मालवा पर मराठों का नियंत्रण, बंगश से मालवा में संघर्ष
मालवा पर मराठों का नियंत्रण
ये सभी लोग शाहू के राज्य का ही अंत
करने की योजना बना रहे थे। चिमणाजी ने इस संबंध में 10 अक्टूबर 1729 ई. को पत्र द्वारा सूचित किया था कि
उदाजी आधा मालवा अपने लिए चाहता है जो हमारे विचार में ठीक नहीं अतः चिमणाजी ने
आग्रह किया और जैसा कि मल्हारराव होल्कर का भी विचार था, उदाजी के भतीजे तुकोज पवार व आनन्दराव
पवार के नाम सूचित किये गये, जिनकी माँगें सीमित थीं।
इन पत्रों द्वारा यह भी सिद्ध होता है
कि मालवा क्षेत्र में व्यवहारिक तौर पर मराठों की सत्ता स्थापित हो चुकी थी। पेशवा
द्वारा मल्हारराव होल्कर व राणेजी शिंदे को पत्र द्वारा कहा गया कि तेजकरण मंडलोई
इन दोनों को सहयोग दे।" अर्थात् मराठे मालवा में दृढ़ता से स्थापित हो चुके
थे व मुगल सूबेदार बंगश से उनका संघर्ष अनिवार्य था।
अक्टूबर के वर्षा ऋतु के पश्चात् मराठे
मालवा में पुनः सक्रिय हो गये थे। मल्हार राव होल्कर, जो सबसे वरिष्ठ सेनापति था, को चौहत्तर (74) परगने सरंजाम में प्राप्त थे तथा उसे
अपने अधिकारियों की नियुक्ति का भी अधिकार प्राप्त था। पेशवा द्वारा मल्हारराव
होल्कर व राणोंजी शिंदे को 2 दिसम्बर 1730 की अपनी मुद्रा प्रदान की गई कि वह
इसका प्रयोग कर सकते थे। कुसाजी गणेश उज्जैन में वकील नियुक्त
हुआ। अंताजी भाण्केश्वर को भी पुरस्कृत किया गया।
बंगश से मालवा में संघर्ष
बंगश को इस समय मालवा जाने हेतु मुगल
सम्राट का आदेश हुआ। उसने अपनी तीन सैनिक टुकडियाँ क्रमशः सिरोंज, मंदसौर व सारंगपुर के मार्ग पर भिजवाई
वह स्वयं साथौरा गया। 1731 ई. में मराठे पुनः नर्मदा पार कर
शाहजहाँपुर (शाजापुर) तक पहुँचे बंगश सारंगपुर आया। वह उज्जैन व शाजापुर को अधिकार
में कर रहा था। तभी होल्कर धार की ओर बढ़ा। उसका पीछा करते हुए बंगश 14 फरवरी 1731 ई. को धार की ओर बढ़ा।
बंगश ने निजाम से अकबरपुर के नवाघाट
में भेंट की। 17 मार्च से 28 मार्च तक दोनों ने बाजीराव प्रथम के
मराठा दरबार में विरोधी शक्तियों से साँठ-गाँठ करने की योजना बनाई। परन्तु वे सफल
नहीं हो सके। सेनापति त्रंबकराव दाभाड़े की बाजीराव प्रथम के हाथों डभोई में करारी
हार हुई और वह युद्ध में मारा गया।
निजाम को बाजीराव प्रथम के साथ एक
गुप्त संधि पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसके द्वारा मालवांचल में बाजीराव प्रथम को
मुक्तहस्त प्रदान किया गया। उदाजी पवार जो, बाजीराव के विरोधी दाभाड़े व साथियों से मेलजोल बढ़ा रहा था के भाग्य
पर मानों ताले जड़ गये। इस कारण मल्हारराव होल्कर और राणेजी शिंदे का मालवांचल में
शक्तिशाली सरेजामदारों के रूप में उदय हुआ। मालवा में बंगश की सूबेदारी का भी
शीघ्र अंत हुआ क्योंकि मालवा में अब उसकी शक्ति को ग्रहण लग चुका था।
बंगश दोबारा मालवा में सूबेदार बनाकर
भेजा गया किन्तु उसकी सेना में वेतन न मिलने से भयानक असंतोष था। 15 मई 1731 ई. को बंगश उज्जैन से चल पड़ा। नर्मदा से दूर व मराठों के घेराव से
बचने के लिए वह किसी सुरक्षित क्षेत्र की ओर जाना चाहता था। अतः वह सिरोंज की तरफ
गया। उसके द्वारा केन्द्र शासन से धन व सेना की माँग व्यर्थ गई, स्थानीय सहयोग भी प्रांप्त नहीं हुआ।
असहाय होकर उसने नरवर के धनरसिंह पर आक्रमण कर 1731 ई. में शहाबार्द पर अधिकार किया।
जब मुहम्मदखान बंगश छतरसिंह से शर्तें
तय कर रहा था मराठों की विशाल सेना मालवांचल में पुनः प्रविष्ट हुई। एक सेना जिसमें
अस्सी हजार (80,000) सैनिक थे फतेहसिंह भौसले के नेतृत्व
में सिरोंज के निकट किमकसा में पहुँची। दूसरी टुकड़ी चिमणाजी अप्पा व होल्कर के
नेतृत्व में पार्वती व कालीसिंध के मध्य उमेरवाड़ा में बारह हजार (12000) सैनिक थे, तीसरी टुकड़ी सागर के मार्ग से जिसमें 20,000 सैनिक थे।
बंगश के वित्तीय साधन समाप्त हो चुके
थे तथा उसकी जागीर बुंदेलों द्वारा छीन ली गई थी। खानदौरान (वजीर) द्वारा उस पर
मराठों के साथ स्पष्ट नीति न अपनाने व मरातों से भयभीत, होने का आरोप लगाया गया। इन दुखद
परिस्थितियों ने उसे मालवांचल से निकल जानें पर बाध्य किया।
बंगश का दिल्ली की ओर प्रस्थान पश्चिमी
मध्यप्रदेश (मालवा) में मुगल सत्ता को मृत्यु पत्र था क्योंकि अब तक यहाँ मराठा
सत्ता सर्वोपरि बन चुकी थी।
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