छत्रपति शाहू के साथ नीरा नदी तक बाजीराव आया व
शाहू के दक्षिण लौटने पर पिलाजी जाधव, गोविंद
बल्लाल, तुकोजी पवार व देवाजी सोमवंशी के साथ 14 हजार पैदल व दस से बीस हजार तक घुड़सवार के
साथ वाशिम पहुँचकर बुंदेलखण्ड की ओर कूच किया व कलंब, बोरी होता हुआ देवगढ़ पहुँचा।"
इधर 1728 ई.
में मोहम्मद खान बंगश ने जैतपुर पर विजय प्राप्त कर ली। अतः छत्रसाल हिरदेस, लक्ष्मणसिंह को बंगश के सम्मुख समर्पण करना
पड़ा और मुगलों से संधि कर उसने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर अपने प्रदेश में मुगल
सेना रखना स्वीकार कर लिया। बंगश के विरुद्ध दिल्ली दरबार में इर्ष्या का वातावरण
होने से उसे सम्राट से निर्देश प्राप्त नहीं हुआ। छत्रसाल ने अपनी वृद्धावस्था का
लाभ उठाकर फरवरी 1729 ई. में होली त्यौहार मनाने की छूट प्राप्त कर
ली और वह सूरजमहु की ओर (जैतपुर से 7
मील दूर) गया। पेशवा बाजीराव प्रथम ने 23
जनवरी 1729 ई. को देवगढ़ पर आक्रमण कर शासक चाँद सुल्तान
को पराजित कर संधि द्वारा वार्षिक रुपये 65,000 कर प्रदान करने का वचन दिया व उपहार में 1 हाथी व घोड़ा प्रदान किया। बंगश बाजीराव प्रथम
के इतनी शीघ्र गति से बुंदेलखण्ड पहुँचने के प्रति सशंक था। चिमणाजी अप्पा उज्जैन
में था उसकी सेना भी बिखरी थी कुछ लोग अवकाश पर थे अतः वह धन उगाहनें में व्यस्त
था उसके पास मात्र चार हजार की सेना थी।
बाजीराव प्रथम जब गढ़ा पहुँचा तो छत्रसाल के
दूत दुर्गादास ने कुछ काव्य पंक्तियों द्वारा एक माँग फरवरी 1729 ई. में भिजवाई जिसमें कुल सौ दोहे थे तथा उसकी
निम्न पंक्तियाँ प्रसिद्ध हैं जो गति ग्राह गजेन्द्र की सो गत भई है आज बाजी
जात मुन्देल की राखो बाजी लाज पेशवा बाजीराव प्रथम अब चिमणाजी को सहयोग करने
की अपेक्षा तीव्रगति से बुंदेलखण्ड की ओर बढ़ा। विक्रमपुर जाकर उसके द्वारा
राणोंजी घाटगें, संभाजी सूर्यवंशी चिंतामण के साथ छत्रसल को
उत्तर भिजवाया व पहुँचने की सूचना दी। 10
मार्च 1729 ई. को वह राजगाढ़ पहुँचा। महोबा के पास
छत्रसाल के पुत्र भारती चन्द्र ने उसकी अगवानी की व स्थिति से अवगत कराया। अब वह
धामोनी पहुँचा। 10 मार्च को ही छत्रसल से उसकी भेंट हुई जिसने
उसे 80 मोहरें भेंट कीं।
बेजल ने दस हजार घुड़सवार व पैदल एकत्रित किये
स्थानीय तत्व तटस्थ रहे। विरोधी खेमे में सत्तर हजार सेना थी। बंगश चारों ओर से
घेर लिया गया। बंगंश का पुत्र कायमखान तीस हजार की फौज के साथ सहयोग हेतु आया।
कायमखान को रोकने का प्रयास बाजीराव ने सैनिक टुकड़ी भेजकर किया। कायमखान सौ
घुड़सवारों के साथ भाग गया व उसका शिबिर लूट लिया गया। जैतपुर का घेरा डाल दिया
गया था। बंगश के पास रसद समाप्त होने से सैनिक मरने लगे। बंगश ने दिल्ली की ओर
सहायता की याचना की किन्तु व्यर्थ। यद्यपि, सम्राट
द्वारा बक्शी खानदौरान शमशुद्दोला को भेजा परन्तु अनिच्छुक होने से वह बुंदेलखण्ड
नहीं गया। स्वयं सम्राट द्वारा छत्रसाल को बंगश का सर कलम करनें की आज्ञा दी गई। बंगश की दुर्गति व
मराठा शिविर में महामारी फैलने से वर्षा ऋतु की संभावना से शाहू द्वारा बाजीराव को
सातारा लौटने का आदेश दिया गया। 27 मई
1729 को बाजीराव प्रथम बुरहानपुर मकरई होता हुआ
पुणे के लिए प्रस्थान कर 16 जुलाई पुणे पहुँचा।"
बाजीराव प्रथम के आक्रमण से बंगश भयभीत था अतः
कायमखान के आङ्ग्रह पर भी युद्ध नहीं चाहता था। दूसरी ओर, कायम की सेना के बारे में सुनकर छत्रसाल भी
शांत बना रहा मराठों के आगमन व घेराबंदी का व्यापक प्रभाव हो चुका था। अतः दोनों
पक्षों ने संधि कर ली। बंगश ने कालपी के पास यमुना पार कर पलायन किया व कभी
बुंदेलखण्ड पर आक्रमण न करने का वचन दिया।
बुंदेलखण्ड में बाजीराव प्रथम
संकट के समय पेशवा बाजीराव प्रथम द्वारा दी गई
सहायता के बदले की अतः पत्त्ना में दरबार में छत्रसाल ने बाजीराव का सम्मान किया
तथा उसे अपना तीसरा पुत्र मानते हुए वृद्ध छत्रसाल द्वारा राज्य का एक तिहाई भाग
बाजीराव को दिया दिया गया 145 यहीं उसे सुंदर नृत्यांगना मस्तानी प्राप्त
हुई। यह भी माना गया है कि राज्य का बँटवारा करने में हिरदेसा को विलम्ब करने को
कहा गया तथा राज्य की आय डेढ़ करोड़ के स्थान पर एक करोड़ बताई गई। इस एक तिहाई
भाग में यमुना नदी के दक्षिण में सिरोंज से सागर, पश्चिम में ओरछा, दतिया
एवं ग्वालियर, और पूर्व में बघेलखण्ड था।
छत्रसाल की मृत्यु 4 दिसम्बर 1731 ई.
को हुई तब तक मराठों को उनका भांग प्राप्त नहीं हुआ था। शर्तें मनवाने हेतु छत्रसाल की मृत्यु के 2 वर्ष पश्चात् चिमणाजी अप्पा बुंदेलखण्ड आया था
व प्रथमतः राज्य के एक तिहाई भाग के अनुसर कालपी, सागर, झाँसी, सिरोंज, हृदयनेगर, हटा, बाँदा और गढ़ा कोटा सम्मिलित थे। अन्य शर्तें
जो छत्रसाल द्वारा रखी गईं थीं।
दूसरे, अम्बल
व यमुना नदियों के उत्तर में मराठों के अभियान के समय छत्रसाल के दोनों पुत्र
उन्हें सहयोग करेंगे।
15 छत्रसाल ने दो मंत्रियों हरिदास पुरोहित व
आसाराम को इस राज्य विभाजन हेतु पुणे भेजा था कि मध्य में छत्रसाल का निधन हो गया।
कार्य मध्य में व्यवधान आने से रुक गया अतः बाजीराव प्रथम ने मुधोजी हरि को कुछ
सैनिकों के साथ बुंदेलखण्ड भेजा।" बाजीराव भी दोनों भाईयों से बंधुवत प्रेम
करता रहा व छत्रसाल को 'काकाजी साहब' संबोधित किया।
11 नवम्बर 1732 ई.
को चिमणाजी ने बुंदेलखण्ड की ओर प्रस्थान किया व अप्रैल 1733 ई. तक वहाँ पर रुका रहा। उसके साथ गोविन्द
बल्लाल खेर (जो बाद में झाँसी के शासक बने व बाजी भीमराव रेटरेकर) थे। दो माह के
प्रयत्न के बाद गोविंद बल्लाल को पचपन हजार आय का प्रदेश प्राप्त हुआ। चिमणाजी को
हरदेसा से सवा लाख रुपये की आय के प्रदेश व राजगढ़ दुर्ग प्राप्त हुआ। जगतराय के
साथ एक लाख की आय का प्रदेश प्राप्त हुआ।
चिमणाजी अप्पा को दो लाख पचास हजार की आय की
जागीर व रिवराज वसूलने का कार्य गोविंद बल्लाल खेर (गोविंद पंत बुंदेले) को सौंपा
गया।
दिल्ली की केन्द्र सरकार में हड़कम्प मच गया।
मराठों के ओरछा विजय की संभावना बढ़ गई। बंगश मराठों को समाप्त करना चाहता था
परन्तु मुगल शासन के वजीर ने स्वीकार नहीं किया। चिमणाजी अप्पा, पचोरा, गुजरारा, सीपुलोरा, भदावर, गोहद, अहेर
से दिवराज वसूल कर पुणे पहुँचे।
मुधोजी हरि व गोविंद बल्लाल खेर स्थायी रूप से
बुंदेलखण्ड में नियुक्त हो गया, यद्यपि
धन उगाही में उन्हें समस्याएँ आ रही थीं।
Post a Comment