पवित्र रोमन साम्राज्य का उदय |सम्राटों और पोपों का आपसी संघर्ष| Rise of Holy Roman Empire

 

पवित्र रोमन साम्राज्य का उदय (Rise of Holy Roman Empire)

पवित्र रोमन साम्राज्य का उदय |सम्राटों और पोपों का आपसी संघर्ष| Rise of Holy Roman Empire
 

पवित्र रोमन साम्राज्य का उदय (Rise of Holy Roman Empire)

जस्टीनियन - 

500 ई. के आस-पास पश्चिमी रोमन साम्राज्य का पतन हो गया थापरन्तु पूर्वी रोमन साम्राज्य सुरक्षित रहा। इसे 'बाइजेन्टाइन साम्राज्यके नाम से भी पुकारा जाता है और इसकी राजधानी कुस्तुनतुनिया थी। पूर्वी रोमन सम्राट जस्टीनियन (जुस्तिनियन) (483-565 ई.) ने पूर्वी और पश्चिमी भागों को मिलाकर फिर एक करने का यत्न किया। उसने अफ्रीका में वांडालों को और इटली में औस्ट्रोगीथों को पराजित किया तथा विसिगौधों से दक्षिणी स्पेन छीन लियापरन्तु लोम्बार्ड लोगों ने उसे पराजित करके इटली से खदेड़ दिया। इस प्रकार उसका स्वप्न चकनाचूर हो गया। सातवीं सदी में अरबों ने पूर्वी रोमन साम्राज्य से सीरियामिस्र और एशिया माइनर के अधिकांश क्षेत्र छीनकर स्वयं उसकी शक्ति को सीमित कर दिया।

 

क्लीविस एवं पेपिन - 

496 ई. में फ्रांक लोगों के नेता क्लीविस ने एक अन्य जर्मन कबीले को पराजित करके एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। अपनी ईसाई रानी के प्रभाव में आकर उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। इससे पोप को शक्तिशाली जर्मन कबीले (फ्रांक) का समर्थन मिल गया और फ्रांक शासकों को पोप का क्लीविस के उत्तराधिकारी कमजोर निकले और शासन की बागडोर राजमहलों के मेयर शार्ल मार्तेल के हाथ में चली गई। 732 ई. में उसने तूर के निर्णायक युद्ध में मुसलमानों को पराजित करके प्रसिद्धि प्राप्त की। उसके पुत्र पेपिन ने पोप की सहायता से फ्रांक राजा को पदच्युत करकेस्वयं सिंहासन पर अधिकार कर लिया। पोप के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए पेपिन ने जीते हुए लोम्बार्डी प्रदेशों को पोप को उपहार के रूप में अर्पित कर दिया। ये प्रदेश 'पैपल स्टेट्स' (पोप का राज्य ) कहलाये और रोम इसकी राजधानी बना। इस प्रकार पोप रोम नगर का शासक बन गया। इस राज्य के फलस्वरूप उत्तरी इटली का दक्षिणी इटली से सम्बन्ध विच्छेद हो गया और आगे चलकर इटली के एकीकरण के मार्ग में भी सबसे बड़ा अवरोध सिद्ध हुआ।

 

शार्लमेन - 

पेपिन के बाद शार्लमैन फ्रांको का सम्राट बना। वह मध्ययुगीन यूरोप का एक महान सम्राट था और उसके साथ अनेक गाथाएँ एवं दन्तकथाएँ जुड़ी हुई हैं। शार्लमेन का उद्देश्य रोमन साम्राज्य को पुनर्जीवित करना और बर्बरों को ईसा का अनुयायी बनाना था। इसके लिए उसे मुसलमानोंस्लावों और तातारों से निरन्तर युद्ध लड़ने पड़े। समय पाकर फ्रांसनीदरलैण्डबेल्जियमआस्ट्रियास्विट्जरलैण्ड और जर्मनीस्पेनइटलीयूगोस्लाविया के कुछ भागों पर उसका अधिकार स्थापित हो गया। रोमन साम्राज्य के पतन के बाद पहली बार ईसाइयों का इतना विशाल साम्राज्य कायम हुआ था। 800 ई. में शार्लमेन रोम गया और क्रिसमस के दिन जब वह सन्त पीटर के गिरजाघर में घुटने टेक कर प्रार्थना कर रहा थातब पोप ने उसके सिर पर एक सोने का मुकुट रख दिया और आस-पास उपस्थित लोगों ने 'रोमन सम्राट शार्लमेनका जयघोष कर उसका अभिनन्दन किया। शार्लमेन को पोप का यह कृत्य पसन्द नहीं आयाफिर भी उसने शालीनता का त्याग नहीं किया। पोप के इस कृत्य का प्रयोजन अपने आपको सम्राटों से बड़ा सिद्ध करना थाजबकि शार्लमेन ने अपनी शक्ति के बल पर साम्राज्य प्राप्त किया था। सम्राटों और पोपों के मध्य सर्वोच्चता का दावामध्ययुगीन यूरोप की एक प्रमुख विशेषता रही थी। फिर भीशार्लमेन के राज्याभिषेक का अर्थ था - पश्चिमी यूरोप में पुराने साम्राज्य की पुनः स्थापना ।

 

शार्लमेन को पोप का यह कृत्य पसन्द नहीं आयाफिर भी उसने शालीनता का त्याग नहीं किया । पोप के इस कृत्य का प्रायोजन अपने आपको सम्राटों से बड़ा सिद्ध करना थाजबकि शार्लमेन ने अपनी शक्ति के बल पर साम्राज्य प्राप्त किया था।

 

ओट्टो-

रोमन साम्राज्य की खोयी हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने का एक और प्रयास जर्मनी के एक राजा ओट्टो ने किया। लोम्बार्डी के सरदारों का दमन करके पोप की सत्ता को सुदृढ़ बनाया। इस सहायता के बदले में पोप ने 962 ई. में उसे रोमन सम्राट का मुकुट प्रदान किया। यद्यपि ओट्टो के अधिकार में केवल जर्मनी और उत्तरी इटली के राज्य ही थेफिर भी उसका साम्राज्य 'पवित्र रोमन साम्राज्यकहलाया। किसी ने सत्य ही कहा था कि यह "न तो पवित्र थान रोमन था और न साम्राज्य था " फिर भी यह 1800 ई. तक नाम के लिए बना रहा।

 

सम्राटों और पोपों का आपसी संघर्ष (Conflict between King and Pope )

 

इस पृथ्वी पर किसकी सत्ता सर्वोच्च है-सम्राटों की अथवा पोप की लौकिक साम्राज्य की अथवा धार्मिक शक्ति कीयह सवाल मध्यकालीन यूरोप की एक अन्य मुख्य विशेषता है। जब से ईसाई धर्म राज्य धर्म बना तभी से यह प्रश्न उठ खड़ा हुआपरन्तु अपने प्रारम्भिक विकासकाल में धर्माधिकारियों ने सार्वजनिक रूप से राजाओं अथवा सम्राटों की सर्वोच्चता को कभी चुनौती देने का साहस नहीं किया था। परन्तु जब रोमन साम्राज्य का पतन हो गयाकेन्द्रीय शक्ति का लगभग लोप हो गयाचारों तरफ अव्यवस्था फैलने लगी तो चर्च ने सांसारिक कर्तव्यों का भार उठाया और दुःखी तथा भयभीत जनता को आश्रय प्रदान किया। धीरे-धीरे उसकी शक्ति बढ़ने लगी और उसकी जड़ें

 

अत्यधिक सुदृढ़ हो गई। ऐसी स्थिति में पोप अपने आपको सर्वोच्च शक्ति मानने लगे। राजाओं को वे अपने अधीन समझने लगे। निर्बल शासकों ने उनके वर्चस्व को स्वीकार कर लिया परन्तु शक्तिशाली शासकों ने उनकी प्रभुसत्ता का विरोध किया। यह संघर्ष शताब्दियों तक जारी रहा और मध्यकालीन यूरोपीय जीवन की एक मुख्य विशेषता बन गया।

 

(1) चर्च की प्रशासनिक शक्तियाँ- 

संघर्ष के कारण दोनों के मध्य संघर्ष का एक मूल कारण चर्च द्वारा प्रशासनिक शक्तियों को हथियाना था। रोमन साम्राज्य के पतन के दिनों में चर्च ने अपने नियमन्यायालयविद्यालयचिकित्सालय आदि बनाकर लोगों की सामाजिकआर्थिक एवं धार्मिक समस्याओं तथा मुकदमों की सुनवाई शुरू कर दी थी। चूँकि उन दिनों में केन्द्रीय सत्ता कमजोर हो चुकी थीअतः विवाद नहीं उठापरन्तु ज्यों ही राजाओं की शक्ति पुनः स्थापित हुई वे चर्च से शासन की शक्तियों को वापस लेने के लिए प्रयत्नशील हुए। कुछ महत्त्वाकांक्षी सम्राट प्राचीन रोमन साम्राज्य के गौरव को पुनः स्थापित करना चाहते थे। इसके लिए उन्हें इटली में पोप को उसकी राजनीतिक शक्तियों से वंचित करना जरूरी था विशेषकर राजधानी रोम को पोप की शासन सत्ता से मुक्त कराना । 


(2) चर्च के न्यायालय

 शासकों को चर्च के कानून और न्यायालय भी पसन्द न थे। विवाहतलाकउत्तराधिकार आदि कई मामलों का निर्णय चर्च के न्यायालय ही करते थे। राजा लोग अपने राजकीय न्यायालयों का महत्त्व कायम करना चाहते थे। क्योंकि कई बार दोनों न्यायालयों के परस्पर विरोधी निर्णयों से स्थिति विचित्र बन जाती थी। इसके अलावा चर्च इस बात पर बल देता था कि चर्च के अधिकारियों तथा कर्मचारियों के विरुद्ध अभियोगों की सुनवाई करने का अधिकार केवल चर्च के न्यायालयों को ही होना चाहिये। अर्थात् यदि वे लोग दोषी भी पाये जायें तो भी राज्य सरकारों को उन्हें दण्ड देने का अधिकार नहीं था। केवल चर्च ही उन्हें दण्डित कर सकता था। इस प्रकार की स्थिति में चर्च के अधिकारी एवं कर्मचारी राज्य प्रशासन की जरा भी परवाह नहीं करते थे और अपने आपको आम नागरिकों से पृथक् विशेषाधिकारयुक्त वर्ग के सदस्य समझने लग गये थे। इससे राजाओं के अहं तथा उनकी प्रभुसत्ता को ठेस पहुँचती थी।

 

(3) चर्च की धन सम्पदा

 पोप और राजाओं के मध्य संघर्ष का एक मुख्य कारण चर्च की धन सम्पदा थी। चर्च के पास बहुत अधिक भूमि थी और इस भूमि से होने वाली उपज पर उसे किसी प्रकार का राजकीय कर नहीं देना पड़ता था। चर्च लोगों से धार्मिक कर भी वसूल करता थाजिससे काफी आय होती थी। धार्मिक न्यायालयों से भी चर्च को आय होती थी। श्रद्धालु ईसाइयों से भी चर्च को काफी धन-दान मिलता रहता था। कुल मिलाकरचर्च काफी समृद्ध था और इसके पदाधिकारी राजाओं के समान ही ऐश्वर्य का जीवन बिताते थे। दूसरी तरफ नवोदित राज्यों के शासकों को शासन कार्यों तथा अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए धन की आवश्यकता थी। इस पर चर्च का यह कहना कि राजाओं को रक्तपातपूर्ण सामन्तीय युद्धों पर धन खर्च करने की अपेक्षा गिरजाघरोंमठों और सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर खर्च करना चाहिए- राजाओं को बिलकुल पसंद न था।

 

(4) मानाभिषेक प्रथा-

संघर्ष का एक अन्य कारण सामन्त प्रथा थी। यूरोप के अनेक विशप सामन्तीय भूमिपति थे। कुछ विशप राजाओं के 'वासाल' (अनुचर) थे और कुछ बिशप राजाओं के सामन्तों के अनुचर थे। दूसरी तरफ ये बिशप धर्माधिकारी होने के नाते पोप के अधीन थे। इसलिए यह सवाल उठा कि बिशप सामन्त की निष्ठाकर्तव्यों और सेवाओं पर पहला दावा किसका हैउसकी मृत्यु के बाद उसकी 'फीफ' (पट्टे की भूमि) का क्या होये और इसी प्रकार के कुछ ऐसे प्रश्न थे जिनको लेकर पोप और राजाओं के मध्य गहरे मतभेद विकसित हो उठे। बिशप सामन्त की मृत्यु के बाद कभी-कभी राजा अथवा बड़ा सामन्त कुछ धन लेकर उसकी फीफ किसी अन्य अनुचर को दे दिया करता था। इसके साथ ही वह बिशप की शक्ति और उसके प्रतीक मुद्रा (अँगूठी) और दंड भी उस नये अनुचर को दे देता था। यह प्रथा जो 'मानाभिषेक' (ले इनवैस्तित्यूर) कहलाती थीचर्च की निगाह में विशुद्ध धार्मिक प्रथा थी और राजा को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था। वस्तुतः इसका अर्थ था - चर्च के अधिकारी की राजा द्वारा नियुक्ति । राजाओं का यह कार्य चर्च के अनुसार धार्मिक मामलों में राजाओं का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप था। इसलिए चर्च हमेशा विरोध करता रहा।

 

पोप और राजाओं के आपसी संघर्ष ने उस समय एक नया मोड़ ले लिया जब ग्रेगरी सप्तम पोप बना। ग्रेगरी सप्तम एक साधारण किसान के घर पैदा हुआ था। शारीरिक दृष्टि से वह दुर्बल था परन्तु मानसिक दृष्टि से बहुत बलवान था। उसने राजाओं द्वारा संपादित की जाने वाली 'मानाभिषेकप्रथा को समाप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। उसका तर्क था कि पोप होने के नाते उसे 'सम्राटों को पदच्युतकरने और 'अन्यायी शासकों के प्रजाजनों को उन शासकों के प्रति निष्ठा की शपथ से मुक्त करने का अधिकार है। उसने यह भी घोषणा की कि पोप सभी शासकों के ऊपर है क्योंकि सभी शासक उसके चरण चूमते हैं। ग्रेगरी की घोषणा का सीधा-सादा अर्थ यह था कि वह किसी भी राजा के विरुद्ध उसकी प्रजा को विद्रोह करने तथा उस राजा को सिंहासन से उतारने का आदेश दे सकता है। परन्तु सम्राट हेनरी चतुर्थ ने 'मानाभिषेक की प्रथा को बन्द नहीं किया। उसने पोप की आज्ञा का उल्लंघन किया। पोप ने हेनरी चतुर्थ को ईसाई समाज से बहिष्कृत कर दिया और पोप के आदेशानुसार हेनरी की प्रजा उसके विरुद्ध उठ खड़ी हुई। बहुत से सामन्त जिनकी शक्ति को हेनरी ने कुचल डाला थाइस अवसर का लाभ उठाने में पीछे नहीं रहे और वे पोप से मिल गये। ऐसी स्थिति में 1077 ई. की कड़ाके की शीत ऋतु में हेनरी चतुर्थ को पोप से क्षमा माँगने इटली जाना पड़ा। पोप उस समय कोनोसा नामक स्थान पर था। हेनरी कोनोसा गया और नंगे सिर और नंगे पैर तीन दिन तक पोप के महल के सामने खड़ा रहा। तीन दिन बाद पोप ने उसे क्षमा कर दिया।

 

उदाहरण - धार्मिक सत्ता ने लौकिक सत्ता को अपमानित करके अपनी सर्वोच्चता का दावा सिद्ध कर दिखाया।

 

हेनरी चतुर्थ इस अपमान को नहीं भुला पाया । इटली से लौटने के बाद उसने 'मानाभिषेककी प्रथा को जारी रखा। मुस्लिम वैज्ञानिकों ने यूरोप के वैज्ञानिकों का मार्ग प्रशस्त किया। रोजर बेकन ने अन्वेषण तथा परीक्षणों पर जोर दिया। वह अपने समय का प्रसिद्ध वैज्ञानिक थाफिर भी वह अपने युग के अन्धविश्वासों से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाया था। उसका भी मानना था कि सर्प दैत्यों (ड्रेगनों) का माँस खाने से अधिक ज्ञान प्राप्त होता है। कीमियागरों तथा फलित ज्योतिषियों ने अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञान की उन्नति में योगदान दिया । कीमियागर अन्य धातुओं से स्वर्ण बनाने में तो असफल रहे परन्तु उनकी रासायनिक क्रियाओं से रसायन विज्ञान के विकास में सहयोग मिला। इसी प्रकार फलित ज्योतिषियों ने ग्रहों एवं नक्षत्रों का अध्ययन कर खगोल विज्ञान को उन्नत बनाया। काँच का सामान. ऐनकों के शीशेयांत्रिक घड़ियाँ आदि बनाकर मध्ययुगीन वैज्ञानिकों ने नये-नये आविष्कारों की आधारशिला रखी। छापाखाना के आविष्कार ने प्रगति को बढ़ावा दिया। सचल टाइप का प्रयोग करके पहला मुद्रण यन्त्र ( छापाखाना) बनाने का श्रेय जर्मनी के जॉन गुटेनबर्ग को है जिसने 1450 ई. में बाइबिल का एक संस्करण छापा था। इससे पाठ्य पुस्तकें तथा अन्य पुस्तकें आम आदमी की पहुँच में आ गईंक्योंकि मुद्रित पुस्तकें हस्तलिखित प्रतियों की तुलना में बहुत सस्ते दामों में मिलने लगी थीं।    

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