मालवा में मराठा शासन द्वारा जारी सनद |उत्तर भारत व मध्यप्रदेश में मराठा आक्रमण | Maratha Shasan in Malwa
मालवा में मराठा शासन द्वारा जारी सनद
मालवा में मराठा शासन द्वारा जारी सनद
- यद्यपि सवाई जयसिंह अक्टूबर 1732 ई. में पुनः मालवा में सूबेदार के रूप में नियुक्त हुआ किन्तु यंह नाममात्र के लिए मुगल सत्ता का प्रदर्शन था। मुगल-मराठा संघर्ष अब अंतिम चरण में पहुँच चुका था। बाजीराव प्रथम पेशवा द्वारा मध्यप्रदेश के पश्चिम भाग पर विधिवत् अधिकार की घोषणा की गई। राणोंजी शिंदे को पूर्व में 1731 ई. में हीं पेशवा ने अपना प्रतिनिधी (मुतालिक) घोषित कर दिया था।
22 जुलाई 1732 ई. को मध्यप्रदेश के इस भाग (मालवा) के अधिकार विभाजून हेतु सनदें जारी की गईं। इस भू-भाग का विभाजन निम्नानुसार किया गया :-
- पेशवा दफ्तर के रेकार्ड के अनुसार सनदों पर सल्ला सलासतीन 10 सफर अर्थात 22 जुलाई 1732 ई. की तिथि अंकित है। इसके अनुसार होल्कर व शिंदे को 5 तक्षिमा व पढ़ार के लिए 21 तक्षिमा। संक्षेप में, विभाजन इस प्रकार से था जो आय की दृष्टि से था। पेशवा 35 प्रतिशत, होल्कर 22 प्रतिशत, शिंदे 22 प्रतिशत, पवारों को 21 प्रतिशत जहाँ तक इस प्रदेश के भू-भाग का प्रश्न है यह विभाजन निम्नानुसार था।
- पेशवा 8.5 प्रतिशत, होल्कर 35 प्रतिशत, शिंदे 35 प्रतिशत व पवार 21 प्रतिशत क्षेत्र (16 प्रतिशत + 5 प्रतिशत)। पेशवा दफ्तर में उपलब्ध रेकॉर्ड्स के अनुसर होल्कर को 29 परगने व अपने अधिकारी जैसे मुतालिक, कमाविसदार, मुजुमदार, फडननिस आदि प्रशासनिक व्यवस्था हेतु नियुक्त करने के अधिकार प्राप्त हुए।
- राणोंजी शिंदे को मुतालकी प्राप्त होने के समय से ही उज्जैन व आसपास के क्षेत्र प्राप्त हो चुके थे।" बाजीराव प्रथम द्वारा आनन्दराव पवार को भी पत्र दिया गया जिस पर 10 सफर अर्थात् 23 जुलाई 1732 ई. की तिथि अंकित है। पवार को लिखे पत्र में लिखे अन्य तथ्य बाजीराव के उद्देश्य की ओर इंगित करते हैं। इस पत्र में राजस्थान (अजमेर), उत्तर भारत (प्रयाग) व मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र (दतिया वोडसे ओरछा) का उल्लेख इन क्षेत्रों पर मराठों के 1732 ई. तक के अधिकार को प्रमाणित करता हैं
उत्तर भारत व मध्यप्रदेश में मराठा आक्रमण
- अंतिम चरण 1732 से 1736 ई. के मध्य मध्यप्रदेश में मुगल प्रशासन पूर्णतः पस्त हो चुका था। प्रशासनिक व्यवस्था संज्ञा शून्य हो चुकी थी। दिसम्बर 1732 ई. में सवाई जयसिंह उज्जैन पहुँचा उसे मराठों को निकाल बाहर करने हेतु 20 लाख रुपये दिये गये परन्तु स्थिति इतनी विकट थी कि उसे दूसरा तरीका अपनाना पड़ा।
- मराठों द्वारा पुनः तीन सैनिक टुकड़ियाँ भेजी गईं। चिमणाजी अप्पा बुंदलेखण्ड की तरफ गये, मल्हारजी व राणेजी शिंदे गुजरात की ओर गये जहाँ चंपानेर व पावागढ़ में मामला निपटाने का आदेश उन्हें दिया गया।
- मराठा सेनाएँ अब राजस्थान में अंदर तक प्रविष्ट हो चुकी थीं। वहाँ से सौंधवाड़ा, डुंगरपुर होते हुए वे मंदसौर की ओर आ गई। आनन्दराव पवार व विठोजी बुले दिसम्बर 1732 ई. में मध्यप्रदेश (मालवा) के लिए कूच कर गये थे। यहाँ तक कि चिमणाजी अप्पा ने उदाजी पवार तक को आमंत्रित किया था। इस प्रकार जयसिंह को मराठों ने चारों ओर से घेर लिया था। वह इस समय मंदसौर में था। उसने उदाजी पवार व कृष्णाजी हरि को फोड़ना चाहा परन्तु होल्कर ने उदाजी को चेतावनी दी। मराठों द्वारा जयसिंह पर इतना दबाव डाला गया कि उसने संधि के लिए बातचीत आरम्भ की। प्रथमतः उसने छः लाख रूपये देने व मालवा के 26 परगनों पर मराठों के अधिपत्य को मान्यता दी व वहाँ उनके कर वसूली अधिकार को भी स्वीकार किया।
- मुगल दरबार में हड़कम्प मच गया और कोई भी मराठों का सामना करने के लिए उद्यत नहीं था यहाँ तक कि सम्राट स्वयं आगे बढ़ने व शत्रु को ठिकाने लगाने की सोच रहा था। वजीर नें फरूखाबाद में उसे संकट से निपटने का वचन दिया परन्तु कुछ हासिल नहीं हुआ और मराठे चिमणाजी अप्पा के नेतृत्व में मारवाड़ और बूढ़ा डोंगर तक पहुँच गये। सवाई जयसिंह की मंदसौर में पराजय का समाचार सुनकर वजीर भी दिल्ली लौट गया। 18 जुलाई 1933 ई. को मुधोजी हरि द्वारा बाजीराव को लिखे पत्र से उत्तर भारत की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।
- जयसिंह ने मालवा को मराठों की कृपा पर छोड़ दिया और वह जयपुर लौट गया।
- नवम्बर 1733 ई. में मल्हारजी होलकर, राणोंजी शिंदे व पिलाजी जाधव मालवा में प्रविष्ट हुए। दतिया, ओरछा व भदावर की तरफ जो ग्वालियर के निकट थे सेना के साथ वे बढ़े। 28 जुलाई 1733 ई. को दतिया व ओरछा शिविर से मुधोजी हरि द्वारा बाजीराव प्रथम को लिखे पत्र से स्थिति की जानकारी मिलती है। पिलाजी जाधव द्वारा चंदेरी को विजित किया गया और वह दक्षिण लौट गया। खानदौरान (वजीर) ने भाई मुबारिज खान को मराठों को रोकने को कहा, राजपूत राज्य भी इसमें नाकाम रहे। इस प्रकार मार्च 1734 ई. तक उनका कार्य उत्तरी मध्यप्रदेश विजय की दृष्टि से पूर्ण हो चुका था।
- 1735 ई. का वर्ष एक नवीन पृष्ठ खोलता है। दोनों पक्ष मुगल राजपूत व मराठा संघर्ष की यह अंतिम खेप थी।
- खानदौरान 14 नवम्बर 1734 ई. को दिल्ली से चल पड़ा था।
- राजपूत हुरडा में बनाई गई योजना को क्रियान्वित करना चाहते थे क्योंकि अब मुगल साम्राज्य ही नहीं उनके राजस्थान के राज्यों के अस्तित्व का प्रश्न था। अतः सवाई जयसिंह जोधपुर का अभयसिंह कोटा का महाराव दुजनसाल हाड़ा भी खानदौरान से मिल गये। इस प्रकार मुगल सेना में 2 लाख की सैन्य संख्या हो चुकी थी।
- मुकंदरा की घाटी को पार कर सेनाएँ रामपुरा पहुँच गई। राणोंजी शिंदे ने शाही सेना से संघर्ष जारी रखा तभी मल्हारराव होल्कर बूँदी व कोटा होता हुआ जयपुर व मारवाड़ पहुँच गया। बाजीराव को नारोशिवदेव द्वारा लिखे गये पत्र से इस तथ्य की पुष्टि होती है। मुगल सेना पर दबाव बढ़ गया व अपनी-अपनी राजधानियों की सुरक्षा के लिए राजपूत शासक विचलित हो गये। सवाई जयसिंह जयपुर चला गया व खानदौरान बँदी की ओर बढ़ गया। स्थिति की गंभीरता को देख वजीर ने सुलह की बात चलाई। जिसके अनुसार- खानदौरान मराठों को 12 लाख धनराशि देगा।
- समान्यतः किसी राजपुरुष के सम्बन्धि की तीर्थयात्रा का विशेष महत्व नहीं होता किन्तु पेशवा बाजीराव की माता राधाबाई की तीर्थयात्रा ने पेशवा के प्रभाव, मराठों की शक्ति को प्रमाणित किया।
- पेशवा व मराठे साम्राज्य में सर्वोच्च शक्ति 1735 ई. तक बन चुके थे। 6 मई को उदयपुर होती हुई राधाबाई नाथद्वारा गई। जयसिंह शक्तावत जो सतारा में महाराणा का राजदूत था व लक्ष्मीराम मिश्रा • उसके पथ-प्रदर्शक थे। 16 जून को जयपुर, फिर मथुरा, कुरू क्षेत्र, प्रयाग (इलाहाबाद) काशी तथा गया की यात्रा नवम्बर 1735 ई. तक पूर्ण कर वह 2 मई 1736 को पुणे पहुँचे। महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि राजपूताना के शासकों ने उसका स्वागत किया और यहाँ तक कि मुगल सम्राट की ओर से 1000 (एक हजार) सैनिक उसकी सुरक्षा हेतु भेजे गये। यह तथ्य मराठा संप्रभुता की स्थापना की ओर इंगित करता है। इस यात्रा का कूटनीतिक महत्व यह था कि राधाबाई पेशवा की माता के रूप में यात्रा कर रही थीं, जो अब सर्वेसर्वा बन चुका था।
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