राजनीतिक सिद्धान्तों के मुद्दे | राजनीति सिद्धान्त के अध्ययन के उपागम| Issues in Political Theory
राजनीतिक सिद्धान्तों के मुद्दे (Issues in Political Theory)
राजनीतिक सिद्धान्तों के मुद्दे (Issues in Political Theory)
राजनीतिक सिद्धान्तों की प्रकृति समझने के लिए उन विषयों और मुद्दों पर ध्यान देना भी जरूरी है जो पिछले 2400 सालों में इसके अध्ययन का अंग रहे हैं। यद्यपि राजनीतिक सिद्धान्तों का मुख्य विषय राज्य है तथापि राजनीतिक चिंतन के इतिहास के विभिन्न चरणों में राज्य से संबंधित अलग-अलग विषय महत्त्वपूर्ण रहे हैं। क्लासिकी राजनीतिक सिद्धान्तों का मुख्य विषय 'एक आदर्श राजनीतिक व्यवस्था' (perfect political order) की खोज था । अतः ये राजनीतिक के मूल सिद्धान्तों के विश्लेषण और निर्माण में जुटे रहे, जैसे राज्य की प्रकृति और उद्देश्य राजनीतिक सत्ता के आधार, राजनीतिक आज्ञापालन की समस्या, राजनीतिक अवज्ञा आदि। इनका संबंध 'राज्य कैसा होना चाहिए और एक आदर्श राज्य की स्थापना जैसे विषयों से अधिक रहा।
औद्योगिक क्रांति और आधुनिक राष्ट्र राज्य के निर्माण ने एक नये समाज, नयी अर्थव्यवस्था और राज्य के नये स्वरूप को जन्म दिया। आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्तों का आरंभ व्यक्तिवाद से होता है जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता और इसकी सुरक्षा राजनीतिक का सार माने गये। परिणामस्वरूप आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्तों में अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, सम्पत्ति, न्याय, प्रजातन्त्र, जन सहभागिता, राज्य और व्यक्ति में संबंध आदि मुद्दे प्रमुख हो गये। इस सन्दर्भ में विभिन्न अवधारणाओं में संबंध, जैसे स्वतंत्रता और समानता, न्याय और समानता अथवा न्याय और सम्पत्ति पर भी बल दिया गया। बीसवीं शताब्दी में राजनीतिक सिद्धान्तों को राज्य सरकार और सरकार की संस्थाओं तथा राजनीतिक प्रक्रिया का अध्ययन माना गया। इस संदर्भ में राज्य का एक कानूनी संस्था के रूप में अध्ययन, संविधान, सरकार तथा सरकार के विभिन्न स्वरूप और कार्य लोक प्रशासन, राजनीतिक प्रक्रिया, राजनीतिक दल व्यवस्था तथा राजनीतिक व्यवहार, जन सहभागिता, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति जैसे विषय राजनीतिक सिद्धान्तों का विषय क्षेत्र माने गये। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के व्यक्ति के राजनीतिक व्यवहार पर आधारित आनुभविक वैज्ञानिक (Empirical- Scientific) सिद्धान्त काफी लोकप्रिय हुआ। इस सिद्धान्त ने अन्य सामाजिक विज्ञानों से प्रेरणा लेकर कई नई राजनीतिक अवधारणाओं की रचना की जैसे शक्ति, सत्ता विशिष्ट वर्ग समूह, राजनीतिक व्यवस्था, राजनीतिक समाजशास्त्र, राजनीतिक संस्कृति आदि। इन अवधारणाओं को भी राजनीतिक सिद्धान्तों का अभिन्न अंग माना जाता है।
पिछले कुछ सालों में राजनीतिक सिद्धान्तों के अन्तर्गत कुछ और नये विषय उभरकर आये है। मूल्यात्मक राजनीति की पुनर्स्थापना के बाद सिद्धान्तों के स्तर पर स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसी अवधारणाओं को दोबारा से प्रतिष्ठित किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य नये विषय राजनीतिक सिद्धान्तों का भाग बन रहा है, जैसे नारीवाद, पर्यावरण, समुदायवाद, बहुसंस्कृतिवाद, उत्तर-आधुनिकवाद, विकास तथा सम्पोषित विकास उपाश्रित वर्ग समूह आदि आगे आने वाले अध्यायों में इन विषयों पर प्रकाश डाला जायेगा।
समकालीन सिद्धान्तों में ध्यान देने योग्य बात यह है कि अब सिद्धान्तों के अध्ययन में किसी एक एकल दृष्टिकोण (उदारवादी अथवा मार्क्सवादी) के प्रयोग को महत्त्व नहीं दिया जाता। इस पद्धति को गलत तो नहीं परंतु अधूरा अवश्य माना जाता है। उदाहरण के लिये उदारवाद और मार्क्सवाद दोनों स्वतंत्रता की समस्या को पुरुष प्रधान समाज के संदर्भ में ही परिभाषित करते रहे हैं तथा नारी और परिवार के संदर्भ में स्वतंत्रता एवं न्याय की समस्या की अवज्ञा करते रहे। इसी तरह समुदायवादी लेखक भी इस एकल दृष्टिकोण को अपेक्षाकृत कमजोर मानते हैं। समकालीन सिद्धान्त स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सिद्धान्तों को सार्वजनिक भलाई के संदर्भ में पुनः परिभाषित करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
राजनीति सिद्धान्त के अध्ययन के उपागम-आदर्शी तथा आनुभविक
(Approaches to the Study of Political Theory: Normative and Empirical)
जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है राजनीतिक सिद्धान्तों में काफी विभिन्नता है। पश्चिमी राजनीतिक परम्परा में राजनीतिक सिद्धान्त एक निरन्तर संवाद की तरह है जो सदियों से चलता आ रहा है। हालांकि राजनीतिक सिद्धान्तों की विषयवस्तु में लगभग निरन्तरता बनी हुई है परन्तु इसके अध्ययन के उपागमों में पिछले कुछ दशकों में काफी अन्तर आया है। व्यापक स्तर पर हम इन्हें दो प्रमुख उपागमों में विभाजित करते हैं। ये हैं आदर्शी तथा आनुभविक ।
आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त (Normative Political Theory)
राजनीतिक सिद्धान्तों में आदर्श तथा वास्तविकता (Ideals and reality), मूल्य एवं तथ्य (Value and fact) दोनों का समावेश है। अतः राजनीति सिद्धान्त के अध्ययन के लिए हम जिन दो उपागमों में अंतर करते हैं वे हैं- आदर्शी तथा आनुभविक आदर्शी सिद्धान्त का सम्बन्ध राजनीति, राज्य, न्याय, स्वतंत्रता आदि के बारे में विभिन्न राजनीतिक विचारकों के व्यापक चिन्तन से है। यह चिन्तन जो अधिकतर दार्शनिक प्रकृति का होता है, ग्रीक राज्यों से लेकर वर्तमान समय तक सार्वजनिक राजनीतिक चिन्तन की एक सुस्पष्ट परंपरा रही है। राजनीति सिद्धान्त की इस धारणा को राजनीतिक दर्शन या आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त भी कहा जाता है।
आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त को काल्पनिक अथवा दार्शनिक सिद्धान्त भी कहा जाता है। इसमें राजनीतिक सिद्धान्त नैतिकशास्त्र, दर्शन अथवा नैतिकता के साथ अभिन्न रूप से जुड़े हुये होते हैं। इसमें नैतिक मुद्दे उठाये जाते हैं, इस विश्वास के साथ कि व्यक्ति अनिवार्यतः एक अच्छा प्राणी है और वह अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों स्तरों पर अच्छा कार्य करना चाहता है। इसका विश्वास है कि इस विश्व एवं इसकी घटनाओं के तर्क, उद्देश्य तथा लक्ष्य को सिद्धान्तकार की तर्कबुद्धि, अन्तर्बोध, अनुभव तथा अन्तर्दृष्टि के आधार पर की गई व्याख्या द्वारा समझा जा सकता है। यह नैतिक मूल्यों की दार्शनिक कल्पना की योजना है। उत्पत्तिमूलक शब्द के रूप में, आदर्शी सिद्धान्तों में ऐसे सिद्धान्तों का समावेश किया जाता है जिनका सम्बन्ध मुख्यतः मानकों का मूल्यांकन करना व्यवहार के स्वरूपों का निर्धारण करना तथा जीवन के स्वरूप एवं संस्थागत ढांचों के बारे में परामर्श देना है। आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त का राजनीतिक दर्शन (Political Philosophy) की तरफ काफी झुकाव है क्योंकि इसके अच्छे जीवन (good life) की धारणा का स्रोत वही है और सम्पूर्ण आदर्शों के निर्माण के प्रयत्नों के एक ढाँचे के रूप में भी इसी का ही प्रयोग करता है। जॉन प्लैमनाज ने राजनीतिक सिद्धान्त को सरकार के उद्देश्यों से सम्बन्धित क्रमबद्ध चिन्तन के रूप में पारिभाषित किया है। उसने राजनीतिक सिद्धान्त को नैतिक सिद्धान्त के साथ निकटता से जोड़ा है।
आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त की शानदार परम्परा रही है जो ग्रीक राज्यों के प्लेटो एवं अरस्तु से आरंभ होकर 20वीं शताब्दी की उदारवादी एवं मार्क्सवादी परम्परा तक निर्बाध चलती आ रही थी जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसे आनुभविक सिद्धान्त ने चुनौती दी। आनुभविक सिद्धान्त ने सिद्धान्तों के परीक्षण तथा तथ्यों पर आधारित कानून, जैसे सामान्यीकरण के माध्यम से राजनीतिक जीवन के क्रमबद्धिकरण पर बल दिया। ऐसी परिस्थितियों में आदर्शी सिद्धान्तों की सुसंगतता काफी का हो गई जिनका पुनर्जागरण 1970 के दशक में सम्भव हुआ।
आदर्शी सिद्धान्त की जड़ें क्लासिकी युग में हैं। राजनीतिक सिद्धान्तों के पुराने दार्शनिकों की राजनीति में रुचि व्यापक जाँच पड़ताल के एक अंग के रूप में थी। अत राजनीति- जो राजनीतिक सिद्धान्त का राजनीतिक पक्ष था का वर्णन एवं चर्चा बड़े व्यापक स्तर पर की गई। क्लासिकी राजनीतिक सिद्धान्तों में ग्रीक, रोमन तथा ईसाई चिन्तकों तथा दर्शनिकों का समावेश किया जाता है। क्लासिकी राजनीतिक चिन्तन के दो महान दार्शनिक प्लेटो तथा अरस्तु है। उनके युग में राजनीति सिद्धान्त में (i) राजनीति, (ii) सिद्धान्त का विचार तथा (iii) दर्शनशास्त्र की परम्परा तीनों को निहित किया जाता था। राजनीति से अभिप्राय था सार्वजनिक कार्यों में हिस्सेदारी सिद्धान्त का अभिप्राय था पर्यावेषण के आधार पर प्राप्त किया गया क्रमबद्ध ज्ञान तथा दर्शनशास्त्र से अभिप्राय था विश्वस्त ज्ञान की खोज-एक ऐसा ज्ञान जो लोगों को सामूहिक जीवन में व्यवहार के स्तर पर अधिक समझदार बना सकें। अतः राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ था सार्वजनिक कार्यों से सम्बन्धित विश्वस्त ज्ञान प्राप्त करने लिए किया जाने वाला क्रमबद्ध अध्ययन या जाँच पड़ताल ।
आदर्शी सिद्धान्त की कुछ विशेषताओं को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है:
1. राजनीतिक सिद्धान्तों पर दर्शनशास्त्र का प्रभुत्व था। प्लेटो, अरस्तु, हॉब्स, रॉल्स जैसे महान दार्शनिक अपने चिन्तन के कार्यक्षेत्र की व्यापकता एवं विषयक्षेत्र के कारण महान है। वे राजनीतिक चिन्तकों से बढ़कर है। यहाँ राजनीतिक सिद्धान्तों में इनका वर्णन, व्याख्या आदेशात्मकता तथा मूल्यांकन सभी निहित हैं।
2. आदर्शी सिद्धान्त सर्वोत्तम अच्छाई (Ultimate good) में विश्वास करता है तथा राजनीतिक अच्छाई को इसका एक भाग मानता है। राज्य का उद्देश्य अच्छे जीवन को प्रोत्साहित करना है, हालाँकि यह भी एक चर्चा का विषय रहा है कि वरीयता किसे दी जानी चाहिए व्यक्तिगत अच्छाई को या सामूहिक अच्छाई को । जहाँ क्लासिकी परम्परा का विचार था कि सामूहिक अच्छाई में समाज का एक सदस्य होने के नाते व्यक्ति की अच्छाई समाविष्ट है और व्यक्ति इसे केवल एक सामाजिक सदस्य के रूप में ही प्राप्त कर सकता है, वहाँ उदारवाद ने इस परम्परा को स्वीकार नहीं किया तथा सामूहिक अच्छाई को व्यक्तिगत अच्छाई पर निर्भर कर दिया अर्थात् व्यक्ति की भलाई में ही समाज की भलाई है।
3. आदर्शी सिद्धान्त राजनीतिक सम्पूर्णता (Political whole ) में विश्वास करता है अर्थात् सिद्धान्त सम्पूर्ण, व्यापक तथा अन्तर्विष्ट होने चाहिए। इसमें शासन, युद्धकला, धार्मिक रीति रिवाज, आर्थिक समस्याएँ या वर्ग सम्बन्ध तथा अधिकार, स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसी धारणाएँ सभी निहित होने चाहिए। सरकार के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप की खोज क्लासिकी राजनीतिक सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है।
4. आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त मुख्यतः जिस स्तर पर सैद्धान्तीकरण करते हैं वह है- राजनीतिक जीवन में क्या होना 'चाहिए' न कि क्या 'है'; अर्थात् इसमें इसका सम्बन्ध नैतिक दर्शन से सम्बन्धित प्रश्नों तथा सामाजिक संस्थाओं को प्रभावित करने वाले आधारभूत प्रश्नों के उत्तर देना है। इनकी चिन्ता "क्या हो रहा है" के प्रति कम तथा "क्या होना चाहिए" के प्रति अधिक है। ये राज्य के सदस्यों के लिए स्वतन्त्रता, समानता, अधिकार, न्याय, सहयोग, शन्ति आदि जैसे मूल्यों के महत्त्व पर बल देते हैं।
5. आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त आदेशात्मक (prescriptive) होते हैं क्योंकि ये मूल्यांकन के कुछ मानक निश्चित करते हैं जिनके माध्यम से हम किसी व्यवस्था की कमियों की जाँच कर सकते हैं और उनमें सुधार करने के उपाय सुझा सकते हैं। इनका चरित्र आदर्शात्मक है क्योंकि ये समाज के लिए कुछ नैतिक आदर्शों का निर्माण करते हैं। कोबान के अनुसार, आदर्शात्मक सिद्धान्त का कार्य एक मानदण्ड अथवा निर्णय प्रदान करना होता है। इसी तरह प्लेमनाज भी लिखते हैं कि इस प्रकार के सिद्धान्त का उद्देश्य कुछ एक मूल्यों के प्रति कटिबद्धता आश्वस्त करना होता है।
6. आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण विषय "आदर्श राज्य" (Ideal state) तथा सरकार का सर्वश्रेष्ठ स्थायी स्वरूप ढूँढ़ना रहा है। क्लासिकी परम्परा के लेखकों की रचनाओं में इस प्रकार के प्रश्न बार-बार पूछे जाते रहे जैसे शासन किसे करना चाहिए तथा क्यों? सरकार का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप कौन-सा है ? राजनीतिक संस्थाओं का उद्देश्य क्या होना चाहिए? सरकार को किन नियमों अथवा कानूनों का पालन करना चाहिए आदि। राजनीतिक सिद्धान्तों का मुख्य सम्बन्ध समाज में होने वाले विवादों / संघर्षो के कारणों की जाँच पड़ताल करना, उनका विश्लेषण करना तथा न्याय के उन नियमों का पालन करना था जो राजनीतिक संस्थाओं के लिये भौतिक एवं गैर-भौतिक पदार्थों के वितरण के लिए एक मार्ग निर्देशक का कार्य कर सकें। एक आदर्श राज्य की खोज ने किसी सिद्धान्त को व्यावहारिक स्तर पर लागू करने तथा इस प्रक्रिया का अनुभव प्राप्त करने का अमूल्य साधन प्रदान किया है। समग्र रूप से आदर्शात्मक राजनीतिक सिद्धान्त आदेशात्मक काल्पनिक, 'मूल्यात्मक' (value-laden) तथा 'क्या होना चाहिए' (ought ) से सम्बद्ध है।
7. आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त कुछ नियामक चिन्ताओं (regulative concerns) पर आधारित है अर्थात् वे आधार जिन पर सिद्धान्तों का निर्माण किया जा सकता है। ये मान्यताएँ इस दृष्टिकोण से मौलिक है कि उन्हें पहले से ही मानकर चला जाता है। उदाहरण के लिए, हॉब्स की राजनीतिक प्रबंधों के बारे में चर्चा मानवीय विवेक तथा नीयत की कुछ निरंकुश मान्यताओं पर आधारित है। दूसरा आदर्शी सिद्धान्त यह आश्वस्त करने का प्रयत्न करते हैं कि इन आधारभूत मूल्यों के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था किस प्रकार स्थापित की जाए। दूसरे शब्दों में राजनीतिक संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं को इन आधारभूत मान्यताओं में से किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है और उन्हें उचित ठहराया जा सकता है। वर्तमान राजनीतिक सिद्धान्तों में प्रमुख आदर्शी सिद्धान्त है: उदारवाद तथा इच्छास्वातंत्र्यवाद के विभिन्न स्वरूप, समुदायवाद, नारीवाद, मानवीय एवं विश्लेषणात्मक मार्क्सवाद तथा गणराज्यवाद ।
आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त की प्राय: इस आधार पर आलोचना की जाती है कि ये काल्पनिक, अमूर्त, कारण-कार्य, निगमनिक मीमांसात्मक परिकल्पित तथा स्वप्नदर्शी है। आनुभविक सिद्धान्त के समर्थक आदर्शी सिद्धांत की इस आधार पर आलोचना करते हैं कि आदर्श अथवा मूल्य सापेक्षिक होते हैं सर्वमान्य नहीं तथा वे किसी संस्कृति से जुड़े हुए तथा वैचारिक होते हैं। तथापि आदर्शी सिद्धान्त का गुण यह है कि यह किसी लक्ष्य से प्रेरित होते हैं। ये राजनीति को 'अच्छाई' तथा 'न्याय' के साथ जोड़ते हैं। जैसा कि लियो स्ट्रॉस लिखते हैं, 'सभी प्रकार की राजनीतिक क्रियाएँ 'परिवर्तन' अथवा 'यथास्थिति' को बनाये रखने से प्रेरित होती है। जब हम यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं तो हमारा उद्देश्य किसी बुरे परिवर्तन को रोकना होता है और जब हम परिवर्तन कर रहे होते हैं, हम कुछ वर्तमान से बेहतर प्राप्त करना चाहते हैं अर्थात् सभी प्रकार की राजनीतिक क्रियाएँ 'बेहतर' अथवा 'बुरे' के विचारों से प्रभावित होती है परन्तु इन दोनों के पीछे अच्छे का विचार ही कार्यरत होता है।
आनुभविक - वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त
(Empirical Scientific Political Theory)
बीसवीं शताब्दी में अमरीका में राजनीतिक सिद्धान्तों की एक नयी शाखा का विकास हुआ जो बाद में आनुभविक वैज्ञानिक सिद्धान्त के नाम से प्रचलित हुई। हालांकि वैज्ञानिक तरीके से (बजाय दार्शनिक के) और तथ्यों पर आधारित (बजाय सामाजिक और नैतिक मूल्यों के) राजनीतिक सिद्धांतों का अध्ययन काफी पुराना है परन्तु इसे अध्ययन की एक महत्त्वपूर्ण पद्धति बनाने का श्रेय अमरीका के समाजशास्त्रियों को जाता है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में मैक्स वेबर, ग्राहस वालास तथा बैन्टले आदि ने राजनीतिक सिद्धांतों के आनुभविक दृष्टिकोण का विकास किया और इस बात पर बल दिया कि राजनीति का अध्ययन तथ्यों (facts) पर आधारित होना चाहिए। इसी तरह एक अन्य लेखक जॉर्ज कैटलिन का विचार था कि राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन अन्य सामाजिक विज्ञानों- जैसे समाजशास्त्र, मानोविज्ञान, मानव-विज्ञान के साथ अन्तर्सम्बन्धित होना चाहिए। परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका के शिकागो विश्वविद्यालय के कुछ राजनीति वैज्ञानिकों ने एक नये राजनीतिक सिद्धान्त का ही विकास कर दिया। इन राजनीति - वैज्ञानिकों में, जिन्हें 'शिकागो स्कूल' का नाम भी दिया गया, चार्ल्स मरियम, हैरोल्ड सासबैल, गोरनैल, स्टुअर्ट राईस, वी.ओ. की, डेविड एप्टर, डेविड ईस्टन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन नये. राजनीतिक सिद्धान्तों ने राजनीति के अध्ययन को राजनीतिक आदर्शों, मूल्यों और संस्थाओं से हटाकर इसे 'व्यक्ति और समूहों के व्यवहार के सन्दर्भ में राजनीतिक का अध्ययन' के साथ जोड़ दिया। इस नये दृष्टिकोण का यह विचार था कि राजनीति का अध्ययन राजनीतिक समुदाय में रहते हुए व्यक्ति के व्यवहार पर आधारित होना चाहिए। राजनीतिक सिद्धान्तों का उद्देश्य 'राजनीतिक व्यवहार के विज्ञान' की धारणा को क्रमबद्ध करना है जो आनुभविक शोध पर आधारित होगी न कि राजनीतिक दर्शनशास्त्र पर। जैसा कि डेविड ईस्टन ने लिखा है, चिन्तन के स्तर पर, क्रमबद्ध सिद्धान्त दैनिक जीवन की वास्तविक अनुभवजन्य राजनीतिक व्यवस्थाओं के अनुकूल हैं।
आनुभविक वैज्ञानिकों के सिद्धांत की कुछ खास विशेषताएँ हैं जो इसे अन्य धाराओं से अलग करती हैं। पहली, इस सिद्धान्त का विश्वास है कि राजनीतिक सिद्धांतों का उद्देश्य राजनीतिक घटनाओं की व्याख्या करना, उन्हें क्रमबद्ध तरीके से व्यवस्थित करना और इस आधार पर कुछ भविष्यवाणी करना है; इनका काम मूल्यांकन करना नहीं होता और न ही किसी आदर्श राज्य की स्थापना ध्यान देने योग्य बात यह है कि आनुभविक वैज्ञानिक सिद्धान्त ने दर्शनशास्त्र से नाता तोड़ लिया। इनके अनुसार, राजनीतिक सिद्धान्त वहीं तक ही अर्थपूर्ण होते है जहाँ तक उनकी जाँच की जा सकती है। दूसरी राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन मूल्यविहीन (value-free) होना चाहिए; इनका सम्बन्ध केवल तथ्यों से है। सिद्धांतों का काम वर्तमान राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करना है; इस बात का मूल्यांकन करना नहीं कि क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए। इनका सम्बन्ध इससे नहीं होना चाहिए कि 'कौन शासन करता है, किसे शासन करना चाहिए और क्यों राजनीतिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध समाज में व्यक्तियों समूहों और संस्थाओं के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन होना चाहिए, इस बात की परवाह किये बिना कि यह व्यवहार अच्छा है या बुरा। तीसरी व्यवहारवादी सिद्धान्तों का सम्बन्ध केवल राज्य के अध्ययन से न होकर राजनीतिक प्रक्रिया के अध्ययन से भी है। चौथी, आनुभविक सिद्धान्तों का आलोचनात्मक कार्यों में विश्वास नहीं है। सिद्धान्तों का काम राज्य के आधारों पर प्रश्न चिह्न लगाना नहीं है बल्कि इनका सम्बन्ध यथास्थिति को बनाये रखने, स्थायित्व, सन्तुलन और सामन्जस्य से है। पांचवीं, इस सिद्धान्त ने अन्य सामाजिक विज्ञानों द्वारा विकसित कई धारणाओं को राजनीतिक विज्ञान के अध्ययन के लिये अपनाया जैसे शक्ति, विशिष्ट वर्ग, नीति निर्माण, राजनीतिक व्यवस्था, संस्कृति आदि।
वैज्ञानिक पद्धति तथा मूल्य-विहीन राजनीतिक पर अत्यधिक बल और महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा राजनीतिक मुद्दों की अवज्ञा के कारण, आनुभविक वैज्ञानिक सिद्धान्त 1960 के दशक के बाद अधूरा प्रतीत होना लगा। ऐसा अनुभव किया जाने लगा कि किसी भी राजनीतिक ढाँचे में मानव जीवन से सम्बन्धित कुछ मूल्य और उद्देश्य होते हैं जिसे आनुभविक सिद्धान्त ने अनदेखा किया है। रॉल्स, नोजिक, हैबरमास जैस लेखकों न राजनीतिक सिद्धान्त के केन्द्रीभूत मुद्दों जैसे स्वतंत्रता, समानता, न्याय आदि को दोबारा से उठाना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीतिक पुनर्जीवित हो उठी। राजनीति के इस नवीनीकरण को समकालीन राजनीतिक सिद्धांत कहा जाता है।
आदर्शी तथा आनुभविक सिद्धांतों में सम्बन्ध
(Relation between Normative and Empirical Political Theory)
ऐसा माना जाता है कि आदर्शी तथा आनुभविक सिद्धान्तों में अन्तर केवल विश्लेषणात्मक है। व्यावहारिक स्तर पर ऐसा कोई ही राजनीतिक सिद्धान्त होगा जो अनन्य रूप से केवल 'है' से सम्बन्धित हो और उसमें 'चाहिए' का तत्त्व पूर्णतया अनुपस्थित हो। इसी तरह ऐसा भी कोई सिद्धान्त नहीं होगा जो केवल आदर्शों अर्थात् 'क्या होना चाहिए' तक सीमित हो और उसमें 'है' का तत्त्व न हो। दूसरे शब्दों में, आदर्शी तथा आनुभविक सिद्धान्तों में अन्तर केवल 'क्या है' और 'क्या होना चाहिए' के मिश्रण के अनुपात का है। आदर्शी राजनीतिक सिद्धान्त में 'चाहिए' का तत्त्व अधिक तथा 'है' का तत्त्व अपेक्षाकृत कम है जबकि आनुभविक सिद्धान्त में 'है' का अनुपात अधिक तथा 'चाहिए'' का तत्त्व अपेक्षाकृत कम है। दूसरा, ऐसा भी सम्भव है कि एक ही लेखक अपनी एक रचना में आनुभविक अधिक हो और आदर्शी कम और अपनी अन्य रचना में वह अधिक आदर्शी हो और आनुभविक कम उदाहरण के लिए, मार्क्स का यूरोपीय पूँजीवाद का विश्लेषण आनुभविक तथा तथ्यात्मक है। जबकि उसके द्वारा किया गया समाजवादी साम्यवादी समाज का भावी निरूपण अपेक्षाकृत अधिक आदर्शी, काल्पनिक तथा आदेशात्मक है। दूसरे शब्दों में, मार्क्स के विचारों का एक अंश अत्यधिक आनुभविक है जबकि दूसरा आदर्शी । केवल यही नहीं, पूँजीवादी वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग के शोषक की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए मार्क्स ने 'अधिशेष' मूल्य के सिद्धान्त की रचना की जो कारण कार्य सिद्धान्त (causal) अधिक है। तीसरा, हम दोनों में कुछ अन्तर कर सकते हैं। लियो स्ट्रॉस ने आदर्शी सिद्धान्त के लिए 'राजनीतिक दर्शन' तथा आनुभविक सिद्धान्त के लिए 'राजनीतिक सिद्धान्त' शब्दों का प्रयोग किया है। उसका तर्क है कि राजनीतिक सिद्धांत हमें राजनीतिक चिन्तन के बारे में बताता है जबकि राजनीतिक दर्शन बुद्धिमत्ता की तलाश है। दूसरे शब्दों में स्ट्रॉस ने राजनीतिक सिद्धान्त शब्द का प्रयोग राजनीतिक चिन्तकों के वर्णनात्मक लेखा जोखों तथा राजनीतिक दर्शन शब्द का प्रयोग 'राजनीतिक घटनाओं के आदर्शी चिन्तन' के लिए किया है और उच्च स्तर पर ऐसा तर्क दिया जाता है कि जिसे हम आनुभविक राजनीतिक सिद्धान्त कहते हैं वह हमें राजनीतिक वास्तविकता के पक्ष के बारे में बताते हैं जबकि राजनीतिक दर्शन उसका सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत करते हैं। इस तर्क की एक अन्य व्याख्या यह है कि जहाँ राजनीतिक सिद्धान्त हमें केवल विशिष्ट (particular) के बारे में अवगत करवाते हैं, वहाँ राजनीतिक दर्शन हमें सर्वव्यापक ( universal) ज्ञान से परिचित करवाते हैं। एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि आनुभविक वास्तविकता जो हमें देती है वह राजनीतिक घटनाओं की केवल सूचना मात्र होती है जबकि राजनीति दर्शन या आदर्शी राजनीतिक सिद्धांत उस राजनीतिक वास्तविकता के मूल को समझने में सहायता करता है।
भीखू पीख ने राजनीतिक दर्शन तथा राजनीतिक सिद्धान्त के एक अन्य आयाम की तरफ ध्यान दिलाने की कोशिश की है। उसके अनुसार दोनों में अन्तर केवल इस बात का है कि हम राजनीतिक घटनाओं का अध्ययन किस प्रकार करते हैं। राजनीतिक दर्शन 'राजनीतिक' का अध्ययन दार्शनिक तरीके से है। दार्शनिक प्रणाली का अभिप्राय है घटनाओं की आलोचनात्मक छानबीन तथा व्याख्या जबकि आनुभविक प्रणाली केवल उस घटना का तथ्यात्मक वर्णन होता है।
समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त (Contemporary Political Theory)
1970 के बाद अमरीका, यूरोप तथा अन्य देशों में राजनीतिक चिन्तकों ने नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीतिक सिद्धान्तों में दोबारा रुचि लेनी आरम्भ की। इस पुनर्जागरण के महत्त्वपूर्ण कारण जहाँ एक तरफ नैतिक मूल्यों में उभरता हुआ संघर्ष था, वहाँ दूसरी तरफ सामाजिक विज्ञानों तथा साहित्य में परिवर्तन थे। इसके अतिरिक्त द्वितीय विश्व युद्ध के सायों की समाप्ति, यूरोप के पुनरुत्थान तथा मार्क्सवाद और समाजवाद की विचारधारा में संकट ने राजनीतिक विचारधाराओं में अनिश्चितता सी ला दी। चाहे वह उदारवाद था या प्रजातंत्र, मार्क्सवाद था या समाजवाद, उभरते हुए सामाजिक आन्दोलनों ने सबको चुनौती दी वे आन्दोलन जो राजनीतिक सिद्धान्तों के विषयक्षेत्र का पुनः प्रलेखन करना चाहते थे।
व्यवहारवाद के प्रभुत्व के युग में राजनीतिक सिद्धान्तों को राजनीति विज्ञान ने अभिभूत किया हुआ था। सिद्धान्तों में ज्ञान और खोज को न्यायसंगत स्थान नहीं दिया गया। हालांकि व्यवहारवाद की धारणा राजनीतिक सिद्धान्तों पर अधिक देर तक हावी नहीं रही, तथापि राजनीतिक और सामाजिक विज्ञानों के विकास में यह 'विज्ञानवाद' (scienticism) के रूप में अपनी अमिट छाप छोड़ गई। राजनीतिक सिद्धान्तों के पुनर्जागरण की प्रक्रिया के कई स्रोत हैं। जहाँ एक तरफ कई चिन्तकों (जैसे टॉमस कून) ने 'विज्ञान' के सम्पूर्ण मॉडल को ही चुनौती दे दी, वहाँ कुछ अन्य लेखकों का विचार था कि सामाजिक मुद्दों को समझने की कुछ विशिष्ट समस्याएँ होती हैं जो एकीकृत विज्ञान (unified science) के मॉडल द्वारा नहीं समझी जा सकती। इसके दो कारण हैं- पहला, सामाजिक विज्ञानों का उद्देश्य सामाजिक व्यक्ति और सामाजिक समस्याओं का अध्ययन है और विभिन्न चिन्तक इनकी व्याख्या विभिन्न तरीकों से करते हैं तथा दूसरा, राजनीतिक सिद्धांतों को राजनीति के क्रमबद्ध विवरण तक सीमित नहीं किया जा सकता; सिद्धान्तों को अपनी आलोचनात्मक भूमिका अवश्य निभानी चाहिए, अर्थात इन्हें राजनीति के वे स्पष्टीकरण भी देने चाहिए जो आम व्यक्ति की समझ से बाहर होते हैं। विभिन्न चर्चाओं के परिणामस्वरूप, राजनीतिक सिद्धान्तों में कई परिवर्तन हुए। यद्यपि इन सभी परिवर्तनों की विस्तृत व्याख्या सम्भव नहीं है, फिर भी इनकी मुख्य विशेषताएँ ध्यान देने योग्य हैं पहली, आनुभविक सिद्धान्तों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उनकी इतिहास से विमुखता थी। समकालीन राजनीतिक चिन्तकों का मानना है कि सिद्धान्तों को इतिहास से अलग नहीं किया जाना चाहिए। इन सिद्धांतों ने राजनीतिक चिन्तन के इतिहास के अध्ययन को पुनर्जीवित किया है। दूसरी, मानव क्रियाओं से सम्बन्धित सम्पूर्ण ज्ञान की कई तरह की व्याख्याएँ हो सकती हैं। अतः, मूल्यविहीन और तटस्थ राजनीतिक सिद्धांतों की धारणा मूलतः गलत है। तीसरी, राजनीतिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध अवधारणाओं के विश्लेषण से भी है। इस सन्दर्भ में राजनीतिक सिद्धान्तों का कार्यक्षेत्र कुछ मुख्य अवधारणाओं जैसे प्रभुसत्ता, अधिकार, स्वतंत्रता, न्याय आदि का क्रमबद्ध अध्ययन करना है। चौथी, राजनीतिक सिद्धान्तों में आदर्शक तत्त्व (normative element ) भी महत्त्वपूर्ण है। समकालीन राजनीतिक सिद्धान्तों का सम्बन्ध एक तरफ हमारी राजनीतिक और नैतिक गतिविधियों के मूल ढाँचों का क्रमबद्ध विस्तार करना है, वहाँ दूसरी तरफ न्याय, स्वतंत्रता, सार्वजनिक भलाई सामुदायिक जीवन जैसे प्रमुख राजनीतिक मूल्यों का परीक्षण और उनकी पुनर्व्याख्या करना भी है। पांचवीं, राजनीतिक सिद्धांतों का सम्बन्ध अमूर्त सैद्धान्तिक प्रश्नों और विशिष्ट राजनीतिक मुद्दों दोनों से होता है। यह इस मान्यता पर आधारित है कि उन परिस्थितियों का व्यापक परीक्षण किये बिना, जो इनकी उपलब्धि के लिये आवश्यक हैं, राजनीतिक धाराणाओं को उनके सही अर्थों में नहीं समझा जा सकता। राजनीतिक सिद्धान्तों को समस्याओं के समाधान के प्रति जागरूक होना चाहिए और इन्हें प्रजातंत्र, बाजार - अर्थव्यवस्था, समान अवसर जैसी समस्याओं के संदर्भ में जाँच करनी चाहिए। राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक विज्ञान का सैद्धान्तिक पक्ष हैं, जो प्रेक्षण के आधार पर सिद्धान्त निर्माण करने का प्रयत्न करते हैं और अन्त में, डेविड हैल्ड के अनुसार, समकालीन राजनीतिक सिद्धान्तों की चार विशिष्ट विशेषताएँ हैं: (i) ये दार्शनिक है अर्थात् ये नैतिक और वैचारिक ढाँचों से सम्बन्धित हैं, (ii) ये आनुभविक है, अर्थात् इसका सम्बन्ध विभिन्न अवधारणाओं की व्याख्या करना है, (iii) ये ऐतिहासिक है अर्थात् राजनीतिक सिद्धान्त विभिन्न राजनीतिक धाराओं को ऐतिहासिक सन्दर्भ में समझना चाहते हैं; (iv) इनका सामरिक महत्त्व भी है अर्थात् ये इस सम्भावना का भी मूल्यांकन करते हैं कि हम इतिहास के किस मोड़ पर खड़े हैं और कहाँ पहुँच सकते हैं इन चारों तत्त्वों के योग से ही राजनीतिक सिद्धान्त की मूलभूत समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं।
राजनीतिक सिद्धान्तों के पुनर्जागरण के बाद वे विषय जो अधिक उजागर हुये हैं, वे हैं: नीतिशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत सामाजिक न्याय तथा कल्याणकारी-अधिकार सिद्धान्त, प्रजातान्त्रिक सिद्धान्त तथा बहुलवाद, नारीवाद, उत्तर- आधुनिकवाद, नये सामाजिक आन्दोलन, नागरिक समाज तथा उदारवाद समुदायवाद विवाद । वास्तव में समुदायवाद ने मार्क्सवाद की घटती लोकप्रियता से रिक्त होने वाले स्थान को भरने का प्रयास किया है यह पुनर्जागरण यह दर्शाता है कि राजनीतिक सिद्धान्तों के पतन (decline of political theory) के बारे में की गई सभी घोषणाएँ गलत थीं। परन्तु ध्यान देने योग्य बात यह है कि राजनीतिक सिद्धान्त का पुनर्जागरण सम्बन्धी यह जोश केवल उदारवादी विचारधारा तक ही सीमित है क्योंकि यह केवल उदारवाद ही है जो विचारों के मुक्त आदान-प्रदान का समर्थन करता है। यह सिद्धान्त को व्यवहार के अनुसार समन्वित करने और अपनाने को प्रयत्न करता है तथा रूढ़िवादी हुये बिना उन तत्त्वों की पहचान करने का प्रयत्न करता है जो एक न्यायपूर्ण राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सहायक हो सकते हैं। तथापि अधिकतर उदारवादी सिद्धांतों का सम्बन्ध पुरानी राजनीतिक मान्यताओं को ही और अधिक स्पष्ट एवं परिष्कृत करता रहा है। साम्यवाद के पतन के बाद, उदारवाद को आज समुदायवाद, नारीवाद तथा उत्तर-आधुनिकवाद की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त आदर्शी तथा आनुभविक राजनीति की परम्परागत विभाजन को स्वीकार नहीं करते और यह न ही किसी विशेष परम्परा के साथ स्वयं को जोड़ना चाहते हैं।
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