सामन्तवाद की संरचना | सामन्तवादी व्यवस्था की विशेषताएँ|Structure Features of Feudalism in Hindi

 

सामन्तवाद की संरचना  विशेषताएँ (Structure of Feudalism)

सामन्तवाद की संरचना | सामन्तवादी व्यवस्था की विशेषताएँ|Structure Features of Feudalism in Hindi


 

सामन्तवाद की संरचना 

सिद्धान्ततः राजा कीचाहे वह दुर्बल ही क्यों न होस्थिति इस सामन्ती पिरामिड में सर्वोपरि थी। राजा के नीचे थे अधीश्वर (Over Lord ) जो सबसे अधिक शक्तिशाली भूमिपति होते थे। ये अधीश्वर कभी-कभी अपनी भूमि का एक भागजो फीफ' (Fief) कहलाता थाअपने से छोटे भूमिपतियों को दे देते थे वे अपेक्षाकृत छोटे भूमिपति इस प्रकार इन अधीश्वरों (सामन्तों) के 'अनुचर' (Vassal) बन जाते थे। ये अपेक्षाकृत छोटे भूमिपति अपने महत्त्व के क्रम से ड्यूक (Duke), काउन्ट (Count), बैरन (Barren ) और नाइट (Knight) होते थे। ये अनुचर अपनी भूमि के कुछ भाग और आगे अन्य भूमिपतियों को दे सकते थे। इस प्रक्रिया से उन्हें अपने उप-अनुचर (Deputy Vassal) बना लेते थे। ये उप- अनुचर फिर आगे ऐसा ही कर सकते थे। चर्च के लोग भूमिपति (Lord), अनुचर (Vassal) या दोनों ही बन सकते थे। इन सामन्ती पिरामिड की सबसे निचली सीढ़ी पर काम करने वाले श्रमिक मुख्यत: कृषक दास (Serf) थे। ये कृषक दास अपनी भूमि के साथ बंधे होते थे। यदि भूमि किसी एक भूमिपति के हाथ से किसी दूसरे के हाथ में चली जाती थीतो ये कृषक दास भी उस भूमि के साथ ही दूसरे भूमिपति के हाथ में पहुँच जाते थे। 


 

किसी अनुचर को 'फीफका हस्तान्तरण बड़ी तड़क-भड़क के साथ एक नाटकीय समारोह द्वारा मनाया जाता था। अनुचर बनने वाला व्यक्ति 'लाई' (अधीश्वर) की गढ़ी में आता था जहाँ इस अवसर के लिये और भी लोग एकत्रित होते थे। लार्ड अपनी गढ़ी के बड़े कमरे में बैठता था और यह आदमी अस्त्र रहित होकर नंगे सिर लोर्ड के सामने घुटनों के बल झुकता था। वह लॉर्ड का हाथ पकड़ता था और इस बात की शपथ लेता था कि वह 'लॉर्ड का आदमीबनकर रहेगा अर्थात् उसके प्रति सदैव निष्ठावान बना रहेगा। चूंकि आदमी के लिये लैटिन शब्द 'होमो' (Homo) हैइसलिए यह शपथ 'होमेज' (Homage) कहलाती थी जिसे भारतीय भाषा हिन्दी में श्रद्धांजलिकहते 4हैं। तब अधीश्वर उस आदमी को उठाकर खड़ा करता था और उसे शान्ति का चुम्बन देता था। इसके बाद अनुचर बाइबिल पर हाथ रखकर इस बात की शपथ लेता था कि वह अधीश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करेगा। यह 'स्वामीभक्ति की शपथ' (Fielty) कहलाती थी। अंत में अधीश्वर उस आदमी ( अनुचर ) का फीफ के साथ 'विनियोगकर देता था अर्थात् उसे भूमि दे देता था। अनुचर को औपचारिक रूप से फीफ प्रदान करने का यह कार्य 'इनवेस्टीचर' (Investiture ) कहलाता था जिसे भारतीय भाषा में 'अनुप्रतिष्ठापनकह सकते हैं। मध्य युग के प्रारंभ में जब बहुत से लोग लिखना नहीं जानते थेसमारोह के इस भाग में इन्हें फीफ का स्वामित्व कागज पर लिखकर नहीं दिया जाता थाअपितु भूमि का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई शाखामिट्टी का एक ढेलादस्तानातलवार या कोई दूसरी वस्तु दी जाती थी। बाद में जब लोग लिखना सीख गये तब संविदा पत्र लिखकर हस्ताक्षर होने लगे। इस तरह होमेजस्वामीभक्ति और विनियोग के पश्चात् वह आदमी अधीश्वर का सामन्त या अनुचर हो जाता था।

 

अनुचरों तथा अधीश्वरों को एक दूसरे के प्रति अपने दायित्वों तथा कर्तव्यों का पालन करना पड़ता था। अनुचर के कर्तव्य बहुत सुनिश्चित होते थेपर स्थान-स्थान पर वे कुछ अलग-अलग थे। वैसे अग्रलिखित तीन कर्तव्य लगभग सभी जगहों में पालनीय माने जाते थे :

 

1. सामन्त ( अनुचर ) को आवश्यकता पड़ने पर प्रतिवर्ष कुछ दिन (प्रायः 40 दिन) अपने अधीश्वर (Lord) की ओर से लड़ाई में भाग लेना पड़ता था। अतः सामन्त का अपने अधीश्वर के प्रति मुख्य दायित्व सैनिक सेवा का था।

 

2. सामन्तों को बहुधा अपने अधीश्वर के न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में बैठना होता था और खबर करने पर उसे अधीश्वर के दरबार में अवश्य उपस्थित होना पड़ता था।

 

3. अवसर पड़ने पर सामन्त को तीन मौकों पर अधीश्वर की सेवा में नजराना (Aid) प्रस्तुत करना पड़ता था । वे मौके थे अधीश्वर के ज्येष्ठ पुत्र के 'नाइटहोने के अवसर पर बड़ी पुत्री के विवाह के अवसर पर और अधीश्वर किसी का वादी बन जाए तो उसके उद्धार के लिये धन माँगे जाने पर।

 

कुछ सामन्तों के कुछ दायित्व ऐसे थेजो विचित्र जान पड़ते हैं। दृष्टांत के तौर पर एक सामन्त का दायित्व यह होता था कि यदि इंगलिश चैनल को पार करते समय राजा की तबियत खराब होने लगे तो वह उसके सिर को संभाले। यह सब उसे फीफ का उपयोग करने और अपने अधीश्वर का संरक्षण प्राप्त करने के बदले करना पड़ता था। इसके बदले में अधीश्वर पर सामन्त की जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती थी।

 

सामन्त को क्षेत्र (फीफ) उसके जीवन भर के लिए ही प्रदत्त होता था। धीरे-धीरे इसके पिता से ज्येष्ठ पुत्र के अधिकार में जाने का रिवाज चल पड़ा। परन्तु हर पीढ़ी में सामन्त होने के समारोह की प्रक्रिया होती थीआज की तरह जमीन के स्वामित्व या तबादले का नियम तब नहीं था। तो भी जीवनभर के लिये क्षेत्र अधिकार में रहने की निश्चिन्तता के कारण बड़े सामन्त अपने को राजा से स्वतंत्र अनुभव करने लगे। छोटे सामन्त (Sub-vassal) भीजो किसी बड़े सामन्त के आश्रित होते थेराजा के प्रति कोई वफादारी महसूस नहीं करते थे। इस तरह सामन्त पद्धति में कुछ सामन्तों के हाथ में राजा से भी अधिक शक्ति होती थी।

 

सामन्तवाद भ्रामक और जटिल था। यदि प्रत्येक सामन्त का स्वामी (Lord) एक ही होतातो सामन्तवाद सरल रहा होता । परन्तु बहुत बार किसी सामन्त को यह निश्चित करना ही कठिन हो जाता था कि वह किसका 'आदमीहै। यह हो सकता था कि उसकी एक फीफ एक भूमिपति से ली हुई हो और दूसरी फीफ बिशप से तथा यहाँ तक कि कोई तीसरी फीफ स्वयं राजा से लगी हुई हो। ऐसी स्थिति में उसके स्वामी भूमिपति एवं उसके सामन्तीय विशप के मध्य लड़ाई छिड़ जाने पर सामन्त जटिल घेराव में पड़ जाता था। अब उसे किसका साथ देना चाहिएवह किसका 'आदमीहै। मान लीजिए कि राजा स्वयं ही अन्य भूमिपति या विशप का सामन्त (Vassal) है। कभी-कभी कोई सामन्त अधिकाधिक भूमि प्राप्त करके अपने ही स्वामी भूमिपति या यहाँ तक कि राजा से भी अधिक शक्तिशाली बन सकता था।

 

कई बार ऐसे समय झमेले में डाल देनेवाली दशा उपस्थित हो जाती थीजबकि कोई ऐसा बिशप मर जाता थाजो सामन्तीय अनुचर भी होता था। तब उसकी फीफ पर चर्च अपना दावा जताता था। बहुत से स्वामी भूमिपति इस बात पर बहुत रुष्ट हो जाते थे कि उनके अनुचर ने अपनी फीफ का कुछ भाग अपने किसी उप अनुचर को दे दिया है। यह उप- अनुचर कोई बिल्कुल अपरिचित व्यक्ति या यहाँ तक कि स्वामी भूमिपति का शत्रु भी हो सकता था । इन अनुचरों तथा अधीश्वरों के दायित्व ठेके या करार जैसे होते थे। फिर भी हजारों सामन्तीय करारों में से बहुत थोड़े ही ऐसे थेजो लिखित थे।

 

सामन्तवादी व्यवस्था की विशेषताएँ (Features of Fuedal System)

 

जागीर (फीफ) सामन्तवाद की एक बड़ी विशेषता है और अपनी इसी विशेषता के कारण सामन्तवाद बहुत वर्षों तक एक स्थायी शक्ति (Stabilising Force) के रूप में अपना अस्तित्व कायम रख सका। मध्य काल के अधिकांश लोग अमीर नहीं हुआ करते थे। समाज के पाँच में से चार आदमी सामन्त व्यवस्था को अपने श्रम के बदले पर चलाते थेक्योंकि अमीर लोग सिवाय सेना में जाने के दूसरा काम नहीं करते थे। जनसंख्या का यह बड़ा भाग मुख्यतः किसानों का होता था। हर अमीर परिवार एक जागीर के बल पर जीवित रहता था। जागीर जमीन का एक बहुत बड़ा हिस्सा होता था और एक-एक सामन्त के पास ऐसी कई जागीरें हुआ करती थीं। हर जागीर में एक गढ़ी या जागीरदार का भवन हुआ करता था जिसमें सामन्त निवास करता थाएक गाँव होता था जिसमें उसके नौकर-चाकर रहते थेएक चर्च होता थाफलों के बगीचे होते थेवाटिकाएँ होती थीं और चारागाह होते थे। हर जागीर में एक दरबार हुआ करता था जिसका सभापति सामन्त होता था। चूंकि जागीर प्राय: दूर-दराज में होती थीइसलिये यह अपने आप में ही हर दृष्टि से पूर्ण तथा आत्मनिर्भर हुआ करती थी। शान्ति के लम्बे कालों में राष्ट्र या समाज अपनी आवश्यकता की सारी चीजों का स्वयं उत्पादन करना अनावश्यक मानते हैं। अपने लिये आवश्यक वस्तुओं को वे अन्य राष्ट्रों या समाजों के साथ व्यापार करके प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु युद्ध काल में या युद्ध के लिये तैयारी करते समय समाज अपनी आवश्यकता की सारी वस्तुओं का उत्पादन करने का प्रयत्न करते हैं। संक्षेप में कहा जाए तो वे आत्मनिर्भर बनने का यत्न करते हैं। निरन्तर होने वाली लड़ाई-झगड़ों और व्यापार में पड़नेवाली बाधाओं ने मध्यकाल की जागीरों को आत्मनिर्भर बनने के लिये प्रेरित किया। किन्तु पूर्ण आत्मनिर्भरता अब की तरह तब भी असंभव थी। दृष्टांत के रूप मेंलोगों को अपनी खाद्य सामग्रियों के परीक्षण के लिये नमक और मसालों का आयात तो करना ही पड़ता थाऔजार बनाने के लिये लोहे का भी आयात करना पड़ता था। फिर भी जागीरें बहुत हद तक आत्मनिर्भर हुआ करती थी। गाँव वाटिका आदि के अलावा उनमें कारखानेखलिहान और शायद एक चक्की भी होती थी। गढ़ के चारों ओर मीलों दूर तक खेत होते थेजो देखने में शतरंज की बिसात जैसे जान पड़ते थे। जागीर के अपने मोची और बढ़ईचक्की चलाने वाले और कलालगड़रिये और सूअरपाल होते थे। सारा काम कृषक दासों तथा स्वतंत्र किसानों को करना होता था क्योंकि शारीरिक श्रम करना सरदार के लिये असम्मानजनक माना जाता था। 


सम्भवत: 100 ई. के रोमन किसान की खेती की पद्धतियाँ 1000 ई. के मध्ययुगीन कृषक दास की खेती की पद्धतियों से अच्छी होती थी। जागीर की जिस भी जमीन पर खेती हो सकती थीउसे तीन बड़े-बड़े टुकड़ों (खेतों) में विभक्त कर दिया जाता था। प्रत्येक किसान को थोड़ी-थोड़ी भूमि दे दी जाती थीजिसमें से कुछ बढ़िया और कुछ घटिया होती थी तथा जो उन तीनों खेतों में अलग-अलग जगह बिखरी होती थी। यदि कोई किसान अपनी किसी भूमि की पट्टी का देखभाल न करता तो उसमें घास-फूस उग आता और उससे साथ वाली भूमि की पट्टी की फसल भी खराब हो जाती। बहुत सी जमीन एक पट्टी से दूसरी तक जानेवाली पगडंडियों के रूप में बेकार पड़ी रहती । मध्यकालीन यूरोपीय किसानों को खादों के प्रयोग तथा महत्त्व का ज्ञान बहुत कम था। उन्हें इस बात का भी ज्ञान नहीं था कि फसलों को बदल-बदल कर बोने के सिद्धान्त का किस प्रकार लाभदायक रूप में प्रयोग किया जा सकता है। वे समझते थे कि भूमि की उर्वरता को बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि वे प्रत्येक वर्ष बारी-बारी से अपने तीन खेतों में से एक को बिना बोये छोड़ दिया करें। उनके लकड़ी के बने हलदरांतियाँ तथा अन्य औजार अनगढ़ होते थे। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि उनकी प्रति एकड़ उपज थोड़ी-सी ही होती थी। वे खेती करने वाले पशुओं का वैज्ञानिक ढंग से संवर्द्धन भी नहीं कर पाते थे। चूंकि अच्छी और बुरी नस्ल के ढोर एक साथ चारागाहों में खुले रूप में घूमते-फिरते थेउनकी सन्तान प्राय: दुबली और छोटी होती थी।

 

सामन्तवादी व्यवस्था में भूमि को लेकर उप- अनुचरों के बीच झगड़े हो जाया करते थे। राजा के सामन्त अक्सर आपस में लड़ा करते थे और कभी-कभी राजा से भी लड़ पड़ते थे। ये युद्ध किसानों द्वारा व्यवहार में लायी जाने वाली जमीन पर होते थे तथा इसमें बर्बाद होनेवाली सम्पत्ति या फसल की कोई परवाह नहीं करता था। चर्च ने सामन्तों के साथ-साथ किसानों पर पड़ने वाले युद्ध के बुरे प्रभावों को देखकर इतनी अधिक लड़ाइयाँ होने पर रोक लगाने की चेष्टा की उसके अनुसार छुट्टियों के दिन ईस्टर के पहले चालीस दिनों परऔर हर हफ्ते के बृहस्पतिवारशुक्रवारशनिवार और रविवार के दिनों पर युद्ध की वर्जना करने के लिए धर्म-संधि की घोषणा की गयी। युद्ध के दौरान किसानोंव्यापारियों तथा औरतों को सताने की मनाही कर दी गयी। किन्तु चर्च को संधि के कार्यान्वयन के लिए कठिनाइयों का अनुभव करना पड़ा।

 

गढ़ (Castle) सामन्तवाद की एक अन्य रोचक विशेषता है। प्रत्येक भूमिपति (Lord) अपनी जागीरों में बनी गढ़ियों में निवास करता था। वह अपना गढ़ ऐसा बनाता था कि वह घेराबन्दी का तिरस्कार- पूर्वक उपहास कर सके।गढ़ियों का प्रमुख उद्देश्य आराम नहीं थाबल्कि सुरक्षा थी। रक्षा की दृष्टि से ये गढ़ साधारणतया सीधी खड़ी चट्टानों पर या द्वीप में ऊँची जगह पर पत्थर से बनाये जाते थे। इनके चारों ओर सुदृढ़ दीवारें घिरी रहती थी और दीवारों के कोनों पर पहरे की चौकियाँ बनी रहती थीं। दीवारों के चारों ओर चौड़ी और गहरी खाई खुदी रहती थी जिसमें कीचड़ तथा पानी भरा रहता था ताकि किसी शत्रु को इन्हें पार करके सीढ़ियाँ लगाने में और दीवार चढ़ने में कठिनाई हो । इसके फाटक पर एक उठाऊ पुल बना रहता था जिसे जरूरत के समय लोगों को भीतर करने के लिए गिराया और दुश्मनों को रोक रखने के लिए उठाया जा सकता था। गढ़ पर घेरा पड़ जाने की दशा मेंके गढ़ रक्षक छत के आसपास बने एक रास्ते पर खड़े होकर या दीवारों और बुर्जियों से बनायी हुई दरारों में से नीचे आक्रान्ताओं पर पत्थर या तप्त शीशा फेंका करते थे या तीर चलाया करते थे। घेरा डालने वाले लोगों के आक्रमण का मुख्य साधन एक चलती फिरती बुर्जी होती थीजिसमें सैनिक होते थे। इस बुर्जी को खाई पर एक अस्थायी पुल बनाकर उस पर से लुढ़काते हुए खाई के पार ले जाया जाता था। आक्रान्त लोग दीवारों को लांघने के लिए सीढ़ियों कालकड़ी की दीवारों को तोड़ने के लिए शहतीरों का और गढ़ की रक्षा व्यवस्थाओं के पार पत्थर फेंकने के लिए एक उपकरण का भी प्रयोग किया करते थे। उनका मुख्य लक्ष्य भीतर बुर्ज ( अन्त कोर्ट) होता था जो 'इंजनकहलाता था। गढ़ी का सबसे दृढ़ और सर्वाधिक सुरक्षित स्थान डंजन ही था। यही एक ऐसा कक्ष थाजहाँ उनके परिवार के अधिकांश क्रिया-कलाप होते थे। यहीं वे खाते थेयहीं मनोरंजन करते थे और यदि किसी हमले में कोई बाहरी दीवार गिर पड़ी तो गढ़ी के सभी लोग रक्षा के लिए अन्त कोर्ट में चले जाते थे।

 

यह गढ़ छोटा-सा बढ़िया दुर्ग तो होता ही थाकिन्तु मध्ययुगीन मुस्लिम प्रासादों की तुलना में यह निवास स्थान की दृष्टि से अत्यधिक असुविधाजनक होता था। गन्दी हवा सील और अंधकार से परिपूर्ण यह गढ़ मनुष्यों की अपेक्षा चूहों के रहने के लिए अत्यधिक उपयुक्त था। दुर्गंध को मारने के लिए पुआल बिछे फर्श पर गुलाब की पंखुरियाँ या पुदीने की पत्तियाँ बिखेरी जाती थीं। इन गढ़ियों में ठंड इतनी अधिक रहती थी कि गर्मीपाने के लिए अंगीठियों का प्रबन्ध रखना पड़ता था। खिड़कियों और दरवाजों के बेतुके पल्लों के कारण हवा खिंचकर भीतर आती रहती थी। गढ़ियों में धुंधलका-सा छाया रहता था क्योंकि उनमें जो खिड़कियाँ होती भी थीं वे दीवारों पर बने मौरवे जैसी होती थी और जिनसे बाहर के किसी दुश्मन को भीतर तीर मार पाना बहुत मुश्किल पड़ता था। फर्शो पर नरकुल या सरकंडे और फूल बिछे रहते थे। जब खाना खाने का समय आता थातब खम्भों के ऊपर तख्ते बिछा दिये जाते थे जो मेज का काम करते थे। मेजों का जूठन कुत्तों के खाने के लिए फर्श पर फेंक दिया जाता था। गढ़ियों में होनेवाले सहभोजों में मसालेदार सूपोंमांसमछली और फलमिष्ठान्न आदि बढ़िया खाद्यों के बारह-बारह तक दौर परोसे जाते थे। भूमिपतिउसका परिवार तथा अत्यधिक सम्मानित अतिथि मुख्य मेज पर भोजन करने बैठते थे। मध्ययुग के पिछले भाग तक भी अंगुलियोंछुरियों और चम्मचों का प्रयोग तो होता थाकिन्तु काँटों और उपवस्त्रों ( नैपकिन) का प्रयोग शुरू नहीं हुआ था। सामन्त लोग कई गढ़ियाँ रखना पसन्द करते थे। इससे जब एक गढ़ी कोजिसमें वे रहते थेहवादार बनाने के लिए कुछ दिन खुला रखने की या उसमें नये सरकंडे बिछवाने की जरूरत पड़ती थी तब वे किसी दूसरी गढ़ी में जा सकते थे। शयनागारों की दीवारों पर पर्दे टंगे होते थेजिन पर सुन्दर मच्छरदानियाँ लगी रहती थीं। परन्तु इन शयनागारों में इन पलंगों पर शयन करने वाले लोगों को एकान्त नहीं मिलता था क्योंकि अतिथि लोग तथा दासियाँ भी इन्हीं में सोते थे। मुर्गियों के बच्चे भी इनमें ही डोलते-फिरते थे।

 

गढ़ी में रहने वाले परिवार का प्रिय खेल शतरंज था। इसके अतिरिक्त चौसरताश वगैरह भी खेले जाते थे। इंग्लैंड में बड़े दिनों पर बच्चे और वयस्क सभी आँख मिचौली खेलते थे। घर के भीतर और बाहर खेला जाने वाला टेनिस और लोमड़ी का शिकार करने जाना लोकप्रिय मनोरंजन थे। लेकिन इन मनोरंजनों के बावजूद मध्यकालीन सामन्तों और उनकी महिलाओं को बहुतेरे दिन निष्क्रियता और मनहूसियत में बिताने पड़ते थे।

 

किन्तु मध्यकालीन अभिजात वर्ग में इस प्रकार के विवाह हुआ करते थे। यदि कोई सामन्त मर जाता और उसकी कन्या होती तो अधीश्वर उससे विवाह कर लेता था। वह इस बात का पक्का निश्चय कर लेना चाहता था कि नया सामन्त उसके प्रति पूर्ण निष्ठावान रहेगा।

 

लड़की को उसके शैशव काल से ही अपने भावी पति को प्रसन्न करने की कला सिखाई जाती थी। अपने प्रश्वास को मधुर बनाने के लिए वह एक प्रकार के सुगंधित बीज चबाया करती थी। पतली बनी रहने के लिये वह संयत भोजन किया करती थी। मनोरंजन का बढ़िया साधन बनने के लिये वह युद्ध-प्रेमी योद्धाओं की उजडु बातचीत सुनने का अभ्यास करती एवं डाँट फटकार कभी न करती। उससे आशा की जाती थी कि वह गानावाद्य बजानानृत्य करना और घोड़े पर चढ़ना जानती होगी। साम्मुख्यो तथा सहभोजों के अवसर पर अपनी तड़क-भड़क दिखाने के लिए मध्ययुग की महिलाएँ अपने सबसे बढ़िया और सबसे सुन्दर कढ़ाई वाले चोंगे पहना करती थीं। उनकी इकहरी देहचमकीले रंगों वाली और कसी हुई पोशाकों में और भी निखर उठती थी। उनके टोपों के कुछ नमूने तितलियों से मिलते-जुलते होते थेकुछ टोप छोटी टोपियों जैसे होते थे। इस बात का पक्का निश्चय रखने के लिए एक बार अपने पति के हृदय पर अपना अधिकार कर लेने के बाद वह उस अधिकार को बनाये रख सकेगीकिसी भी महिला के लिए बढ़िया बुनाई और कशीदाकारी जानना और बढ़िया आतिथ्य सत्कार करना आवश्यक होता था । समय-समय पर अपने पति की अनुपस्थिति में उससे आशा की जाती थी कि वह अपनी जागीर का प्रबंध संभालेगी। फिर भी महिलाओं को बहुत कम कानूनी अधिकार प्राप्त थे। उन्हें जो सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त होती थीवह उनके पतियों की हो जाती थी । पत्नी को पीटना कानून सम्मत था और पत्नियों की पिटाई प्रायः हुआ करती थी ।

 

नाइट बनने की परम्परा का प्रचलन सामन्तवाद के कारण ही हुआ। शायद पहले नाइट जर्मनी के तरुण योद्धा हुआ करते थेजो अपने साथ अपने अस्त्रों को लेकर चलते थे और समूचे कबीले के समक्ष प्रस्तुत किये जाते थे। एक सादे और साधारण से समारोह द्वारा नाइटों को कबीले का समुचित रूप से सदस्य बना लिया जाता था ।

 

कालान्तर में इसी युग में शौर्यता या शूरत्व (Chivalry) का मानक आचार विकसित हो गया जो फ्रेंच (भाषा) के एक शब्द से लिया गया था जिसका अर्थ होता है " अश्वारोही " शौर्य और शूरता के आदर्श ईसाइयत के अनुकूल होते थे और इसलिये दूसरी दृष्टियों से उस निर्मम समाज मेंजिसमें जिसकी लाठी उसकी भैंसका नियम ही लागू थाइसका मानवोचित प्रभाव पड़ता था । नाइटो से उदारताभद्रतादुर्बलों की रक्षा और सम्मानित जीविका और सत्य के लिये लड़ने में निर्भीकता की प्रतिज्ञा करायी जाती थी। वे सदैव अपने प्रतिष्ठित मान के अनुरूप ही जीवन नहीं बिताते थेलेकिन शौर्य उनको इसके लिये प्रयत्नशील होने का एक आदर्श प्रदान करता था ।

 

नाइट बनने की इस परम्परा में कोई अफसर नहीं हुआ करता थाइनका कोई प्रत्यक्ष गठन नहीं था और कोई जन्म से नाइट नहीं होता था । किन्तु नाइट होना इतना सम्मानित समझा जाता था कि राजागण भी नाइट की उपाधि पाने को लालायित रहते थे। कोई आदमी सिर्फ किसी दूसरे नाइट से ही नाइट की उपाधि पा सकता था और उसे यह उपाधि कोई ऐसी बहादुरी का काम करने पर ही दी जाती थी। इस विशिष्ट उपाधि के योग्य और उपयुक्त होता था। सामन्तों के पुत्रों को नाइट बनने की शिक्षा दी जाती थी। जब कोई पुत्र सात वर्ष का हो जाता था तब उसे किसी सामन्त की गढ़ी में भेज दिया जाता था। वहाँ जाकर वह भृत्य बन जाता था। भृत्य के रूप में वह गढ़ी की महिलाओं की परिचर्या करता था। उसके अतिरिक्त वह तराशने तथा खाना परोसने का भी काम सीखता था। किन्तु सबसे बड़ी बात थी शिष्टता और दूसरों का लिहाज करने की शिक्षा । उसे उन सन्तों की शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनायी जाती थीं जिन्होंने ईसाइयत की उन्नति के लिये राक्षसों और दैत्यों से युद्ध किया था। पादरी आमतौर पर नाइटों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे। वे शिकार करनानृत्य करना तथा संगीत वाद्यों को बजाना सीखते थे। चौदह-पंद्रह साल की उम्र होते ही भृत्य की शिक्षा का प्राथमिक काल समाप्त हो जाता था और वह 'स्क्वायरबन जाता था। 


इस काल में वह घुड़सवारी की कलाहथियार चलाने की कला तथा युद्ध प्रशिक्षण कला का प्रशिक्षण लेता था। इस चरण में उसका प्रमुख कर्तव्य था अपने स्वामी के जिरह - बख्तर को लकदक बनाये रखना। जब उसके स्वामी किसी युद्ध में भाग लेने को जाते थे या किसी क्रीड़ा में शामिल होने के लिये प्रस्थान करते थे तो वह भी उनके साथ जाता था। स्वामी के जख्मी हो जाने पर यह आशा की जाती थी कि स्क्वायर उसे युद्ध स्थल से दूर किसी सुरक्षित स्थान पर उठा ले जायेगा। इसके उपरान्त तीसरी स्थिति आती थी और स्क्वायर को नाइट की उपाधि प्रदान कर दी जाती थीं। उपाधि देने का समारोह काफी गंभीर तथा प्रभावशाली हुआ करता था । वह युवक अपने जिरह - बख्तर के साथ चर्च जाता था जहाँ वह सारी रात सिजदे में झुका रहता था। दूसरे दिन सुबह को स्नान करने और नवीन परिधान धारण करने के उपरान्त वह चर्च की प्रार्थना में शामिल होता था। चर्च में वापस आकर वह जिरह बख्तर पहनता था और - फिर वह सामन्त के सम्मुख सत्यनिष्ठापूर्वक नतमस्तक होता था और फिर उसे 'नाइटकी उपाधि मिलती थी। पुराना नाइट उसके कंधे पर तलवार की पल (धार) वाले भाग से तीन बार यह कहते हुए हल्की चोट करता था : "ईश्वर के संत माइकेल और संत जार्ज के नाम पर मैं तुझे नाइट की उपाधि प्रदान करता हूँबहादुर बनोशिष्ट बनोवफादार बनो। "

 

सामंती श्रेणियाँ - 

सामन्तवादी व्यवस्था पिरामिडी थी जो अनेक श्रेणियों के मिलने से बनी थी। इन श्रेणियों काजिनका राजनीतिकआर्थिक तथा सामाजिक महत्त्व था. वृहत उल्लेख करना आवश्यक है।

 

किसान- 

इस व्यवस्था में सबसे निम्न बिन्दु पर किसान थे। जागीर के किसान दो श्रेणियों में विभक्त थे - स्वतंत्र जन और कृषक दास। कुछ थोड़े से किसान स्वतंत्र ठेके पर भूमि लेकर खेती करने वाले खेतिहर थेजो भूमिपति को लगान देते थेपर अधिकांश किसान कृषक दास थे। कृषक दास उस जमीन पर ही रहने को बाध्य थे जिस पर वे गुजर-बसर करते थे। दूसरे शब्दों में कृषक दास का अधिकांश समय अपने भूमिपति की जमीन पर बिना वेतन लिये खेती करने में व्यतीत होता था तथा उसकी फसल का भी कुछ अंश लगान के रूप में भूमिपति के पास पहुँच जाता था। इन कृषक दासों को सड़कोंपुलों और मकानों की भी मरम्मत करनी पड़ती थी। तंदूरचक्की और अंगूर का रस निकालने का पेंच भूमिपति के होते थे। यदि कोई किसान उनका उपयोग करना चाहता था तो उसे शुल्क देना पड़ता था । यदि कोई किसान अपनी फसल को चरते हुए किसी हिरन को मार डालतातो उसकी सजा तुरन्त दी जाती थी तथा वह कठोर होती थी। कभी कभी किसानों का कोई समूह विद्रोह कर बैठता। उनकी लाशें पेड़ों से लटका दी जातींजो अन्य लोगों के लिये चेतावनी का काम करती। एक मध्ययुगीन मठवासी ने भूमिपतियों को भर्त्सना करते हुए कहा था : "तुम कुलीन सरदार भेड़िये हो.....तुम गरीबों के न-पसीने पर जीते हो। तुम आततायी खून और उत्पीड़क हो।"

 

यद्यपि कृषकदास वस्तुतः दास नहीं थेकिन्तु उन्हें स्वतन्त्रता बहुत कम प्राप्त थी। एक कृषकदास अपने भूमिपति की अनुमति के बिना जागीर को अस्थायी रूप से भी छोड़कर नहीं जा सकता था। उसे अपनी भावी पत्नी के लिए भी अपने भूमिपति की स्वीकृति प्राप्त करनी होती थी। जिस प्रकार वह भूमि के साथ बँधा थाउसी प्रकार उनका मन अंधविश्वासअज्ञानता तथा निरक्षरता से बँधा हुआ था। उसे न तो विद्यालय में जाकर और न समाज के लोगों के साथ विचार-विनिमय करके ही शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिलता था। फिर भीकभी-कभी प्रतिभा सम्पन्न कृषक दासों को चर्च के विद्यालय में भर्ती होने के लिए छात्रवृत्तियाँ मिल जाती थीं ।

 

कुछ खास घटनाओं तथा परिस्थितियों के चलते कृषकदास स्वतंत्र बनाये जा सकते थे। यदि कोई कृषकदास भाग जाये और एक साल तथा एक दिन बाहर ही रह जाये तो वह स्वतंत्र था जहाँ चाहे वह भागकर जा सकता था। आसपास की जागीरों में उसे प्रवेश नहीं मिल सकता था और नगरों में उसे जीविका चलाने के लिये बहुत कम ही काम मिल पाता था । यदा-कदा सामन्त अपने किसी कृषकदास को किसी असाधारण सेवा के उपलक्ष्य में स्वतंत्र बना दिया करता था। इसके अतिरिक्त नया स्वामी मिलने पर वह उसके यहाँ जा सकता था। जागीर (Manor) का वह छोटा सा गाँवजिसमें कृषकदास रहते थेएक कमरे की झोंपड़ियों का बना होता था जिसका छप्पर फूस का तथा फर्श कच्ची मिट्टी का बना होता था। झोंपड़ी में कोई खिड़की नहीं होती थी। इसकी दीवार आसपास से जुटाए हुए पत्थरों को चुनकर बनायी जाती थीं। कृषकदास अक्सर कच्ची जमीन के फर्श पर ही आग जलाया करते थे और उसक धुंआ दीवारों में बनी दरारों से होकर निकलता रहता था। मौसम खराब होने पर उनकी मुर्गियां या सूअर भी अक्सर शरण लेने के लिये झोंपड़ी में आ जाते थे। मकान में सामान बहुत कम और बेढंगे हुआ करते थे। परिवार एक कोने में या एक मचान पर सो रहता था। इन मकानों में रहने वालों का जीवन बड़ा रद्दी हुआ करता था । मैली-कुचैली पोशाक पहने उसकी पत्नी पनीरकाली रोटी और कभी-कभी सूअर के नमकीन मांस का मोटा भोजन तैयार करती थी। कृषकदास अपना लम्बा और धूल भरा कुरता और ढीला ऊनी पायजामा पहने तथा शायद अपने लकड़ी के खड़ाऊँ सरीखे जूते या चमड़े के बूट तक पहने पहने पुआल के ढेर पर सो जाया करता था। बहुतेरे बच्चे पैदा होते थेलेकिन चूँकि सफाई बहुत कम होती थी और दवा-दारू के बारे में भी अच्छा ज्ञान नहीं थाइसलिये कृषकदास का आयुष्य काल छोटा ही होता था और मृत्यु का अनुपात काफी ऊँचा होता था। खाने-पीने का भी उनके पास उतना ही अभाव था जितना कपड़ों का। आमतौर से बिना खमीर डाली हुई रूखी-सूखी जौ की रोटी फलीप्याज और बंदगोभी खाते थे। हालांकि किसानों को जागीर में पड़ने  वाले नदी-नालों में मछलियाँ पकड़ने की अनुमति थीलेकिन फिर भी माँस उनको छठे छमासे ही मिल पाता था । यदि जागीर में कहीं थोड़ा-बहुत नमक मिलता भी था तो उसका उपयोग किफायत से करना पड़ता था। मीठे के नाम पर उन्हें किसी प्रकार शहद मिल पाता था। जब कभी सूखा पड़ता था या जब लड़ाई से या शिकारियों के दल द्वारा फसल रौंद दी जाती थीतब किसानों को भीषण कष्टों को सामना करना पड़ता था। उनमें से बहुतेरे तो भूखों मर जाते थे। फिर भी वे कभी बेकार नहीं रहते थे। उन्हें जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था। अकाल या युद्ध के दिनों को छोड़कर उन्हें इस बात का भरोसा रहता था कि उन्हें खाने को तो मिल ही जायेगा। चर्च उन्हें आध्यात्मिक शिक्षा देता था। कभी-कभी यह अन्य लोगों के साथ मिलकर गाँव के हरे मैदान में खेल खेलता। उनके जीवन में कुछ उल्लासमय क्षण भी होते थेजैसे क्रिसमस और मई दिवस के समारोह । किन्तु उनका जीवन निराशा से भरा और कठोर था।

 

कृषक तथा कृषकदास के बाद अधीश्वर और सामन्त थे जिनको मिला-जुलाकर लॉर्ड या सामन्त कह सकते हैं। सामन्ती यूरोप में मनुष्यों का प्रबंधक बैरोन (Baron ) था जिसे लैटिन में डोमिनस (Dominus), फ्रेंच में सीजनियर (Seigneur) जर्मन में हर (Herr) अंग्रेजी में लॉर्ड (Lord) कहा जाता था। इनके तीन उत्तरदायित्व थे- अनुचरों या कृषकों तथा उनकी भूमि की रक्षा करना इन भूमियों पर खेतीउद्योग तथा व्यापार का संगठन करना और युद्ध के समय राजा की सहायता तथा सेवा करना । जिन्होंने इस प्रकार का संरक्षण दियावे ही भूमिपति या अधीश्वर बन गये। भूमिपति होने के कारण वे दिनोंदिन धनी होते गये। कृषकदास तथा अनुचरों पर उनके अधिकार तथा नियंत्रण कायम थे। वही अनुचरों को तथा अनुचर कृषकदासों को जीवन भर के लिए भूमि देते थे। कृषकदास इसके बदले अपने स्वामी की अनेक प्रकार की सेवायें किया करते थे। भूस्वामी भोज के समारोहों के समय अपने गढ़ का प्रवेश द्वार खोलता था और सारे कृषकदासों को भोजन कराता था। वह पुलोंसड़कोंनहरोंव्यापार आदि की व्यवस्था करता था । जागीर में वह बाजार की व्यवस्था करता था और विभिन्न उत्पादित सामग्रियों (जिसके उत्पादन कृषकदास ही होते थे) की बिक्री की व्यवस्था करता था। वह अपनी जागीर में न्यायाधीश भी था और कृषकदासों को जुर्माना लगाता था।

 

सामन्त- 

लॉर्ड रंगीन सिल्क के परिधान धारण करते थे और काँख तले से वस्त्र निकालकर सिर तक ले जाते थे। वे छोटे जांघिया और कच्छा भी पहनते थे। पैरों को बूट (लम्बे जूते) से ढकते थे। कमर में बेल्ट पहनते थेजिसमें तलवारें लटकती रहती थीं अधीश्वर सुबह में बिछावन का त्याग करता थामीनार पर चढ़ता थाद्रुतगति से जलपान करता था और आम जनता के बीच पहुँच जाता था। वह नौ बजे ही भोजन करता था और दिन भर जागीर के विभिन्न कार्यों की देखरेखसमस्याओं का निदान आदि करता रहता था। वह रसोई पकाने वालेसेवकों आदि को दिन भर आदेश देता रहता था और अनेक आगन्तुकों के साथ शाम में पाँच बजे पुनः भोजन करता था। नौ बजने पर वह अपने शयनकक्ष में चला जाता था। कभी-कभी शिकार में भी वह जाता था जिसके कारण उस दिन के बेलाचक्र में परिवर्तन आ जाता था।

 

अधीश्वर की पत्नी भी उनके समान ही कार्यों में व्यस्त रहा करती थी। उसकी अनेक संतानें होती थीं. इसलिए वह अपनी सेवा में अनेक सेवकों को रखती थी। सेवक न केवल उसके बच्चों की देखभाल करते थे अपितु उसके रसोई की सफाईघरमुर्गी घर आदि की भी देखभाल करते थे। घी तथा मक्खन तैयार करने के काम शराब बनाने का कामजोड़े के लिए मांस बनाने का काम आदि भृत्यों की सहायता से करने में वह व्यस्त रहा करती थी। अगर उसका पति युद्ध में चला जाता था तब वह जागीर का सारा भार अपने कन्धों पर ले लेती थी और आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भूमि में उसके पास धनराशि भेजती थी। अगर उसका पति युद्ध बंदी हो जाता था तब वह पैसे भेजकर उसे छुड़ाने का प्रबन्ध करती थी। अगर उसका पति निःसन्तान मर जाता था तब जागीर का उत्तराधिकार उसे प्राप्त हो जाता थाकिन्तु यह आशा की जाती थी कि वह पुनर्विवाह करके सन्तान उत्पन्न करेगी जो उसकी जागीर को संरक्षण देगा। उसकी सन्तान विद्यालय शिक्षा से भिन्न प्रकार की शिक्षा ग्रहण करती थी। लॉर्ड के बच्चे शायद ही कभी आम विद्यालय में पढ़ते थे। लिपिक ही लिखना पढ़ना सीखते थे। नाइट बौद्धिक ज्ञान का निरादर करते थे। डू गूसक्लिन (Du Guesclin) नामक एक नाइट ने युद्ध की कला का प्रशिक्षण लिया और हर मौसम के भौगोलिक कष्टों के सहन की शक्ति बढ़ायी । किन्तु पढ़ने-लिखने के लिये उसने कभी भी कष्ट नहीं उठाया। समस्त मध्य यूरोप में केवल इटली और विजेन्ताइन के कुलीन ही लिखने-पढ़ने में अभिरुचि दिखलाते थे। नाइट परिवार के शिशु स्कूल की जगह सामन्त के परिवार में भेजे जाते थे। इस परिवार में ये आज्ञा पालनप्रशासनिक कलारहने के तौर-तरीकेनाइट के प्रतिष्ठित नियमयुद्ध-कला आदि का ज्ञान प्राप्त करते थे। स्थानीय पादरी उन्हें कुछ आध्यात्मिक शिक्षा देता था । लड़कियों को सैकड़ों उपयोगी कला का ज्ञान दिया जाता था। वे अतिथियोंयुद्ध या क्रीड़ाओं से लौटते नाइटों हुए का ख्याल करती थीं। युद्ध से वापस आये नाइटों के हथियारों को वे खोलती थींउनके स्नान का प्रबन्ध करती थींवस्त्रों को सुगंधित करके उन्हें धारण करने के लिए देती थीं। वे लिखने-पढ़ने में भी गहरी अभिरुचि दिखलाती थीं। युग के रूमानी गद्य तथा पद्य से अपना मनोविनोद करती थीं।

 


चर्च - 

सामन्तवादी व्यवस्था की एक और महत्त्वपूर्ण श्रेणी थी- सामन्ती चर्च । कभी-कभी सामन्त बिशप अथवा एबॉट का भी काम करता था। यद्यपि अनेक मठवासी अपने हाथों से काम करते थे और अनेक मठ करों के कारण धनी हो गये थेफिर भी उन्हें राजाओं या सामन्तों से जमीन के दान के रूप में काफी मदद मिल जाती थी। दान के रूप में भूमि की प्राप्ति होने के कारण मध्ययुगीन यूरोप में चर्च सबसे बड़ा भूस्वामी हो गया और इस प्रकार सामन्तवाद के संगठन का एक महत्त्वपूर्ण पत्थर फूल्डा ( Fulda) के मठ को 15,000 जागीरें थीं। इसी प्रकार संत गॉल (St. Gall) को 2,000 कृषकदास और टूर्स के अलकूइन को 20,000 कृषकदास थे। राजा से बिशप एबॉटआर्कबिशप कानूनी अधिकार ( Investiture ) पाते थे और सामन्तों तथा अन्यों की तरह उसके प्रति निष्ठावान बने रहने की शपथ लेते थे। सामन्तों की तरह सामन्ती चर्च भी टैक्स (Tithes) लेते थेसिक्के चलते थेन्याय का काम करते थे और युद्ध तथा कृषि का कार्य करते थे। जर्मनी और फ्रांस के विशप बहादुर तथा लड़ाकू होते थे और उसका दावा था कि उनकी तरह इंग्लैंड के विशप बहादुर नहीं है। इस तरह चर्च भी इस काल में एक राजनीतिकआर्थिक तथा सैनिक संस्था के रूप में परिणत हो गया था। सामन्तवाद ने चर्च का सामन्तीकरण ही कर दिया था। राजा - सामन्तवाद के शीर्ष बिन्दु पर राजा का आसन था। सारे सामन्तों के लिए एक लॉर्ड कीसारे संप्थभुओं के लिए एक राजा की आवश्यकता थी। सिद्धान्ततः राजा ईश्वर का अनुचर था और ईश्वर की आज्ञा पर दैवी अधिकारों के बल पर शासन करता था। दूसरे शब्दों मेंराजा को ईश्वर द्वारा शासन करने का अधिकार मिला थापर व्यावहारिक धरातल पर वह निर्वाचन के द्वारा राजपद पाता था या पैतृक अधिकार के बल पर शासक बनता था या युद्ध में विजय प्राप्त कर गद्दी पर अधिकार करता था। शार्लमाँओटो द्वितीयविलियम द कन्कर (William the Conquerer) फिलिप आगस्टमलुई नवाँफ्रेडेरिक द्वितीय जैसे लोग अपने पैतृक अधिकारों में अपने चरित्र बल या हथियारों के कारण वृद्धि की थी किन्तु सामन्ती यूरोप के राजा लोगों के राजा न थे प्रत्युत सामन्तों के दूत थे। वे बड़े बैरनों द्वारा निर्वाचित होते थे और उनको अपनी जागीर (Manor) में वे नियन्त्रित अधिकारों को प्रयुक्त करते थे। राजा संरक्षण देने में असमर्थ थेइसलिए लोग सामन्तों के प्रति ही निष्ठावान बने रहने की शपथ लेते थे। इस व्यवस्था में राज्य ही राजा की जागीर थी।


गॉल (Gaul) में कैरोलिजियन साम्राज्य केंद्र की शक्ति में ह्रास हो गया था और अशान्ति तथा अराजकता पर सामंतों ने अधिकार पाकर लोगों को संरक्षण दिया था। अतः यहाँ राजा का महत्त्व जाता रहा था और वह राजकुमारोंड्यूकोंमार्श्विसों और काडण्टों से थोड़ा ही ऊँचा थापर सच्चाई यह है कि व्यवहार में वह भी राज्य का सामन्त ही था । वह साधारण सा टैक्स लेता था और युद्ध के समय सामन्तों से सैनिक सहायता लेता था। सहायता पाने के लिए वह सबल लोगों को जागीर देने लगा था। ग्यारहवीं तथा बारहवीं सदियों में फ्रांस के राजा के पास सर्वाधिक छोटा राज्य बच गया था जिसके संरक्षण के लिए वह पूर्णत: सामन्तों पर निर्भर करने लगा था। जब सामन्तों ने अपनी पैतृक जागीर प्रारम्भ कीसिक्के ढालने प्रारंभ किये पृथक् प्रशासन की नींव डालने के लिए पुलिस तथा न्याय विभाग का संगठन करने लगे तो राजा के पास इतनी शक्ति नहीं थी कि वह उन्हें ऐसा करने से रोक सके और उनकी शक्ति पर नियन्त्रण कायम कर सके। वह केवल राजधानी को किसी प्रकार बचा सका और उसके सम्पूर्ण राज्य में जागीरों तथा सामन्तों का प्रभाव कायम हो गया। उनकी जागीरों में अब न तो वह अपने अफसरों तथा राजा व अधिकारियों को भेज सकता था और न उन्हें युद्ध तथा संधि करने के लिए रोक सकता था। राजा ही सामन्त हो गया था और सामन्त ही राजा बन गये थे। सामन्ती सिद्धान्त में फ्रेंच राजा ही सामन्तों की सारी जमीन का स्वामी था जिसे वे अपना संप्रभु कहते थेकिन्तु वास्तविकता यह थी कि वह केवल बड़ा भूमिपति था और चर्च की तरह भी प्रभावशाली न रह सका।

 

किन्तु जिस तरह राजभक्ति के क्षय तथा विनष्ट होने पर सामन्तवाद का जन्म और विस्तार हुआ उसी प्रकार व्यापार के विकास तथा शान्ति स्थापना के लिए एक सरकार की स्थापना करने में सामन्तों के असफल होने पर राजा की शक्ति पुनः बढ़ चली और बैरनों की शक्ति घटी। धर्मयुद्धसौ वर्षीय युद्धगुलामों की लड़ाई तथा आपसी द्वेष तथा मतभेद के कारण सामन्तों का खून बहा और वे शक्तिहीन हो चले। कुछ बैरन तो दस्यु हो गये और लूटपाट तथा हत्या का कार्य करने लगे। पुनः एकीकृत राज्य (राजतंत्रीय व्यवस्था) की बात सोची जाने लगी और इसके लिए राजा के अधिकारों की पुनर्स्थापना की बात करने लगे। सामन्तवादी परिधि से बाहर व्यापार वाणिज्य के कारण एक धनी वर्ग ने जन्म ले लिया। व्यापारियों ने जागीरों के मार्ग की अनुरक्षा पर क्षोभ करना प्रारंभ किया और यह कहने लगे कि सामन्ती कानून या गैर-सरकारी कानून को हटाकर राजकीय कानून का प्रतिष्ठान किया जाए और सामन्तों के प्रभाव को हटाकर राजकीय सरकार का पुनर्गठन किया जाए। इससे व्यापार को सुरक्षा मिलेगी तथा उसका उत्तरोत्तर विकास भी होगा। इस प्रकार सामन्ती जागीर के शासन की जगह केंद्रीय शासन की आवश्यकता का गम्भीरता से अनुभव किया जाने लगा। राजाओं से इस व्यापारी वर्ग के लोगों तथा नवोदित नगरों ने गठबंधन करना प्रारंभ किया और कथित वर्ग ने राजा को आर्थिक सहायता देकर उसकी शक्ति की वृद्धि में चार चाँद लगाने लगे। इसके अतिरिक्त सामन्तों द्वारा उत्पीड़ित तथा त्रसित लोग भी त्राण तथा संरक्षण पाने के लिए आशाभरी दृष्टि से राजाओं की ओर देखने लगे। राजा एक था और कानून की परिधि में था । सामन्त अनेक थे और बिखरे हुए थे तथा उनमें से बहुतेरे अत्याचारी तथा संभोगी थे। अतः यूरोप के धार्मिक संघ तथा जनों ने भी सामन्तों की बजाय राजा का ही समर्थन करना प्रारंभ  किया। इस मनोवैज्ञानिक तथा अनुकूल चिन्तनधारा से लाभ उठाकर फ्रान्स तथा इंग्लैंड के लोगों ने पैतृक अधिकार के बल पर राजपद पाना प्रारंभ किया और निर्वाचन की प्रणाली को धता बता दिया। अपनी मृत्यु के पूर्व अपने पुत्र या भाई की ताजपोशी करने लगे। लोगों ने सामन्ती निरंकुशता की जगह पैतृक राजतन्त्र को सहर्ष स्वीकार कर लिया। यातायात की सुविधा होने से तथा मुद्रा के अधिकाधिक संचालन से नियमित रूप से कर का आगमन भी प्रारंभ हो गया। करों की वृद्धि से राजकोष सम्पूरित होने लगा जिससे सेना का संगठन करना राजाओं के लिए आसान हो गया। जूरियों के नये वर्ग ने भी राजगद्दी का समर्थन किया और पुनरुज्जीवित रोमन कानून से इसे दृढ़ बनाया। सन् 1250 ई. तक जूरियों के बल पर सारे लोगों पर राजा की शक्ति पुनः स्थापित हुई और फ्रांस के लोग पुनः राजा के प्रतिन कि सामन्तों के प्रतिनिष्ठावान बने रहने की शपथ लेने लगे। तेरहवीं सदी के अन्त तक फिलिप द फेयर (Philip the Fair) इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने न केवल अपने बैरनों की शक्ति का दमन किया अपितु पोप पर भी कब्जा जमाया।

 

बड़े-बड़े सामन्तों ने 'क्यूरिया रेजिस' (Curiaregis) या राजा के दरबार (King's Court) का संगठन कर लिया और अब वे अधिकारी पुरुष ( Potentates) की जगह 'दरबारी' (Courtiers) बन गए। उनके गढ़ अब सार्वजनिक भवन या राजा के शयन कक्ष के रूप में परिणत हो गये। सामन्तों के पुत्र-पुत्री राजा-रानी की सेवा में भेजे गये जहाँ वे दरबार के तौर-तरीके सीखने लगे। 'रीम्स' (Reims) में होने वाले फ्रेंच राजा के राज्याभिषेक तथा फ्रांकफोर्ट में होने वाले जर्मन राजा के राज्याभिषेकराज्यशक्ति की बढ़ती शक्ति तथा सुदृढ़ता के द्योतक हैं। राज्य के सारे बड़े कुलीन तथा नेता ने राज्याभिषेक समारोह में भाग लिया और चर्च ने समारोह का परिसमापन किया। राजा पहले की तरह पुनः दैवी अधिकारों से सम्मानित तथा प्रतिष्ठित हुआ ।

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