रीवा राज्य और नागपुर के भोंसले | Rewa Rajya aur Nagpur Bhonsle

 रीवा राज्य और नागपुर के भोंसले

रीवा राज्य और नागपुर के भोंसले | Rewa Rajya aur Nagpur Bhonsle

 रीवा राज्य और नागपुर के भोंसले 

  • 1755 ई. में नागपुर के भोंसले राजा राघोजी प्रथम (पेशवा बाजीराव प्रथम का दूसरा पुत्र) ने छत्तीसगढ़ को विजित करके अपने छोटे पुत्र बिम्बाजी को प्रदान किया। बिम्बाजी ने छत्तीसगढ़ में अपना मुख्यालय रतनपुर (जिला बिलासपुर) को बनाया और छत्तीसगढ़ की उत्तर-पश्चिम सीमा से लगे हुए बघेलखण्ड के दक्षिणी प्रदेशों पर अपना प्रभाव जमाने का प्रयास किया। इस समय दक्षिणी बघेलखण्ड में बघेलों के दो प्रमुख ठिकाने (इलाके) थे। पहला सोहागपुर और दूसरा चॅदिया। सोहागपुर (जिला शहडोल) बघेल राजा वीरभानु (1535-55 ई.) के अनुज जमुनीभान के पुत्र रुदप्रताप के वंशजों के अधिकार में था और चंदिया (जिला अनूपपुर) बघेल राजा विक्रमाजीत (1924-40 ई.) के अन्य पुत्र मंगदराय के वंशजों के कब्जे में था। बिम्बाजी ने सोहागपुर के इलाकेदार से 'घास-दाना' (चौथ) की माँग कीलेकिन उसने साफ इन्कार कर दिया। जिसे बिम्बाजी ने अपना अपमान समझा और वह सोहागपुर के शासक से चिढ़ गया। इस प्रकार छत्तीसगढ़ और सोहागपुर के शासकों में परस्पर कटुता उत्पन्न हो गईजो बिम्बाजी की मृत्यु (1787 ई.) के बाद से उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई ।

 

  • बिम्बाजी के बाद छत्तीसगढ़ का राज्याधिकारी नाना साहब हुआ। उसने अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए सोहागपुर के विरुद्ध नागपुर के भोंसला राजा राघोजी को भड़काया। अतएव 1802 ई. में उसने सोहागपुर के तंत्कालिक शासक गोविन्दजीत पर आक्रमण कर दिया और उसे पराजित करके बन्दी बना लिया। लेकिन इसी बीच 1802-03 ई. में मराठेअंग्रेजों के साथ युद्ध में व्यस्त हो गये। फलतः गोविन्दजीत सिंह को मुक्त कर दिया गया।

 

  • इसके बाद गोविन्दजीत सिंह और भोंसलों के बीच अनवरत् संघर्ष जारी रहा। वे दोनों एक दूसरे के प्रदेशों पर आकस्मिक आक्रमण करके लूट-पाट करते रहे। सितम्बर 1805 ई. में नाना साहब ने हैबतराव के नेतृत्व में लगभग दो हजार सैनिकों की एक प्रशिक्षित सेना अमरकंटक के पास स्थापित की और वहाँ से सोहागपुर के सीमावर्ती प्रदेशों पर धावा मारकर लूट-खसोट करने का प्रयास कियालेकिन गोविन्दजीत सिंह ने उसके इस प्रयास को भी विफल कर दिया और उसे अमरकंटक सीमा से खदेड़ दिया ।

 

  • 1807 ई. में रामनगर का इलाकेदार दलगंजन सिंह राजा अजीतसिंह के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोह का कारण यह था कि वह भी सेमरिया वालों की तरह अपने रामनगर-ठाकुर घराने को रीवा-राजघराने से बड़ा समझता थाजबकि उसकी स्थिति सेमरिया वालों जैसी नहीं थीक्योंकि रामनगर वाले राजा भावसिंह (1675-94 ई.) के सबसे छोटे भाई जुझारसिंह के वंशज हैं। चूँकि उस समय रीवा राजा अजीतसिंह की स्थिति काफी कमजोर थी और ऊपर से यहाँ पर पिण्डारियों का खतरा दिनों दिन बढ़ रहा था। इसलिए इस आराजकता की स्थिति और रीवा दरबार की कमजोरी का नाजायज फायदा उठाकर दलगंजन सिंह ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। रीवा दरबार में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह दलगंजन सिंह का दमन कर सकेक्योंकि उसकी रही-सही शक्ति बाँदा-नवाब अली बहादुर के आक्रमणों और अन्य पड़ोसी राजाओं के साथ युद्धों के कारण जाती रही। इसलिए अजीतसिंह ने सोहागपुर- इलाकेदार गोविन्दजीत सिंह (सोहागपुर की 10वीं पुश्त) को विद्रोही दलगंजन सिंह का दमन करने के लिए आदेश दिया। गोविन्दजीत सिंह भी नागपुर के भोसलों से काफी आतंकित था। अतः ऐसी स्थिति में उसने रीवा राजा से अच्छे सम्बन्ध बनाये रखना आवश्यक समझा और रामनगर जाकर दलगंजन सिंह को पराजित करके उसने रामनगर की गढ़ी पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसके सोहागपुर वापस जाते ही दलगंजन सिंह ने फिर से रामनगर की गढ़ी पर अपना कब्जा जमा लिया। ऐसी स्थिति में अजीतसिंह ने पुनः गोविन्दजीत सिंह को रामनगर पर आक्रमण करने को कहापरन्तु इस बार उसने सीधे इन्कार कर दिया। गोविन्दसिंह के इस बर्ताव से रीवा राजा अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और गोविन्दजीत सिंह को सबक सिखाने के लिए उसके विरोधी नागपुर के भोंसले-राजा के पास एक गुप्त संधि का प्रस्ताव अपने वकील सितकंठ दीक्षित के द्वारा भिजवाया। इस संधि की प्रतिजिस पर वकील के दस्तखत हैंरीवा के 'कागजात मोतीमहलके बस्ते में सुरक्षित हैं। 


उस प्रस्ताव में निम्नलिखित प्रमुख शर्तें थीं- 

1. गोविन्दजीत सिंह पर आक्रमण करने के लिए नागपुर का भोंसला शासक अपनी सेना भेजेगा। 

2. इस आक्रमण पर आये सैनिक खर्च का भार रीवा राजा वहन करेगा। 

3. सोहागपुर को विजित करने के पश्चात् प्राप्त सम्पत्ति को दोनों शासकों द्वारा आपस में बाँट लिया जायेगा। 

  • 4. जबलपुर की ओर विजित किये गये क्षेत्र का कुछ हिस्सा रीवा दरबार को दिया जायेगा। नागपुर के भोंसले ने अजीतसिंह के प्रार्थना-प्रस्ताव को स्वीकार कर 3000 घुड़सवारों के साथ नाथूराम हजूरी को सोहागपुर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। नाथूराम हजूरी छत्तीसगढ़ (मण्डला) होते हुए सोहागपुर की सीमा में प्रवेश कर अमरकंटक और उसके आस-पास के गाँवों को उजाड़ता हुआ सोहागपुर आ धमका और वहाँ की गढ़ी का घेरा डाल दिया। इस संकट की घड़ी में गोविन्दजीत सिंह ने रीवा राजा से सहायता माँगीलेकिन उसने अपनी व्यस्तता और राज्य की अव्यवस्थित स्थिति का बहाना बताकर सहयोग करने में आनाकानी की। तब गोविन्दजीत सिंह ने विवश होकर नागपुर के भोंसले की अधीनता स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् नाथूराम हजूरी ने गोविन्दजीत सिंह को बन्दी बनाकर नागपुर भेज दिया और समस्त सोहागपुर पर अधिकार कर लिया। लूट में प्राप्त सम्पत्ति का आधा भाग एक वकील के द्वारा राजा अजीतसिंह के पास भेजा। उस वकील ने सम्पत्ति का कुछ भाग स्वयं हड़प लिया तथा शेष भाग अजीतसिंह को दे दिया। 

 

  • सोहागपुर के साथ-साथ भोंसलों ने 1808 ई. में चंदिया इलाके को भी अपने अधीन कर लिया। उस समय वहाँ का इलाकेदार नरहर सिंह था। नरहर सिंह का पिता महाराजसिंह विलासी प्रवृत्ति का था। वह रीवा दरबार से अपना सम्बन्ध विच्छेद करके अपने आपको पूर्णरूपेण स्वतन्त्र समझने लगा था। चंदिया वालों के इस दुःसाहस से रीवा राजा क्षुब्ध था। जब भोंसलों ने सोहागपुर पर कब्जा कर लियातब उन्होंने घबराकर भोंसलों से स्वयं को बचाने के लिए रीवा दरबार से प्रार्थना की। लेकिन रीवा दरबार ने उसकी प्रार्थना अनसुनी कर दी। अंत में नरहर सिंह ने भोंसले की अधीनता मान ली। भोंसला राजा ने 4000 रूपये वार्षिक मालगुजारी पर चंदिया- कौड़िया और खेतौली (जिला-जबलपुर) का इलाका नरहर सिंह के ही अधिकार में रहने दिया .

 

राजा अजी सिंह और अन्य राज्य 

अजीतसिंह का लखनऊ के नवाबबनारस के राजा और मांडा के गहरवारों के साथ भी संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई थीजिसका संक्षिप्त ब्यौरा निम्नानुसार है -

 

बघेलों की प्रशासनिक व्यवस्था 

मध्यकालीन बघेलखण्ड की सार्वभौम सत्ता बघेलों की थी। इस क्षेत्र के अन्तर्गत जितनी भी छोटी-छोटी रियासतें और ठिकाने थेवे सभी बघेल शासकों के अधीनस्थ थे। इसलिए बघेलों द्वारा स्थापित शासन-प्रणाली पूरे बघेलखण्ड में संचालित थीजिसके स्वरूप को निम्नरूपेण निरूपित किया गया है-

 

प्रशासन का स्वरूप 

  • प्रशासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक होते हुए भी जन-कल्याणकारी था। क्योंकि सभी बघेल नरेश धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इनका प्रशासन पूर्णतः धर्मशास्त्रों और नीतिशास्त्रों पर अधारित था। प्रशासन में राजा की स्थिति सर्वोपरि थी। फिर भी प्रशासन की नीतियों का निर्धारण प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर सभासदों एवं विद्वान व्यक्तियों की सलाह से किया जाता था । 

 

प्रशासन के नीतिगत सिद्धान्त 

राजकीय कार्यों का सम्पादन राज-दरबार द्वारा निश्चित किये गये नीतिगत सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता था। वे नीतिगत सिद्धान्त निम्नलिखित थे - -

 

(1) योग्यतानुसार कार्य-विभाजन का सिद्धान्त 

  • इस सिद्धान्त के अनुसार जो व्यक्ति जिस क्षेत्र में योग्यता रखता थाउसको वही कार्य सौंपा जाता था। जैसे-धर्मशास्त्रों के ज्ञाता को धार्मिक क्षेत्र के कार्यशस्त्र विद्या से पारंगत व्यक्ति को सैन्य क्षेत्र का दायित्व दिया जाता था।

 

(2) प्राथमिकता के अनुसार कार्यों का सम्पादन प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राथमिकता के आधार पर कार्यों को मूर्तरूप दिया जाता था।

 

(3) कार्य सम्पादन में शीघ्रता कार्यों को शीघ्र सम्पन्न करने पर जोर दिया जाता था। ताकि राज्य का विकास भी शीघ्रता के साथ हो सके। 

(4) सामूहिक कार्य पद्धति प्रशासकीय कार्यों को दो या तीन व्यक्तियों के समूह द्वारा करवाया जाना उत्तम माना जाता था। क्योंकि अकेला व्यक्ति अस्वस्थ होने या अन्य कारणोंवश कार्य को समय सीमा में गुणवत्ता के साथ पूर्ण करने की स्थिति में नहीं होता। 

(5) कार्य को पूर्णता की स्थिति में पहुँचाना : किसी भी कार्य को पूर्ण करने पर ही वह फलीभूत होता है। इसलिए अधूरा कार्य छोड़ने पर दण्ड का प्रावधान था। 

(6) जन-कल्याणकारी कार्यों को विशेष महत्व देना:- प्रजा-हित के कार्यों को प्राथमिकता के साथ सम्पन्न करवाने के लिए उत्तम कुल में पैदा हुए योग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था। ताकि कार्य गुणवत्तापूर्ण हो।

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