्त तलवार, भाला, बल्लम, फरसा, बिछुआ, भुजाली और ढाल थी।
(iii) सैन्य प्रशिक्षण एवं रणनीति
- बांधव-राज्य की सेना में सैनिकों के साथ-साथ घोड़ों और हाथियों को भी प्रशिक्षित किया जाता था।61 रणभूमि में युद्ध का संचालन स्वयं राजा करता था, ताकि सैनिकों के मनोबल और उत्साह में वृद्धि हो सके। युद्ध आमने-सामने गुत्थम-गुत्था के रूप में होता था। सैनिक-शिविरों में सैनिकों के मनोरंजन एवं स्फूर्ति के लिए नृत्यांगनाएँ एवं वारांगनाएँ भी रहती थीं। इनके अतिरिक्त नगाड़ा, ढ़ोल, मृदंग, शहनाई, शंख इत्यादि वाद्य यंत्रों को भी सैनिक अभियानों में ले जाया जाता था; जिन्हें बजाकर सैनिकों के जोश को बढ़ाया जाता था। साथ ही सैनिक शिविरों में नाचने-गाने एवं मनोरंजन के लिए भी इनका प्रयोग किया जाता था।
(iv) दुर्ग
मध्यकाल में दुर्गों का बहुत महत्व था। इनसे कई उद्देश्यों की पूर्ति होती थी। इनका उपयोग राजपरिवार और सेना के निवास हेतु तथा धन की सुरक्षा एवं खाद्यान्न व अस्त्र-शस्त्रों के संग्रह हेतु किया जाता था। दुर्गों की देखभाल के लिए दुर्ग-रक्षक दल होता था । 62
- बघेल नरेशों के पास बांधवगढ़ का अभेद्य दुर्ग था। जो बान्धू नामक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। इसके तीन तरफ दलदल था और सिर्फ एक तरफ ढालदार रास्ता था। जब शत्रु सेना ऊपर चढ़कर आधे रास्ते पर पहुँचती थी, तब ऊपर से बड़े-बड़े बेलनाकार पत्थरों को लुढ़का दिया जाता था। जिससे शत्रु सेना घायल होकर वापस लौटने के लिए विवश हो जाती थी। इस दुर्ग पर सिर्फ अकबर 1597 ई. में अधिकार कर पाया था, वह भी कूटनीति, छल और विश्वासघात के द्वारा ... । वास्तव में बांधवगढ़ दुर्ग बघेल राजाओं का सुरक्षा कवच था।
(5) गुप्तचर-व्यवस्था
- बघेल-राज्य में गुप्तचरों की भी नियुक्ति की जाती थी। ये दो प्रकार के होते थे; एक, आन्तरिक गुप्तचर और दूसरे, बाह्य गुप्तचर। आन्तरिक गुप्तचर राज्य की सीमा के अन्तर्गत सूचनाएँ एकत्रित करके राजा के पास भेजते थे। जबकि बाह्य गुप्तचर राज्य की सीमा के बाहर दूसरे राज्यों में रखे जाते थे, जो शत्रु राज्यों की गतिविधियों पर अपनी दृष्टि रखते थे और आवश्यक सूचनाएँ अपने राजा के पास पहुँचाते रहते थे। इस तरह की गुप्तचर-व्यवस्था से राज्य के अन्दर और बाहर शत्रु राज्यों के षड़यंत्रों एवं आक्रमणों की जानकारी समय-समय पर मिलने से राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था हमेशा चुस्त-दुरुस्त बनी रहती थी।
(6) न्याय एवं दण्ड व्यवस्था
बघेल शासक प्रायः सभी न्यायप्रिय थे। वे स्वयं न्याय करते थे। न्याय करते समय वे विधिवेत्ताओं की उपस्थिति में वादी प्रतिवादी दोनों की बातें सुनते थे और विधिवेत्ताओं के सहयोग से निर्णय करते थे। धार्मिक विवादों का निर्णय राजा स्वयं करता था । 63
- अपराधियों को उनके अपराध के अनुसार दण्डित किया जाता था। रिश्वत लेने वाले कर्मचारियों को पदच्युत करके उनकी सम्पत्ति राजसात कर ली जाती थी। इसी तरह अन्यायी और उद्दण्ड सामन्तों की भूमि एवं धन छीनकर उन्हें इलाके से बेदखल कर दिया जाता था। छोटे-मोटे अपराधियों पर जुर्माना निश्चित किया जाता था। लेकिन राज्य पर आक्रमण करने वाले बाह्य शत्रुओं को फाँसी दी जाती थी, ताकि दूसरे शत्रु इस राज्य पर आक्रमण करने का दुस्साहस न करें .
- संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि राज्य के अपराधियों को सामान्यतः अर्थदण्ड ही दिया जाता था और बाह्य शत्रुओं को मृत्युदण्ड।
(7) वित्त व्यवस्था
- बघेल राजाओं की वित्त व्यवस्था बहुत सन्तुलित थी। आय के अनुसार ही व्यय किया जाता था।
- अर्थात् आय-व्यय में पूर्ण संतुलन रखा जाता था। राजा लोग प्रतिदिन आय-व्यय के लेखा-जोखा का निरीक्षण करते थे और फिर वित्त विशेषज्ञों से उसका परीक्षण करवाकर 'बही खाता' तैयार करवाते थे। राज्य का अनुमानित वार्षिक बजट भी बनाया जाता था। बघेल नरेश देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण को अपरिहार्य मानते थे। इनके अतिरिक्त अन्य ऋणों को लेने की इच्छा ही नहीं करते थे।
(i) राजकोष
- बघेल शासक अपने राजकोष को उचित साधनों के माध्यम से सम्पन्न और समृद्ध बनाने के लिए प्रयासरत् रहते थे। क्योंकि उनका मानना था कि सम्पन्न राजकोष और निष्पक्ष दण्ड व्यवस्था के द्वारा ही राजा की प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है। कोष की सम्पत्ति का हिसाब बही खाता में अंकित करवाकर तहखाने में जमीन के अन्दर गाड़कर सुरक्षित रखा जाता था।
(ii) आय के प्रमुख साधन
- बघेल राज्य की आय के प्रमुख साधनों में लगान मुख्य स्रोत था, जो उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। इसके अतिरिक्त करद राजाओं से प्राप्त 'कर' से भी राज्य की आय में वृद्धि की जाती थी। यहाँ की खदानों को वीरभानूदय काव्यम् का लेखक कामधेनु की संज्ञा से सम्बोधित करता है। इस क्षेत्र के हाथी अच्छी नस्ल के माने जाते थे, इसलिए मध्यकाल में बांधवगढ़ में हाथियों की एक बड़ी मण्डी थी। अतएव हाथियों के व्यापार से भी राज्य की आय में वृद्धि होती थी। साथ ही राज्य की ओर से बाजारों का निर्माण करवाया जाता था और वणिकों को राजकोष से आर्थिक सहायता प्रदान की जाती थी। जिससे व्यापार के समुन्नत होने पर राज्य की आय में भी वृद्धि होती थी। इनके अलावा अर्थदण्ड और जुर्माना भी आय के साधन थे ।इस प्रकार बघेल शासकों की वित्त व्यवस्था पूर्णतया संतुलित एवं व्यवस्थित थी। प्रजा पर 'कर' का बोझ नहीं था, क्योंकि बघेल नरेश अपनी प्रजा के साथ पुत्रवत व्यवहार करते थे।
(8) ग्राम व्यवस्था
- प्रत्येक गाँव में एक चौकीदार होता था; जो बल्लम लेकर रात के समय सीटी बजाते हुए गाँव में गश्त लगाता था। ग्रामीण विवादों का निपटारा स्थानीय स्तर पर गठित पंचायतों द्वारा किया जाता था। कुछ निम्न जातियों में जातीय पंचायतें होती थीं; जिनके द्वारा जातीय विवादों का निर्णय किया जाता था। ग्रामीण स्तर पर दण्ड-व्यवस्था के अन्तर्गत सामान्य तौर पर अर्थदण्ड ही दिया जाता था। अंतिम अपील सीधे राजा के पास की जाती थी।
- निष्कर्ष यह है कि बघेल नरेश धर्मनिष्ठ और न्यायप्रिय थे। इनकी प्रशासनिक व्यवस्था धर्मशास्त्रों एवं नीतिशास्त्रों के अनुरूप थी। इसलिए यहाँ की प्रजा में ये देवतुल्य मान्य थे।
बघेल राजतंत्र के- सामाजिक परिवेश
- मध्यकाल में बघेलखण्ड की अधिकांश जनता हिन्दू थी। यहाँ के समाज में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप जाति प्रथा में परिवर्तित और परिवर्धित हो गया था। समाज में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोपरि थी। वे ज्योतिष और वेदों के ज्ञाता थे तथा जन्म, विवाह, अभिषेक एवं संस्कारों के कृत्यों में पुरोहित का कार्य करते थे। ये मंत्री एवं राजपुरोहित के पदों पर भी नियुक्त किये जाते थे। प्रत्येक वर्ग इनको 'पायलागी' कहकर प्रणाम करता था। ब्राह्मण लोग परस्पर मिलने पर 'पलागो' कहकर एक दूसरे का अभिवादन करते थे .
- यहाँ के अधिकांश ब्राह्मण गरीबी से जीवनयापन करते थे, लेकिन इसके बावजूद भी ये स्वभाव से बहुत जिद्दी और क्रोधी होते थे। अपने इसी स्वभाव के कारण ये आत्महत्या कर लेने में भी नहीं हिचकिचाते थे। इसलिए समाज का हर वर्ग, यहाँ तक कि राजा लोग भी इनसे डरते थे और सदा इनका सम्मान करते थे। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार राजा भैद्यचन्द्र के शासनकाल (1470-95 ई.) में कुम्हरा ग्राम (सेमरिया, जिला रीवा ) का एक ब्राह्मण, जिसका नाम बिसामन था ने राजा भैद्यचन्द्र के ऊपर कुपित होकर आत्महत्या कर ली। क्योंकि राजा के ऊँट वालों ने उस ब्राह्मण के पीपल के पत्तों को काट लिया था। मरणोपरान्त वह ब्राह्मण 'बिसामन-बरम' के नाम से उत्पन्न होकर राजा के परिवार को सताने लगा। अतः अंत में राजा ने परेशान होकर बिसामन-बरम की इच्छानुसार कुम्हरा में उसके चौरे का निर्माण करवाकर प्रतिवर्ष उसे पूजा देनी शुरू की, तब जाकर राजा और उसके परिवार को राहत मिली। भैद्यचन्द्र का पुत्र सालिवाहन उस बरमदेव को बिसामन मामा कहता था। इसलिए बघेलखण्ड में वह बिसामन मामा के नाम से पुकारा जाने लगा। आज भी उसके चौरा में लोग अपनी मन्नतें लेकर जाते हैं; जो पूरी होती हैं।
- ब्राह्मणों के बाद समाज में क्षत्रियों को स्थान प्राप्त था। ये लोग युद्ध प्रिय और संघर्षशील होते थे। इनमें अपार साहस, वीरता और पराक्रम होता था। इन्हें शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा दिलायी जाती थी। ताकि प्रशासन तथा रणक्षेत्र में बल, बुद्धि और कूटनीति का सफल प्रयोग कर सकें। अपने इन्हीं गुणों के कारण ही बघेल राजाओं को कभी भी किसी केन्द्रीय सत्ता को 'कर' नहीं देना पड़ा और हमेशा स्वतंत्र सत्ता के अधिकारी बने रहे; जिसका विस्तृत विवरण पीछे उल्लिखित किया गया है। यह वर्ग शिकार का बहुत शौकीन था। मनोरंजन के रूप में भी ये शिकार खेलते थे। शिकार के लिए जंगलों में 'हाँका' का भी प्रयोग करते थे।
- ब्राह्मणों की भाँति में लोग भी यज्ञोपवीत धारण करते थे और पूजा-पाठ एवं यज्ञ भी करवाते थे। सैनिक कार्यों के अतिरिक्त कृषि एवं पशुपालन भी करते थे। इस वर्ग के लोग भी सामान्य रूप से गरीबी का ही जीवन जीते थे।
- यहाँ के राजाओं सहित पूरे क्षत्रिय समाज पर कबीर पंथ का व्यापक प्रभाव था। इसलिए यहाँ के क्षत्रिय परस्पर मिलने पर 'साहब सलाम' कहकर एक-दूसरे का अभिवादन करते थे। 'साहब सलाम' कबीर-पंथ से सम्बन्धित है; जो वर्तमान में भी यहाँ के क्षत्रिय समाज में प्रचलित है। यहाँ ऐसी मान्यता है कि राजा भैदचन्द्र के शासनकाल में सन्त कबीर बांधवगढ़ आये थे। तभी से बघेलखण्ड पर कबीर के विचारों का प्रभाव पड़ा था।" बांधवगढ़ में निर्मित कबीर-चौरा के अवशेष आज भी विद्द्मान हैं।
- क्षत्रियों के बाद समाज में वैश्यों का दर्जा था। ये लोग भी यज्ञोपवीत धारण करते थे। इनका मुख्य व्यवसाय वाणिज्य-व्यापार था। बड़े व्यापारियों को सेठ या साहूकार भी कहा जाता था। समाज में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। क्योंकि ये लोगों को आवश्यकता पड़ने पर उधारी (ऋण) दिया करते थे। यहाँ तक कि राजा और इलाकेदार (सामन्त) भी इनसे कर्ज लेते थे; लेकिन जबरा (शक्ति सम्पन्न) होने के कारण वे पूरा कर्ज कभी वापस नहीं करते थे। अर्थात् वैश्य लोग शासक वर्ग से शोषित थे।
- द्विजेतर जातियों के लोग ब्राह्मणों के अनुसार आचरण करते थे। कुछ लोग यज्ञोपवीत भी धारण करते थे। शबर, कवंर, किरात, कोल, गोंड़, बैगा इत्यादि आदिवासी आखेट प्रेमी होते थे। इसलिए धनुष, भाला, बल्लम आदि अस्त्र-शस्त्र धारण करते थे और आखेट के समय अपने राजा के सहायक होते थे। ये ज्यादातर तरिहार और उपरिहार के बजाय पहार-डहार (वर्तमान शहडोल सम्भाग एवं सीधी जिला) में पाये जाते रहे हैं। ये प्रायः अशिक्षित तथा भोले होते थे।
- मध्यकालीन भारतीय समाज की भाँति यहाँ के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ग में भी विभिन्न जातियों का प्रादुर्भाव हो गया था; जिससे यहाँ का समाज भी ऊँच-नीच, छुआछूत जैसी कुभावनाओं से ग्रसित हो गया था।
(1) रहन-सहन और वेशभूषा
- सामान्यतः यहाँ के निवासी कच्चे मकानों में रहते थे। राजा लोग किला में और इलाकेदार गढ़ी या महलों में निवास करते थे। सर्वहारा वर्ग आदिवासी, मजदूर घास-फूस की झोपड़ियों में रहते थे। आमतौर पर आम जनता धोती (परदनी) एवं बण्डी पहनती थी और स्त्रियाँ सिर्फ धोती पहनती थीं। मध्यम वर्ग की ही कुछ स्त्रियाँ ब्लाउज और साया (पेटीकोट) पहनती थीं। आदिवासी लोगों के वस्त्र काले होते थे। ये लोग सिर पर महुए की मन्जरी धारण करते थे और कटि के नीचे लँगोटी पहनते थे, अन्यथा सर्वथा नग्न रहते थे। आदिवासी स्त्रियाँ धोती पहनती थीं। राजाओं की पोशाक में रेशमी वस्त्र, रत्न जड़ित साफा, कुण्डल, मोतियों के हार, अँगूठी, केयूर, मणिमय कंकण, भद्रासन पर माला, धूप, चन्दन और अंगराग थे। किन्तु सत्रहवीं शताब्दी से इनकी पोशाक मुगल सभ्यता से प्रभावित हो गयी। तब ये लोग उपन्ना-जामा नामक लम्बी कोट, धोती, कुरथा, अँगोछी और साफा धारण करने लगे थे।
- सम्पन्न घरानों की स्त्रियाँ सोने, चाँदी के रत्न जड़ित आभूषण धारण करती थीं, जबकि गरीब और निम्न वर्ग की. स्त्रियाँ गिलट, ताँबा, लाख आदि के आभूषण पहनती थीं। वे श्रृंगार के बतौर अपने शरीर के विभिन्न अंगों को गोदवाती थीं।
(2) खान-पान
- मध्यकाल में बघेलखण्ड के निवासी शाकाहारी और माँसाहारी दोनों थे। यहाँ के खान-पान के अन्तर्गत लोग चावल, दाल, रोटी, चौंसेला, सब्जी-भाजी, दलिया और त्योहारों में पूड़ी, तसमई, खीर, कढ़ी, रसाज, रिकमछ, इन्दरहर आदि प्रकार के सालनो (व्यंजनों) का इस्तेमाल करते थे। गरीब लोग सामान्य रूप से मोटे अनाजों जैसे-ज्वार, बाजरा जौ, मक्का, सामा, कुटकी, कोदव इत्यादि खाते थे। क्षत्रिय और द्विजेतर जातियाँ शिकार की भी शौकीन थीं। यहाँ के ग्रामीण लोग महुआ का खाद्य-सामग्री के रूप में विशेष प्रकार से उपयोग करते थे। महुआ से डोभरी, लाटा, ढूँढ़ी, कतरा, फरा आदि कई प्रकार के व्यंजन बनाये जाते थे। महुआ के फल (डोरी) से तेल निकाला जाता था, जिसका 'वात' की दवा के रूप में उपयोग किया जाता था। निम्न जाति के लोग डोरी के तेल से पूड़ी इत्यादि भी तलते थे। वैसे तो यहाँ तेल उत्पादन के लिए सरसों, राई, तिल, अलसी, तथा सेंहुँआ की खेती की जाती थी। जिनमें तिल के तेल को मीठा तेल और सरसों-राई के तेल को कडू का तेल कहा जाता था। डोरी, अलसी और सेंहुँआ के तेलों को प्रकाश के वास्ते दीपक जलाने के लिए ज्यादातर उपयोग किया जाता था।
(3) स्त्रियों की दशा
- मध्यकालीन बघेलखण्ड में पितृसत्तात्मक समाज होने के कारंण अमीर-गरीब सभी लोग पुत्र जन्म की कामना करते थे। पुत्र जन्म पर सोहर गीत गाकर खुशियाँ मनायी जाती थीं। राजा और अमीरों के यहाँ पुत्र जन्म पर तोप और तुपक (बन्दूक) चलायी जाती थीं तथा भोज का आयोजन किया जाता था। लेकिन कन्या जन्म पर किसी को खबर भी नहीं हो पाती थी। अगर किसी स्त्री के कन्या ही कन्या पैदा होती थीं, तो उसे परिवार में अपमानित होना पड़ता था। यहाँ तक कि लोग पुत्रं के लिए दूसरी शादी भी कर लेते थे। प्रत्येक वर्ग के लोग पत्नी पर रुआब जमाने में अपनी शान समझते थे। कुछ लोग तो क्रोध में आकर पत्नी के साथ मारपीट भी करते थे। जबकि पत्नियाँ अपने पति को देवता मानकर उसकी सेवा करती थीं और अपने पति की दीर्घायु के लिए तीजा व्रत भी रखती थीं। यद्यपि धार्मिक कार्यों में पत्नी की उपस्थिति महत्वपूर्ण मानी जाती थी। वे माँ के रूप में पूजनीय थीं। किन्तु यहाँ पर स्त्री शिक्षा के प्रति पूर्ण उदासीनता थी।वास्तव में बघेलखण्ड शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा था। यहाँ की अधिकांश जनता निरक्षर थी।
- यहाँ के समाज में पर्दा प्रथा, बालविवाह और बहुविवाह का भी प्रचलन था। पर्दा प्रथा मात्र अमीर वर्ग तक ही सीमित थी। अमीर घरानों की स्त्रियाँ म्याना या डोला-पालकी में बैठकर यात्रा करती थीं। लेकिन निम्न वर्ग की स्त्रियाँ पूर्ण स्वतंत्रता का उपभोग करती थीं और घर-बाहर का काम करती थीं। बालविवाह यहाँ के ब्राह्मण समाज में और द्विजेतर जातियों में होता था। बसोर जैसी कुछ निम्न जातियों में गर्भावस्था के समय ही विवाह तय कर लिया जाता था। लेकिन समान लिंग के बच्चे पैदा होने पर वैवाहिक समझौता स्वमेव समाप्त हो जाता था। बहुविवाह शासक वर्ग और निम्नवर्ग में होता था। लेकिन निम्न वर्ग एक साथ सिर्फ एक पत्नी रखता था; जबकि शासक वर्ग एक समय में कई पत्नियाँ रखता था। इसलिए अमीर घरानों में विधवाओं की संख्या में वृद्धि हो जाती थी; क्योंकि उस युग में भी यहाँ के समाज में सती प्रथा का प्रचलन सीमित था।"
- अतः उपरोक्त विवरण से विदित होता है कि यहाँ के लोगों को प्राचीन धर्मशास्त्रों और परम्पराओं पर आधारित मापदण्डों को परिवर्तित करने की आवश्यकता का अनुभव नहीं हुआ था। यहाँ की संस्कृति और सभ्यता पर मुस्लिम प्रभाव लगभग नगण्य था। मध्यकाल, जो भारतवर्ष में स्त्री-दासता का युग था, ऐसे काल में यहाँ की स्त्रियाँ स्वतंत्रता का उपभोग करती थीं, फिर भी समाज अंधविश्वासों और रूढ़िवादिता जैसे कुष्ठरोगों से पीड़ित था।
(4) मनोरंजन
- वीरभानूदय काव्यम् से विदित होता है कि बघेलखण्ड में मनोरंजन के साधनों में प्रमुख नृत्य, संगीत, शतरंज, चौपड़, ताश और गंजीफा थे। अन्य मनोरंजनों में आखेट, मल्लयुद्ध, घुड़दौड़ एवं पशु-पक्षियों के युद्ध आदि थे। 16वीं शताब्दी के बाद यहाँ बीरबल के जगत प्रसिद्ध चुटकलों से भी मनोरंजन किया जाने लगा था। ये लोग अपने त्यौहार भी बड़े धूम-धाम से मनातें थे। इनके प्रमुख त्यौहार दशहरा, दीवाली, होली, रक्षाबन्धन आदि थे।
आर्थिक जीवन
बघेलखण्ड की आर्थिक दशा सामान्य थी। यहाँ के आर्थिक साधनों में मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन और वन थे। इनके अलावा लगान, चूँगी, कर, अपराधियों से जुर्माना स्वरूप प्राप्त धन और अन्यायी सामन्तों एवं भृत्यों की भूमि तथा धन छीनकर भी राजकोष की वृद्धि की जाती थी। राज्य में आय-व्यय का संतुलन रखा जाता था। राजा स्वयं आय-व्यय का निरीक्षण करता था। 78 यहाँ की आर्थिक दशा का स्वरूप निम्नानुसार था-
(1) कृषि
मध्यकाल में बघेलखण्ड का मुख्य व्यवसाय कृषि था। यहाँ के अधिकांश निवासी कृषि पर निर्भर थे। लोग सभी उद्यमों में कृषि को उत्तम समझते थे, जैसा कि यहाँ पर एक कहावत आज भी प्रचलित है-
"उत्तम खेती, मध्यम बान; निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।"
कृषि का प्रत्येक कार्य स्वयं अपने हाथों से करने वाला किसान, एक उत्तम कृषक समझा जाता था। इस सम्बन्ध में भी यहाँ एक कहावत प्रचलित है -
"उत्तम खेती जिन हर गहा, मध्यम खेती जिन संग रहा। सांझ सबेरे पूछया, जोत्या कहाँ? बरधा बीज बूड़िगा तहाँ।"
- उपरोक्त कहावत की सच्चाई का उदाहरण यहाँ की कुनबी जाति के लोग हैं, जो सपरिवार अपने खेतों में कार्य करते थे। ये अन्य जाति के किसानों से अधिक खुशहाल थे। यहाँ के कुनबी और लोधी आदिम आबाद किसान माने जाते हैं। प्रत्येक किसान को अपनी उपज का 1/6 भाग राजा को लगान के रूप में देना पड़ता था, दूसरी तरफ राज्य की ओर से कृषि को प्रोत्साहन मिलता था तथा बंजर भूमि को कृषि योग्य भूमि बनाने का प्रयास भी किया था। 79 यहाँ पर मुख्य रूप से दो फसलें होती थी
(ii) उन्हारी
- यह फसल कार्तिक (नवम्बर) में बोयी जाती है और चैत (अप्रैल) में काटी जाती है। इसके अन्तर्गत गेहूँ, चना, मसूर, जौ, मटर, सरसों, अलसी आदि अनाज आते हैं।
- सियारी और उन्हारी फसलों के अतिरिक्त यहाँ पर सब्जियाँ और फूलों का भी उत्पादन किया जाता रहा है। सब्जियों में टमाटर, बैंगन, करेला, लौकी, कुम्हड़ा, गोभी, मैथी, जीरा, धनिया, लहसुन आदि एवं फलों में आम, आमरुद, जामुन, नींबू, अनार, खीरा, ककड़ी, खरबूज, तरबूज, केला इत्यादि की अच्छी फसल होती थी। यहाँ कहीं-कहीं पर गन्ना भी उगाया जाता था।
- बघेलखण्ड के किसान अपने कृषि कार्य को शीघ्र अति शीघ्र प्रारम्भ करना चाहते थे। ताकि फसल पिछड़ने न पाये। इनकी मान्यता थी "तेरह कार्तिक तीन अषाढ़। जो चूकै ते जाँय पहाड़।।" अर्थात् अषाढ़ में तीन दिनों और कार्तिक में तेरह दिनों तक में कृषि कार्य प्रारम्भ कर दिया जाना चाहिये; अन्यथा फसल का उत्पादन अच्छा नहीं होता है। ऐसी स्थिति में जंगल-पहाड़ों पर निर्भर रहना होगा।
- यहाँ पर फसलों की बुवाई नक्षत्रों के आधार पर तय की जाती थी। नक्षत्रों की संख्या दस थी, जिनके नाम आर्दा, पुनर्वस, पुष्य, श्लेषा, मघा, पूरवा, उत्तरा, हथिया, चित्रा और स्वाती है।
- सामान्यतः यहाँ हल-बैल के द्वारा ही खेत की जुताई की जाती थी। किन्तु आदिवासी, गोंड़, बैगा आदि पिछड़ी जातियाँ जमीन को जोतना पाप समझती थीं। अतः वे लोग जंगलों को जलाकर, जंगल की भूमि के एक टुकड़े को साफ कर लेते थे और वर्षा होने पर उस भूमि में बीज डाल देते थे। इस प्रकार की कृषि पद्धति 'डहिया' नाम से जानी जाती थी। डहिया खेती करने वालों के प्रमुख अनाज साँवा और कुटकी थे। चना और गेहूँ की बुवाई चाँणा-बाँसा के द्वारा हल में बाँधकर की जाती थी। यहाँ के किसानों को गोबर की खाद के अतिरिक्त अन्य खादों की जानकारी नहीं थी। कृषि पूर्णरूपेण वर्षा पर आधारित थी। आगे चलकर कुछ लोग ढेकुली के जरिये कुओं से पानी खींचकर अपने खेतों की सिंचाई करने लगे थे।
- पकी हुई फसल की कटाई मजदूरों से करवायी जाती थी। कटाई करने वाले की मजदूरी प्रतिदिन चकौठी (कटी फसल, जिसका वजन लगभग 20-30 किलोग्राम) के रूप में दी जाती थी। जुताई, बुवाई और अन्य कृषि कार्य के लिए मजदूरी प्रतिदिन तीन बनियाही चहुरी (6 पाव) अनाज के रूप में दी जाती थी। इसे 'बनी' कहा जाता था। फसल काटकर खलिहानों में रखी जाती थी। फिर उसे सुखाकर 4 से 8 बैलों के द्वारा उसकी दमरी की जाती थी। इसके पश्चात् ओसौनी (बाँस की टोकरी) से ओसाकर अनाज और भूसा को अलग किया जाता था। साल भर के लिए आवश्यकतानुसार अनाजों को कुठिला, कुठिली, बण्डा आदि में रखकर नीम की पत्तियों के साथ पैक कर दिया जाता था, ताकि उसे घुन, पापा, सूँढ़ी जैसे कीड़े-मकोड़े नुकसान न पहुँचा सकें। शेष अतिरिक्त अनाज को व्यापारियों के हाथ बेच दिया जाता था।
कृषि सम्बन्धी औजार-सामग्री
कृषि के मुख्य औजारों में हल, जुआँ, कोपर (पहटा), चाँणा-बाँसा, खुरपा-खुरपी, हँसिया, फावड़ा-कुदाली, टॅगिया (कुल्हाड़ी) थे। इनके अलावा बाँस से बनी ओसौनी, बिनकारी (टोकरी), भौंकी-भौंका, झउआ आदि का भी उपयोग किया जाता था।
(2) पशुपालन
- कृषि के साथ-साथ यहाँ के निवासी दूध देने वाले और सवारी ढोने वाले जानवर भी पालते थे। दूध देने वाले पशुओं में गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि थे और सवारी ढोने वाले पशु हाथी, घोड़ा, ऊँट, टट्टू आदि थे। अन्य पालतू जानवरों में कुत्ता, बन्दर और सुअर भी थे। कुछ लोग पक्षी पालने के भी शौकीन होते थे, पालतू पक्षियों में प्रमुखतया तोता, मैना, तीतर और मोर थे। इन पालतू पशु-पक्षियों से लोग अनेक लाभ प्राप्त करते थे, जैसे गोबर की खाद, दूध और दूध से बनी कई वस्तुयें, जिन्हें बेचकर - लोग अपनी आर्थिक स्थिति को संतुलित करते थे। भेड़ों से ऊन प्राप्त करते थे, सवारी ढोने वाले पशुओं से यात्रा एवं व्यापार करते थे। सिखाये गये पक्षियों का भी क्रय-विक्रय किया जाता था। पशुओं की खाल से जूते-चप्पल, बैग आदि सामान बनाये जाते थे।
(3) वन
- मध्यकाल में यहाँ के वनों से इमारती एवं जलाऊ लकड़ी, जड़ी बूटियों, कन्दमूल फलों के अतिरिक्त जंगली जानवरों से भी राज्य को लाभ होता था। जंगली जानवरों में बाघ, चीता, भालू, सूअर, हरिण, साँभर, बारहसिंगा, चीतर, लोमड़ी, बाइसन (गौर) इत्यादि थे। यहाँ के जंगल में सफेद शेर पाया जाता था, जिसके लिए बघेलखण्ड सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है। यहाँ के घने जंगलों में जंगली हाथी उन्मुक्त विचरण किया करते थे। इन जंगली जानवरों की खालें ऊँची कीमतों में बेची जाती थी। शेर की चर्बी का तेल बनाकर बेचा जाता था, जो 'वात' की अचूक दवा है। बारहसिंगा के सींग भी दवाई के बतौर उपयोग किये जाते थे। शेर, हिरण और बारहसिंगा के सिर फ्रेम करके कमरों में शोभा के वास्ते लगाए जाते थे। इस प्रकार वनों से राज्य को भारी राजस्व प्राप्त होता था।
(4) उद्योग धंधे
- मध्यकालीन बघेलखण्ड के निवासी उद्योग-धन्धों के बजाय कृषि को विशेष महत्व देते थे, इस कारण यहाँ पर उद्योग-धन्धों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया। फिर भी लोगों को जो चीजें निहायत आवश्यक थीं, उनसे सम्बन्धित उद्योग-धन्धे विकसित हुए, जिनका संक्षिप्त ब्यौरा नीचे दिया जा रहा है युद्ध सामग्री के बतौर 'तीर का फर' सोहागपुर (शहडोल) में और 'फरसा' सिंगरौली (सीधी) में बनाये जाते थे। लोहे के अन्य सामानों में सरौता, चाकू, कुदाल, कुल्हाड़ी और बर्तन बनाये जाते थे। यहाँ के लोहे से बने सामानों में सरौता प्रसिद्ध था। सोने-चाँदी के गहने बनाने में यहाँ के सोनार काफी निपुण थे, अतः यहाँ के बने गहनों की माँग अन्य राज्यों से भी की जाती थी। सस्ती धातु जैसे-पीतल, ताँबा, कसकुट इत्यादि के काम करने वाले कारीगर 'औधिया' कहे जाते थे, जो सस्ती धातु के गहने और बर्तन बनाते थे, जिन्हें गरीब तबके के लोग इस्तेमाल करते थे। यहाँ के जंगलों से लाख आसानी से मिल जाता था, अतः यहाँ पर लाख के गहनों का काफी प्रचलन था, इसीलिए यहाँ का लाख-उद्योग प्रगति पर था। लाख की बनी वस्तुयें बघेलखण्ड के बाहर भी भेजी जाती थीं। लकड़ी की वस्तुओं में प्रमुखतया शतरंज और चौपड़ की गोटियाँ, छड़ी, काष्ठपात्र आदि थे। यहाँ का बना नारियल का हुक्का काफी मशहूर था, जिसे अन्य राज्यों द्वारा भी मँगवाया जाता था। 'गजी' नामक साधारण मोटे कपड़े की बुनाई का कार्य इस क्षेत्र में लम्बे समय से होता रहा। कोरी, जुलाहे, पनिका और लँहगीर लोग कपड़ा बुनने का कार्य किया करते थे। रंगसाजी करने वाले 'रंगरेज' और 'छीपा' कहे जाते थे। यहाँ पर जाजिम, दरी और कालीन की अत्यन्त आकर्षक छपाई की जाती थी।
- वास्तविक रूप से यहाँ के लोग, जो जिस जाति के थे, वे अपनी ही जाति से सम्बन्धित व्यवसाय करते थे। जैसे-नाई बाल काटने का कार्य करता था, धोबी कपड़ा धोने का, दर्जी कपड़ा सिलने का, तेली तेल निकालने का (कोल्हू द्वारा), चर्मकार चमड़े का, कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाने का, बसोर बाँस की वस्तुएँ (टोकरी, पंखा) बनाने का व्यवसाय करते थे । अतः स्पष्ट है कि 18वीं सदी तक बघेलखण्ड में छोटे-छोटे उद्योग-धंधों के अतिरिक्त कोई भी बड़ा कारखाना स्थापित नहीं हुआ था।
(5) व्यापार
- बघेलखण्ड का व्यापार उन्नति पर था। यहाँ के राजाओं द्वारा व्यापार को संरक्षण और प्रोत्साहन दिया जाता था। राजा बाजार लगवाता था। सैनिक शिविरों में राज्य की ओर से बाजार खोले जाते थे, जिसमें विभिन्न राज्यों की बहुमूल्य वस्तुएँ उपलब्ध रहती थीं। अर्थात् राज्य में आन्तरिक व्यापार के साथ, दूसरे राज्यों से भी व्यापारिक सम्बन्ध थे। बघेल राजाओं की दूसरे राज्यों में होने वाली शादियाँ भी बाह्य व्यापार का एक अच्छा माध्यम बन जाया करती थीं। जिनके कारण एक राज्य के व्यापारी दूसरे राज्य में आ-जाकर व्यापार करते थे। इस राज्य में बाहर से आने वाली प्रमुख वस्तुओं में मिट्टी का तेल, चीनी-मिट्टी के बर्तन, कपड़ा, सूत, नमक, चीनी, सुपाड़ी आदि थे और राज्य से बाहर भेजी जाने वाली प्रमुख वस्तुओं में जेल में बनी कालीनें, सरौता, पान, कत्था, हुक्का, काठ के खिलौने, लाख, सुअर, मुर्गी, चमड़ा आदि थे।
- सड़कों के न होने पर, व्यापारी अपने सामान टट्टुओं में लादकर घूम-घूम कर व्यापार करते थे। ऐसे व्यापारी 'लमाना' कहलाते थे। ये लमाना साल में दो बार व्यापार करने आते थे। ये लोग जिस जागीरदार के इलाके में व्यापार करने जाते थे, वह जागीरदार इनसे 'जकात' नामक कर वसूल करता • था और इसके बदले में वह अपने इलाके में लमानों के जान-माल की रक्षा करता था। यहाँ के व्यापारी वर्ग में बनिया, मारवाड़ी और भाटी लोग थे, किन्तु प्रमुख व्यापार और व्यवसायों पर बनियों का ही नियंत्रण था। साहूकारी तथा लेने-देने के व्यवसाय पर उनका पूर्ण एकाधिकार था।
- बघेलखण्ड के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बांधवगढ़, सोहागपुर, मैहर, सतना, रीवा, गहोरा और अरैल थे । बांधवगढ़ में हाथियों का बहुत बड़ा बाज़ार लगता था, जहाँ से हाथी दूसरे राज्यों द्वारा खरीद करके ले जाये जाते थे ।
- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि यहाँ के प्रमुख आर्थिक स्रोत कृषि, पशुपालन और वन थे, जिनसे राज्य को प्रर्याप्त आमदनी होती थी, किन्तु समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता के कारण आम आदमी की दशा अत्यन्त सोचनीय थी, जबकि दूसरी ओर राजा, जागीरदार और उच्च अधिकारीगण शानशौकत तथा आराम की जिन्दगी व्यतीत करते थे।
धार्मिक जीवन
- बघेलखण्ड के समाज में बहुदेववाद की मान्यता थी। यहाँ के राजा और प्रजा दोनों शक्ति, शैव और वैष्णव उपासक थे। सभी बघेल राजा बड़े धर्मात्मा थे। इनका दृष्टिकोण संमन्वयवादी था। ये भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त थे। इसलिए बघेल राजाओं द्वारा जगन्नाथपुरी की यात्रा परम्परागत की जाने लगी थी। राजा भावसिंह (1675-92ई.) ने तीन बार पुरी की यात्रा की थी और वहाँ से मूर्तियाँ लाकर मुकुन्दपुर, रीवा और कोटर में स्थापित भी कीं। भावसिंह ने ही रीवा किला के प्रांगण में मृत्युन्जय नाथ के मंदिर का निर्माण करवाया था, जो आज भी विद्यमान है।
- यहाँ का समाज जादू-टोना, झाड़-फूँक, दिशा-शूल जैसे अंधविश्वासों एवं रूढ़िवादिता से ग्रसित था। देवी की मूर्ति पर जीभ या गर्दन काटकर चढ़ाने में और गंगा में जल समाधि लेने में लोग गौरव की अनुभूति करते थे।
- जादू-टोना और झाड़-फूंक का आदिवासी समाज में कुछ ज्यादा ही प्रकोप था। आदिवासी लोग झाड़-फूंक के द्वारा साँप-बिच्छू के जहर को भी ठीक कर लेने का दावा करते थे। यहाँ तक कि बुखार एवं अन्य बीमारियों को झाड़-फूंक से ठीक करने का प्रयास करते थे। इसके अतिरिक्त आदिवासियों को जंगली जड़ी-बूटियों का भी गहरा ज्ञान था, जिनके द्वारा वे विभिन्न बीमारियों का इलाज स्वयं कर लेते थे। वास्तव में यहाँ की आदिवासी चिकित्सा पद्धति बेमिसाल थी, जो आज के वैज्ञानिक युग में भी यहाँ के आदिवासी समाज में उपयोगी बनी हुई है।
- इस प्रकार स्पष्ट है कि बघेलखण्ड के राजा-रंक सभी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। वे ईश्वर के प्रति आस्थावान थे; किन्तु अन्धविश्वासों एवं रूढ़िवादिता की संकीर्णता में फंसे होने के कारण उनमें ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास का अभाव था।
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