विवाह की अवधारणा तथा अभिप्रेणाएँ |विवाह के उद्देश्य |Concept of Marriage in Human Life

 

विवाह की अवधारणा तथा अभिप्रेणाएँ

विवाह की अवधारणा तथा अभिप्रेणाएँ |विवाह के उद्देश्य |Concept of Marriage in Human Life


 

विवाह की अवधारणा तथा अभिप्रेणाएँ प्रस्तावना ( Introduction) 

विविध संस्थाओं के अध्ययन के लिए विविध विज्ञान पृथक सन्दर्भों का प्रयोग करते हैं। समाज वैज्ञानिकों ने भी विविध क्षेत्रों में विवाह संस्था की कल्पना विविध प्रकार से की है। विवाह के सम्बन्ध में प्रचलित विचार यह हैं कि यह स्त्री पुरुष के बीच का संयोग है जबकि लॉवी (Lowie), मरडॉक (Murdock ) तथा वेस्टरमार्क (Westermark) जैसे मानवशास्त्रियों ने इस संयोग में सामाजिक स्वीकृति पर बल दिया है और इस तथ्य पर कि यह विविध संस्कारों एवं समारोहों द्वारा किस प्रकार सम्पन्न होता है। ब्लडलांज और स्नाइडरबोमनबाबर और बर्जेस जैसे समाजशास्त्रियों का के वचार है कि विवाह प्राथमिक सम्बन्धों की भूमिकाओं की एक व्यवस्था है। भारतशास्त्री (Indologists) विवाह को एक संस्कार या एक धर्म मानते है। परम्परागत एवं आधुनिक हिन्दू विवाह व्यवस्था का अध्ययन करने से पूर्व हम विवाह की अवधारणा एवं सामाजिक महत्व को समझने का प्रयत्न करेगें।

 

विवाह की अवधारणा तथा अभिप्रेणाएँ (Concept and Motivations of Marriage ) 

प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में अनेक भूमिकाओं का निर्वाह करना होता हैया यह कहा जा सकता है कि जीवन अनेक भूमिकाओं का एक संयोग है जिन्हें विविध संस्थाओं के परिवेश में निभाना होता है। विविध भूमिकाओं में दो भूमिकाएं अहम् हैं: एक हैं आर्थिक भूमिका और दूसरी है वैवाहिक या परिवार की भूमिका । प्रथम भूमिका नि:संदेह ही प्रमुख हैं क्योंकि व्यक्ति अपने जीवन का एक बड़ा भाग इसी भूमिका में लगाता है। मान लें कि व्यक्ति अपना जीविकोपार्जन 20 से 24 वर्ष की आयु में प्रारम्भ करता है और 58 से 62 वर्ष की आयु तक निरन्तर इस कार्य में व्यस्त रहता है तथा नित्य आठ या दस घण्टे अपने काम पर खर्च करता हैतो हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारी आर्थिक भूमिका हमारा कितना समय लेती है। वैवाहित भूमिका की अपेक्षा वैवाहिक भूमिका ही अहम् हैक्योंकि आर्थिक भूमिका में द्वितीयक सम्बन्ध सम्मिलित होते हैं और वैवाहिक भूमिका में प्राथमिक सम्बन्ध ।

 

प्राथमिक सम्बन्ध आवश्यक रूप से असीमितविशिष्ट भावात्मकपरमार्थवादीएवं शाश्वत ( spontaneous), होते हैं। दूसरी ओरद्वितीयक सम्बन्ध प्रारम्भिक रूप से सीमितप्रामाणित (standardized), अभावनात्मक ( unemo- tional), उपयोगितावादी और संविदात्मक (contvactual) होते हैं। विवाह के प्राथमिक सम्बन्ध अन्य प्राथमिक समूहोंजैसे मित्र समूहपड़ौसगाँव आदि के प्राथमिक सम्बन्धों से भिन्न होते हैक्योंकि वैवाहिक सम्बन्ध यौन सम्बन्धों पर आधारित हाते हैं और यौन संबंध स्त्री पुरुष के बीच स्थाई तथा निकटतक सम्बन्ध स्थापित करते हैं। विवाह में प्राथमिक सम्बन्ध दो महत्वपूर्ण कार्य करते हैआवश्यकता पूर्ति तथा सामाजिक नियंत्रण। यह व्यक्ति की जैविक ( यौन सन्तुष्टि)मनोवैज्ञानिक ( स्नेह और सहानुभूति) और आर्थिक ( भोजनवस्त्र एवं निवास) आवश्यकताओं को पूर्ति करता है तथा नैतिकता एवं नीतिशास्त्र के प्राथमिक श्रोत का कार्य करता है। जब एक व्यक्ति यह देखता है कि उसका जीवन साथी उसके लिए कोई कार्य कर रहा हैतो वह सोचता है कि यह उसका नैतिक दायित्व है कि वह उसकी देख भाल करे या उसकी बात सुने । अतः कोई भी व्यक्ति अनैतिक तथा उत्तरदायित्वहीन नहीं है।

 

'विवाहका अध्ययन करते समय एक समाजशास्त्री इसमें निहित प्राथमिक सम्बन्धों का विश्लेषण नहीं करताबल्कि इसका भी करता है कि किस प्रकार विवाह में नयीं और विभिन्न भूमिकाएं सम्मिलित हैंतथा क्या उन भूमिकाओं में लिप्त व्यक्ति उनके योग्य है या नहींतथा उन भूमिकाओं को निभाने की निर्योग्यता से किस प्रकार परिवार विघटन होता है। विवाह में महत्वपूर्ण बात यह है कि किस प्रकार एक साथी का भूमिका निर्वाहन दूसरे साथी की भूमिका अपेक्षाओं के कितना अनुकूल है।

 

कूस के अनुसार विवाह एक विभाजन रेखा है जो कि जनक परिवार ( family of orientation ) तथा जनन परिवार (family of procreation) के बीच दोनों परिवारों में व्यक्ति की भूमिका के सनदर्भ में खींची गई है। जनक परिवार में भूमिकाएं शैशवबचपन तथा किशोरावस्था में बदलती रहती हैं तथा उनमें उत्तरदायित्व या दायित्व बोध नहीं होताकिन्तु जनन परिवार में भूमिकाएं विवाह के बादपति के रुप मेंधन अर्जन कर्त्ता के रूप मेंपितामह के रुप में तथा अवकाश प्राप्त व्यक्ति के रुप में विविध अपेक्षाओं एवं दायित्वों वाली होती है।

 

विभिन्न भूमिकाओं से आलिप्त जनक परिवार तथा जनन परिवार में विविध अवस्थाएं

विवाह की अवधारणा तथा अभिप्रेणाएँ (Concept and Motivations of Marriag

 

इस प्रकार विवाह समाज व्यवस्था का सूक्ष्म प्रारूप है जिसे सन्तुलन में रहना चाहए अन्यथा सब कुछ विखर सकता है। सन्तुलन के लिए समायोजन की आवश्यकता होती है जो आदान-प्रदान पर आधारित होता है या पति व पत्नी दोनों से ही त्याग की अपेक्षा रखता है। यह एक युग्म व्यवस्था है। सन्तुलन बनाए रखने के लिए किसी को तो कुछ कार्य करने ही होंगेजैसे खाना बनाने का सफाई कपड़े धुलाई धन कमानेबच्चों की देखभालआदि का कौन क्या भूमिका निर्वाह करता हैयह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि यह कि विवाह के स्थायित्व के लिए कोई भूमिका निभा रहा है।

 

विवाह में साधन (instrumental) तथा एकीकृत (integrative) नेतृत्व निहित होता है। साधक नेता कार्य को कराने से सम्बन्ध रखता है तथा समूह को लक्ष्य प्राप्ति की ओर ले जाता है। एकीकृत नेता समूहों को एकीकृत करने में लगा रहता है। इस प्रकार दोनों भूमिकाएं परस्पर विरोधी हैंफिर भी एक दूसरे की पूरक हैं। समाजशास्त्री विवाह के अर्न्तगत इन्हीं भूमिकाओं का अध्ययन करते हैं।

 

1 विवाह में अभिप्रेणाएँ 

सभी भूमिकाओं के पीछे कुछ अभिप्रेरणाएं होती हैं विवाह के पीछे क्या अभिप्रेरणा हैयह मान्यता है कि प्रारम्भिक काल में व्यक्ति विवाह इसलिए करता था क्योंकि जीवनयापन की समस्या उसके सामने थी। आर्थिक कारणों से मनुष्य को बच्चों की आवश्यकता होती थीजो न केवल उन्हें काम में मदद करेंबल्कि जब माता-पिता कार्य करने योग्य नहीं रहें तब बच्चे बीमें के समान उनके काम आ सके। उन्हें खेतों पर काम करने के लिए अधिक स्त्रियों की आवश्यकता होती थी। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रारम्भिक काल में विवाह में प्रेम और सहयोग नहीं था और केवल व्यावहारिक कारण ही अधिक महत्वपूर्ण थे। बोमैन (Bowman) के अनुसार विवाह के मूलभूत उद्देश्य हैं: यौन सन्तुष्टिघर और बच्चों की इच्छामित्रतासामाजिक स्थिति और सम्मान तथा आर्थिक सुरक्षा एवं संरक्षण । पोपनो ने विवाह के पांच तत्व बताए हैं: यौन इच्छाश्रम विभाजनघर और बच्चों की इच्छा. मित्रता तथा आर्थिक सुरक्षा बोमैन ने व्यक्तित्व सन्तुष्टि को विवाह का उद्देश्य नहीं माना है। वह कहते हैं कि यह विवाह का उद्देश्य नहीं बल्कि प्रतिफल है।

 

मजूमदार के अनुसार यद्यपि नियमित तथा सामाजिक मान्यता प्राप्त यौन सन्तुष्टि विवाह का मूल कारण हैफिर भी यह एक मात्र और अन्तिम कारण नहीं है। उन्होंने सेमा नागाओं का उदाहरण दिया है। जिनमें एक बच्चा अपने पिता की विधवा ( माँ के अलावा) से विवाह कर लेता है ताकि उसकी सम्पत्ति पर अधिकार कर सकेक्योंकि उनके जनजातीय रिवाजों के अनुसार पुरुष की विधवा सम्पत्ति की अधिकारी होती हैन कि बच्चे। इस प्रकार मजूमदार की मान्यता हैं कि विवाह के उद्देश्य हैं: यौन सन्तुष्टिबच्चों के लालन पालन के विश्वसनीय सामाजिक तरीकासंस्कृति का संक्रमण आर्थिक आवश्यकताएं तथा सम्पत्ति का उत्तराधिकार

 

आज जब 'परम्परागतसमाज 'आधुनिकसमाज में बदल रहा हैविवाह के लिए इन व्यावहारिक कारणों का महत्त्व कम होता जा रहा है। आज विवाह के जो प्रेरक कारक माने जा रहे हैंवे हैं एकाकी पन की भावना से छुटकारा तथा दूसरों के माध्यम से जीवित रहने का उद्देश्य । सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि आज विवाह का प्रमुख उद्देश्य मित्रता या सहयोग प्राप्ति होता है । यौन सन्तुष्टि इसके क्षेत्र से परे नहीं है परन्तु यह अब मित्रता की अपेक्षा गौण हो गया है।

 

परम्परागत हिन्दू समाज में विवाह के उद्देश्य निम्न माने जाते थे धर्मप्रजा तथा रति । इनमें से धर्म को सर्वाधिक महत्व दिया गया हैतत्पश्चातसन्तानोत्पत्ति तथा यौन सन्तुष्टि को दफ्तरी ने भी कहा है कि यौन आनन्द हिन्दू विवाह का मात्र उद्देश्य नहीं माना गया है। प्रमुख उद्देश्य या धर्म अर्थात कर्त्तव्य पालन इस प्रकार हिन्दू विवाह में व्यक्ति की रुचि का कम महत्व था। विवाह समुदाय तथा परिवार के प्रति सामाजिक कर्त्तव्य समझा जाता था ।

 

1.2 हिन्दू विवाह - एक धार्मिक संस्कार 

हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है जो कि धर्म के निर्वाह के लिए किया जाता हैन कि आनन्द के लिए । हिन्दू विवाह को पवित्र माने के कई कारण दि जा सकते हैं: 

(1) धर्म (धार्मिक कृत्यों की पूर्ति) हिन्दू विवाह का सर्वोच्च उद्देश्य था

(2) धार्मिक संस्कारों को पूरा करनाजैसे यज्ञकन्यादानपाणिग्रहणसप्तपदी आदि

(3) संस्कार अग्नि के समक्ष किए जाते थे जिनमें ब्राह्मणों द्वारा वेदों से मंत्रोच्चार किया जाता था

(4) विवाह बन्धन अटूट समझा जाता था तथा पति पत्नी मृत्यु पर्यन्त परस्पर बन्धनयुक्त रहते थे

(5) यद्यपि पुरुष अपने जीवन में अनेक धार्मिक संस्कारों की पूर्ति करता थाकिन्तु स्त्री के लिए विवाह ही एक मात्र संस्कार था;

( 6 ) स्त्रियों के कौमार्य (chastity) तथा पुरुषों की वफादारी पर बल दिया जाता था 

(7) विवाह परिवार तथा समुदाय के प्रति एक सामाजिक कर्त्तव्य माना जाता था तथा व्यक्तिगत रुचियों और आकांक्षाओं का विचार कम किया जाता था ।

 

गत कुछ दशकों में हिन्दू विवाह अनेक परिवर्तनों के बीच से गुजरा हैतो क्या यह अब भी पवित्र है या इसे भी एक समझौता माना जाये हिन्दू विवाह में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि आज युवा वर्ग धार्मिक कृत्यों की पूर्ति के लिए विवाह नहीं करतेवरन् मित्रता के लिए करते हैं और विवाह बन्धन अब अटूट नहीं रह गए हैंक्योंकि तलाक वैधानिक एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है। विद्वानों का मत है कि तलाक की अनुमति से विवाह की पवित्रता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा हैक्योंकि तलाक अन्तिम उपाय के रूप में ही प्रयोग होता है न कि पुनर्विवाह के रूप में। इसी प्रकार यद्यपि विधवा विवाह को मान्यता प्रदान कर दी गई है किन्तु ऐसे विवाह विस्तृत रूप में प्रचलित नहीं हैं। परस्पर विश्वास तथा जीवन साथी के प्रति प्रतिबद्धता आज भी विवाह के मूल तत्व माने जाते हैं। जब तक विवाह केवल यौन सन्तुष्टि के उद्देश्य से ही नहीं किया जाता रहेगाबल्कि 'साथ रहनेतथा 'सन्तान प्राप्ति के लिए किया जाएगातब तक विवाह हिन्दुओं के लिए धार्मिक पवित्र संस्कार बना रहेगा। विवाह में स्वतंत्रता (साथी के चुनाव की) विवाह में स्थायित्व को दृढ़ बनाती हैन कि नष्ट करती है तथा वैवाहिक व्यवहार को शुद्ध बनाती है। कापड़िया ने भी कहा है विवाह अभी भी धार्मिक संस्कार के रूप में जारी हैकेवल नैतिक स्तर ऊंचा उठा है।

 

विवाह के प्रकार (Forms of Marriage )

 

लगभग सभी समाजों में विवाह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्थाकृत सामाजिक सम्बन्ध है। विवाह अनेक अन्य महत्त्वपूर्ण सम्बन्धों से जुड़ा हुआ है। विवाह सम्बन्ध के विभिन्न प्रकार हैं। इन प्रकारों का जनसंख्या संरचनासम्पत्ति सम्बन्धों और हस्तान्तरण आदि के लिये विशिष्ट अर्थ है। विभिन्न संस्कृतियों में विवाह और यौन सम्बन्धों के साथ कई नियम तथा प्रतिबन्ध जुड़े हुये हैं।

 

विवाह एक पुरुष और स्त्री के बीच वैध यौन सम्बन्ध से कहीं अधिक है। विवाह समाज द्वारा मान्य व स्वीकृत मिलन है। भारत में आमतौर पर लोग यह मानते हैं कि विवाह दो व्यक्तियों तक ही सीमित हैपरन्तु यही दो परिवारों के बीच अनुबंध स्थापित करने का माध्यम है। यह सही है कि विवाह द्वारा संतान को वैधता प्रदान की जाती हैपरन्तु इसके अलावा संतान को सामाजिक प्रस्थिति भी दी जाती हैऔर यह सम्पत्ति के हस्तान्तरण और उत्तराधिकार के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण है।

 

विवाह के विभिन्न प्रकार हैं, जैसे एक विवाह और बहुविवाह एक विवाह प्रथा में एक पुरुष का एक स्त्री के साथ विवाह होता हैऔर यह विवाह का सामान्य आदर्श स्वरूप है। बहुविवाह प्रथा में बहुपत्नी और बहुपति दोनों प्रकार के विवाहों का समावेश है। बहुपत्नी विवाह में एक पुरुष के साथ एक से अधिक स्त्रियों का विवाह होता हैंऔर बहुपति विवाह में एक स्त्री का एक से अधिक पुरुषों के साथ विवाह होता है साली बहुपत्नी प्रथा भी पाई जाती है जिसके अन्तर्गत एक पुरुष का विवाह दो बहनों के साथ होता है। इन प्रकारों के अतिरिक्त भाभी विवाह और साली विवाह की प्रथायें भी आती हैं। भाभी विवाह प्रथा के अन्तर्गत एक पुरुष का विवाह अपने मृत भाई की पत्नी के साथ होता हैऐसा उसके विवाहित होने पर या वह विधुर है तब भी हो सकता है। अधिकतर समाजों में कनिष्ठ भाभी विवाह को प्राथमिकता दी जाती है। यह प्रथा उन समाजों में विद्यमान है जहाँ पर चयन की कसौटियों के आधार पर इस प्रश्न का विश्लेषण किया जा सकता है। अधिकार मान्य संहितानिषेधात्मक रोकअन्तः विवाह और बहिर्विवाह द्वारा चयन क्षेत्र पक्ष और कसौटियों को समझ सकते हैं। इन नियमों के अतिरिक्त जिनसे विवाह के लिये चयन क्षेत्र संकुचन होता हैजाति का भी अपने सदस्यों पर अधिक नियन्त्रण हैक्योंकि जाति दोषी सदस्यों को दण्ड दे सकती है और बहिष्कृत कर सकती है। अपनी जाति से बाहर के व्यक्ति को विवाह संगी चुनने के लिये स्वतन्त्रता प्रदान करने हेतु विशेष विवाह अधिनियम 1872 में पारित किया गया था। इस कानून को अधिक प्रभावकारी बनाने के लिये इसे 1923 में संशोधित भी किया गया था । तदुपरान्त 1938 1946 और 1949 में जीवन साथी के चयन के क्षेत्र को विस्तृत करने के उद्देश्य से विभिन्न अधिनियम पारित किये गये थे। इन अधिनियमों के पारित होने के बावजूद आज जाति समूहों का अनन्य रूप कायम है।

 

स्वतन्त्र्योत्तर भारत में जाति के नये आर्थिकभावात्मक और मनोवैज्ञानिक प्रकार्य प्रभावी होने के बाद भी जाति का अन्त: वैवाहिक रूप बना हुआ है। परन्तु व्यावसायिक गतिशीलताप्रवसनशिक्षास्त्रियों और पुरुषों दोनों के लिये कार्यालयों तथा कारखानों में एक साथ कार्य करने के कारण कुछ लोगों में अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन मिलता है। हिन्दू विवाह अधिनियम में वर्जित सम्बन्धों की सीमाओं को परिभाषित किया गया हैइनमें जाति अन्त: विवाह और गोत्र बहिर्विवाह के नियमों को पूर्णतः नकार दिया गया है। समाज संरचना का मुख्य सिद्धान्त पुरुष पंक्ति में एक रेखीय वंशानुक्रम है। भाभी विवाह को नाता" या "नान्तरा" के नाम से भी जाना जाता हैअर्थात विधवा पुनर्विवाह ही इसका आधार है। साली विवाह में एक पुरुष का विवाह उसकी मृत पत्नी की अविवाहित छोटी बहन के साथ होता है। दो परिवारों के बीच सामाजिक सम्बन्धों की निरन्तरता अक्षुण्ण रखने के लिये साली विवाह को वरीयता दी जाती है। भाभी विवाह उत्तर भारत में मध्यम और निम्न जातियों के समुदायों में प्रचलित हैपरन्तु उच्च जातियों में यह वर्जित है। कुछ जातियाँ इसे सामाजिक दृष्टि से हीन प्रथा मानती हैंऔर द्विज जातियों की पवित्रता की धारणा को आधार मानकर अपनी पुत्रियों और पुत्र वधुओं को विधवा रखना अधिक ठीक समझती हैं। परन्तु साली विवाह उच्च जातियों में भी मान्य हैक्योंकि इस प्रथा में विधुर ही शामिल होते हैं न कि विधवायें। इस प्रकार के विवाह में हमें आदर्शात्मक मान्यताओंप्राथमिकताओंबाधन मान्यताओं और निषेधों का हमेशा ध्यान रखना होगा।

 

विवाह और जीवन साथी चयन के नियम 

भारत की सामाजिक संरचना की दो बहुत महत्वपूर्ण संस्थाओंअर्थात् परिवार और विवाह को समझने के लिये के. एम. कापड़िया का भारत में विवाह एवं परिवार का अध्ययन एक महत्वपूर्ण श्रोत है। कापड़िया के अनुसार विवाह में संगी के चयन के प्रश्न को तीन दृष्टिकोणों से देखा जा सकता हैअर्थात चयन के क्षेत्र में चयन का पक्षपरन्तु विभिन्न समुदायों के भ्राता-भगिनी संतति के बीच विवाहों से जुड़ी प्रथाओं को वैध माना गया। उदाहरण के लियेमुसलमानों में पिता के भाई की लड़की के साथ विवाह प्राय: इच्छित करार दिया गया है। इसके साथ-साथ मुसलमान अन्तः विवाह के नियमों को भी मानते हैं। सुन्नी और शिया मुसलमानों में विवाह नहीं होते। इसके अलावा सुन्नी मुसलमानों में सैयदशेखमुगलपठान आदि उप समूह भी हैं और ये लोग अपने समुदायों में ही विवाह करते हैं। विवाह सम्बन्ध दहेज और परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।

 

आज भी साधारणतया यह विश्वास पाया जाता है कि पिता को अपनी पुत्री का विवाह जब वह नग्निका अवस्था में हो कर देना चाहियेक्योंकि यह अवस्था यौवनारंभ से पूर्व की होती है। इस विश्वास के कारण बाल विवाह पवित्र समझा जाने लगा तथा यह ब्राह्मण संस्कृति का अंग बन गया। अतः यौवनारंभ पूर्व विवाह को अभिजात समर्थन और सामाजिक सम्मान मिलने लगा। कापड़िया के अनुसार संस्कार सिद्धान्त के कारण भी बाल विवाह को प्रोत्साहन मिला। गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक पुरुष और स्त्री का सम्पूर्ण जीवन संस्कारों से लगदा हुआ रहता है। अधिकतर संस्कार शुद्धिकरण के लिये किये जाते हैंऔर रजस्वला होने से पूर्व कन्या को पवित्र और विवाह योग्य मानते हैं। एक विवाह का सामाजिक आदर्श भी कम उम्र में विवाह के लिये उत्तरदायी हैं अनुलोम विवाह के कारण भी बाल विवाह को समर्थन मिला है। निम्न जातियों में रजस्वला पूर्व की पवित्रता की धारणा अधिक मजबूत नहीं रही है. फिर भी बाल विवाह के आदर्श को उच्च जातियों से अपनाया गया है। राजा राममोहन रॉयईश्वर चन्द्र विद्यासागर और मालबरी ने बाल विवाह को न केवल खराब बताया है बल्कि यह भी मत प्रकट किया कि इसके कारण विधवा की दुर्दशा होती है।

 

आज सांस्कृतिक और संरचनात्मक दोनों कारणों से विवाह की आयु बढ़ गई है। यह भी महसूस किया जाने लगा है कि रजस्वला से पूर्व विवाह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है और इसके कारण विधवापन की दर भी बढ़ती है। शिक्षा और रोजगार लड़कों के बराबर ही लड़कियों के लिये उपयोगी समझा जाने लगा। अनुलोम और इससे जुड़ी दहेज की समस्या के कारण भी विवाह की आयु में वृद्धि हुई है। लड़कियाँ खुद अपने जीवन साथी के चयन में आगे लगी हैं। इस प्रकार दृष्टिकोण और मूल्यों में परिवर्तन व चेतना में वृद्धि मुख्य सांस्कृतिक कारणों के रूप मेंऔर शिक्षाव्यवसायप्रससन तथा दहेज संरचनात्मक कारणों के रूप में विवाह की उच्च आयु के लिये उत्तरदायी हैं।

 

परिवार चक्र और विवाह का गहरा पारस्परिक सम्बन्ध है। इस चक्र में प्रथम बच्चे के जन्म से दूसरी अवस्था आरम्भ हो जाती हैंऔर मृत्यु एवं परिवार की सम्पत्ति का औपचारिक विभाजन अन्य महत्वपूर्ण घटनायें हैं। भारतीय परिवार की सम्पत्ति का औपचारिक विभाजन अन्य महत्वपूर्ण घटनायें हैं। भारतीय परिवार में बच्चों के विवाह महत्वपूर्ण हैं. क्योंकि इनसे दो परिवारों की प्रस्थिति का संकेत प्राप्त होता है। मेन्डलबॉम के मतानुसार विवाह में परिवार के सामाजिक संसाधनों का जुटाव होता है। विवाह द्वारा सदस्य नातेदारी पर आधारित सम्बन्धों का पुनर्नवीकरण करते हैं या बंधुता के नये सम्बन्ध स्थापित करते हैं। विवाह में उपहारों की भेंटसेवा अर्पण और उचित भागीदारी द्वारा बंधुजन सम्बन्ध और गैर बंधुजनों के साथ मेलजोल के आधार पर हम विवाह के संरचनात्मक पहलू को समझ सकते हैं। आज मध्यमवर्गीय परिवारों में विशेषतः लड़की के बारे में विवाह के लिये व्यक्तिगत व पारिवारिक सूचना चार्ट तैयार करना आम बात हो गई है। निम्नलिखित उदाहरण द्वारा लड़की के परिवार की प्रस्थिति को समझा जा सकता है-

 

नाम रानी गुप्ता : 

आयु 23 वर्ष 

लम्बाई: 155 सेन्टीमीटर

वजन 45 किलोग्रामपतली दुबली लेकिन अच्छा स्वास्थ्यबहुत गौरवर्ण और सुन्दरशिक्षा में बहुत तेजभोजन पकानेसिलाईकढ़ाई और घरेलू कार्यों में निपुणप्रगतिशील विचार प्रारम्भ से एम. ए. तक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण एम. ए. अर्थशास्त्रशोध कार्य में संलग्न

 

अपनी ही जाति के जीवन साथी को प्राथमिकतापरन्तु उच्च प्रस्थिति के व्यक्तियों के लिये जाति बन्धन नहीं। 

पारिवारिक पृष्ठभूमि : पिता उच्च श्रेणी के वकीलबड़ा भाई अधिशासी इंजीनियरदो बड़ी बहने विवाहित और मेडिकल डाक्टर के कार्य में संलग्नजंवाई ख्याति प्राप्त व्यवसायी। शहर में अपना मकानउत्तम विवाह ।

 

इस प्रकारविवाह सम्बन्ध में परिवार की प्रस्थिति की जाँच होती हैऔर विशेषतः लड़की के परिवार द्वारा लड़के के परिवारनातेदारोंपड़ोसियों और मित्रों की अपेक्षाओं के अनुसार विवाह में व्यय करने का हर सम्भव प्रयत्न किया जाता है। यह बात सही है कि यदि एक क्षेत्र में उच्च प्रतिष्ठावान परिवार साथ विवाह सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तो उस परिवार की प्रस्थिति ऊपर उठ जाती है।

 

हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार के रूप में 

उपरोक्त कारकों को ध्यान में रखते हुए क्या हम कह सकते हैं कि हिन्दू विवाह एक धार्मिक संस्कार है धर्मप्रजा (प्रजनन) और रति (आनन्द) हिन्दू विवाह के उद्देश्य हैं। विवाह के उद्देश्यों में यौन का तृतीय स्थान है। धर्म का स्थान प्रथम एवं सर्वोच्च है। प्रजनन को द्वितीय स्थान दिया गया है। पिता को नर्क में जाने से रोकने के लिए पुत्र प्राप्त करना भी विवाह का उद्देश्य हैं विवाह के समय पंच महायज्ञ करने के लिए पवित्र अग्नि प्रज्वलित की जाती है। एक पुरुष को जीवन पर्यन्त अपनी पत्नी के साथ पूजा करनी पड़ती है। इस प्रकार विवाह मुख्यत: व्यक्ति के धर्म और उसके कर्तव्यों को पूरा करने के लिए है।

 

कापड़िया के अनुसार विवाह सम्पन्न करने के लिए होम या पवित्र अग्नि में पूजा करनापाणिग्रहण या वधू का हाथ थामनाऔर सप्तपदी या वर-वधू का सात कदम साथ-साथ जाना मुख्य धार्मिक कृत्य हैं। पवित्र अग्नि की साक्षी में वैदिक मंत्रोच्चारण के द्वारा इन धार्मिक कृत्यों को पूरा किया जाता है। इस प्रकार हिन्दू विवाह एक धार्मिक कृत्य है क्योंकि स्त्री के लिए विवाह अनिवार्य समझा जाता है और उसको जीवन पर्यन्त अपने पति के संग धार्मिक कार्य पूरे करने पड़ते हैं। हिन्दू विवाह एक धार्मिक कृत्यअखण्डनीय होने के कारण भी हैअपनी मर्जी से दोनों पक्ष विवाह को विसर्जित नहीं कर सकते। चूँकि विवाह अविसर्जनीय हैपति-पत्नी को एक-दूसरे के लिए त्याग करते हुए अपनी आदतोंमिजाजआदर्शों और हितों को व्यवस्थित करना पड़ता है। हिन्दू विवाह कोई साधारण घटना नहीं हैयह जीवन भर के लिए समझौता और व्यवस्थापन की संस्था है।

 

विवाह परिवार और समुदाय के प्रति एक सामाजिक कर्तव्य हैऔर इसलिए इसमें व्यक्ति का हित कम होता है। पति-पत्नी केवल व्यक्ति नहीं हैपरन्तु वे वृहद परिवार और जाति ( समुदाय) के अंग हैं। लेकिन पति-पत्नी अपने उत्तरदायित्वों और विशेषाधिकारों में कभी भी समान नहीं रहे हैं। पत्नी को पतिव्रता नारी का आदर्श मानना पड़ता हैअपने पति के प्रति भक्ति प्रदर्शित करानी पड़ती है। इसी आदर्श के कारण सती प्रथा को प्रोत्साहन मिला है और विधवा पुनर्विवाह को बुरा माना जाता है। आज इस परिस्थिति में बहुत परिवर्तन आ चुका है। 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियमसामाजिकसांस्कृतिक चेतनाशिक्षा और शहरी रोजगार आदि के कारण हिन्दू विवाह के धार्मिक भाव में कमी आई है। लोग तलाक को स्वीकार करने लगे हैं। विधवा पुनर्विवाह भी अधिक होने लगे हैं। महिलायें पुरुषों के बराबर प्रस्थिति की माँग करने लगी हैं। इन परिवर्तनों के उपरान्त भी बहुत सीमा तक धार्मिकता विवाह से जुड़ी हुई है।

 

मुस्लिम विवाह

 

यह कहा जाता है कि मुसलमानों में विवाह एक समझौता है न कि हिन्दुओं की तरह धार्मिक कृत्य । मुसलमानों में विवाह के दो प्रकार हैं : ( 1 ) निकाहऔर (2) मुत्ता । निकाह विवाह के अन्तर्गत स्त्री अपने पति के साथ रहती है और बच्चे पति के वंश से जुड़े रहते हैं। तलाक पति का एकमात्र विशेषाधिकार है। मुत्ता विवाह में दोनों पक्षों की पारस्परिक स्वीकृति ली जाती है। समझौता एक निश्चित समय के लिए होता हैऔर समझौते की अवधि में पत्नी को अपने पति को तलाक देने का अधिकार नहीं है। निकाह विवाह को अच्छा समझा जाता हैऔर इस्लामी कानून में मुत्ता को खराब माना जाता है। हिन्दू विवाह की तरह मुस्लिम विवाह में विस्तृत धार्मिक क्रियायें नहीं होती हैं। मुत्ता विवाह को कालदोष मानते हुए इस्लाम ने बुरा माना है क्योंकि इस विवाह द्वारा स्त्री को उसके यौन जीवन में अधिक स्वतन्त्रता मिलती है। मुत्ता द्वारा विवाह की स्थिरता भी बढ़ी है। कापड़िया के अनुसारमुस्लिम विवाह एक संविदा था जो एक वाली की उपस्थिति में उसकी स्वीकृति और दो साथियों के सत्यापन द्वारा होता था। मुत्ता विवाह में वैयक्तिक संविदा होने के कारण न तो वाली की आवश्यकता थी और न ही किसी साक्षी की। इस्लाम में सिर्फ पुरुष को ही तलाक का अधिकार हैऔर यह मुस्लिम व्यक्तिगत कानून का अंग समझा जाता है। मुसलमानों में विवाह लड़की के पिता या किसी बंधुजन को मेहर (वधू- शुल्क) देने पर ही किया जाता है। मेहर पत्नी पर पति के नियंत्रण और उसके तलाक देने का अधिकार का प्रतीक हैं आज शिक्षा और आर्थिक स्वतन्त्रता के फलस्वरूप मुसलमान स्त्रियाँ अपने पुरुषों के बराबर समानता की माँग कर रही हैं। शिक्षित मुस्लिम युवक रूढ़िवादी मुस्लिम धर्म गुरुओं को चुनौती दे रहे हैं। पहले की तरह आज एक मुसलमान पुरुष के लिए अपनी पत्नी को मनमर्जी से छोड़ देना या तलाक देना आसान नहीं है। आज पहले से कहीं अधिक विवाह की स्थिरता और स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया जाता है।

 

मुस्लिम एवं ईसाई विवाह तथा उनकी बदलती प्रवृत्ति 

Muslim and Christian Marriage and their changing trands)

 

मुस्लिम विवाह का विवेचन करने से पूर्व मुस्लिम समाज के विविध समूहों में स्तरीकरण का ज्ञान आवश्यक है। वृहद रूप में मुस्लिम समाज "शिया" और "सुन्नी" दो श्रेणियों में विभक्त है। हजरत मौहम्मद की मृत्यु जब उनके अनुयायियों के समक्ष उनके उत्तराधिकारी की समस्या आई तो कुछ लोगों ने इच्छा व्यक्त की कि 'इमामत" हजरत साहब के परिवार या उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति तक सीमित रहेजबकि दूसरे लोगों की मान्यता थी कि यह " जमात" के लोगों के द्वारा चुनाव के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए। "सुन्नी" लोग चुने हुए व्यक्ति को इस्लाम का प्रमुख मानना चाहते थेजबकि "शिया" लोग हजरत मौहम्मद के द्वारा मनोनीत व्यक्ति को ही इस पद का दावेदार चाहते थे। इस प्रकार शिया और सुन्नी का उद्भव इस विवाद का ही प्रतिफल था और हिन्दू समाज की भाँति विविध जातियों के उद्भव में प्रजातीय या व्यावसायिक कारकों से इनको कुछ लेना देना नहीं था। दोनों ही समूह कुछ क्षेत्रों में भिन्न सामाजिक प्रथाओं एवं मान्यताओं का पालन करते हैंकिन्तु सुन्नी कानून ही भारत में सामान्यतः लागू होता है क्योंकि शिया सम्प्रदाय की संख्या बहुत ही कम है।

 

उपरोक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त मुस्लिम तीन अन्य समूहों में भी विभक्त हैं : अशरफअजलबऔर अरज़ल। सैय्यद (जो अपना उद्भव हज़र मौहम्मद की बेटी फातिमा से मानते हैं)शेखपठान तथा कुछ अन्य “ अशरफ " समूह 44 से सम्बद्ध हैंमोमिन (जुलाहे )मन्सूरी (रुई धुनने वाले)इब्राहीम (नाई)आदि " अज़लब " समूह से सम्बद्ध हैंतथा हलालखोर आदि “ अरजल" समूह से सम्बद्ध होते हैं। अशरफ कुलीन माने जाते हैंअज़लब निम्न जन्म के होते हैंऔर अरज़ल हिन्दुओं में अछूतों की भाँति होते हैंयहां तक कि मस्जिदों में भी उनका प्रवेश वर्जित होता है। न ही उन्हें सार्वजनिक कब्रगाह के प्रयोग की अनुमति है। यह वर्गीकरण भी विशुद्ध सामाजिक-आर्थिक आधार पर आधारित है न कि धर्म पर।

 

एक ओर शिया और सुन्नी और दूसरी ओर अशरफअज़लबऔर अरज़ल अन्तर्विवाही (endogamous) समूह होते हैं। यद्यपि इन समूहों में आपस में विवाह की निन्दा नहीं की जाती किन्तु इस प्रकार के विवाह को हतोत्साहित किया जाता है। सुन्नियों में दूल्हें की सामाजिक हीनता विवाह के रद्ध किये जाने का आधार हो सकती हैयद्यपि शियाओं में ऐसा कुछ नहीं है। स्तरीकरण के उपरोक्त आधार पर अब हम मुस्लिम विवाह की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कर सकते हैं।

 

मुस्लिम विवाह के उद्देश्य व लक्ष्य 

मुस्लिम विवाहजिसे "निकाह" कहा जाता हैहिन्दुओं के विवाह की भाँति पवित्र संस्कार न होकर एक दीवानी समझौता (civil contract) माना जाता है। इसके प्रमुख लक्ष्य है: यौन नियंत्रणगृहस्थ जीवन को व्यवस्थित करनाबच्चों को जन्म देकर परिवार में वृद्धि करना तथा बच्चों का लालन-पालन करना । रौलेण्ड विल्सन (1941) के अनुसारमुस्लिम विवाह यौन समागम को वैधानिक बनाना और बच्चों को जन्म देना मात्र है। एस.सी. सरकार का भी मानना है कि मुसलमानों में विवाह पवित्र संस्कार नहीं हैबल्कि एक विशुद्ध दीवानी समझौता है। परन्तु मुस्लिम विवाह का यह चित्र सही नहीं है। यह कहना निश्चित रूप से गलत है कि मुस्लिम विवाह का एक मात्र लक्ष्य यौन सुख की पूर्ति एवं बच्चों को जन्म देना है। मुस्लिम समाज में विवाह एक धार्मिक कर्त्तव्य भी है। यह श्रद्धा तथा " इबादत " की एक क्रिया हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जो मुसलमान इस कार्य को एक धार्मिक क्रिया मान कर करता हैउसे परलोक में पुरस्कार मिलता है और जो ऐसा नहीं करतावह पाप का भागीदार होता है। इसे " सुन्नत मुवक्किदल" (Sunnat Muwakkidal) कहते हैं (काशी प्रसाद सक्सेना, 1959: 146 ) । जंग (Jang, 1953) यह मानने में अधिक सही है कि निकाहयद्यपि आवश्यक रूप से एक समझौता हैकिन्तु साथ ही यह एक श्रद्धा का कार्य भी है। परन्तु मुस्लिम विवाह यद्यपि एक धार्मिक कर्त्तव्य हैंकिन्तु स्पष्ट रूप से यह एक पवित्र संस्कार (Sacrament) नहीं है। हिन्दू विश्वास की तरह इसे वह संस्कार नहीं माना जाता जो व्यक्ति को पवित्रता एवं पुण्य प्रदान करता है।

 

विवाह व्यवस्था प्रमुख विशेषताएँ 

मुस्लिम विवाह की प्रथम आवश्यकता है “ प्रस्ताव रखना" (proposal) और उसकी "स्वीकृति" (acceptance) । यद्यपि यह दोनों बातें हिन्दू विवाह में भी पायी जाती हैंकिन्तु यह केवल विवाह सम्बन्धी बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए होती हैंन कि मुस्लिम समाज की भाँति विवाह तय करने के लिए। दूल्हा दो गवाहों तथा मौलवी की उपस्थिति में विवाह से पूर्व दुलहिन के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है। यह आवश्यक है कि "प्रस्ताव " तथा " स्वीकृति" एक ही बैठक (meeting) में हों। एक बैठक में प्रस्ताव तथा दूसरी बैठक में स्वीकृति "साही निकाह' (regular marriage) नहीं होतेयद्यपि यह विवाह " अवैधानिक" (बातिल) नहीं होता। इस विवाह को " अनियमित " (irregular) अथवा "फासिद" ( Fasid) माना जाता है। शियाओं में विवाह भंग करते समय दो गवाहों की आवश्यकता होती है न कि समझौते के समयजबकि सुन्नियों में नियम बिल्कुल इसके विपरीत हैं। साथ ही मुस्लिम विवाह में महिला प्रमाण (testimony) को पूर्णरुपेण अस्वीकृत किया गया है अतः विवाह समझौता दो पुरुषों द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए। प्रस्ताव व स्वीकृति में दो पुरुष साक्षियों की आवश्यकता होती है। एक पुरुष और दो महिलाओं का प्रमाण मान्य नहीं है। इस प्रकार "फासिद" एवं " बातिल" विवाहों में अन्तर यह है कि " फासिद" विवाह की अड़चनों (impediments) तथा अनियमित (irregularities) को दूर करके "सही" विवाह में तो बदला जा सकता हैलेकिन " बातिल " विवाह में परिवर्तन सम्भव नहीं है। " फासिद" विवाह के अनेक उदाहरण हैं: प्रस्ताव तथा स्वीकृति के समय साक्षियों का न होनापुरुष का पाँचवा विवाहमहिला की इद्दत (Iddat) की अवधि में विवाह (इद्दत वह समय होता है जिसमें महिला के तीन मासिक धर्मों को उसके पति की मृत्यु के पश्चात् या तलाक के बाद यह सुनिश्चित करने के लिए होता है कि वह महिला कहीं गर्भवती तो नहीं है) तथा पति पत्नि के धर्मों में अन्तर । एक पुरुष का विवाह एक "किताबिया" स्त्री (यहूदी या ईसाई ) के साथ "सही" विवाह कहलाता हैलेकिन ऐसी स्त्री के साथ विवाह जो अग्नि या मूर्ति पूजक होती है, “ फासिद" विवाह होता है।

 

पुरुष चाहे एक गैर-मुसलमान स्त्री से विवाह कर सकता हैयदि उसे विश्वास हो कि उस स्त्री की मूर्ति पूजा केवल नाममात्र हैउदाहरणार्थ कई मुगल सम्राटों ने हिन्दू स्त्रियों से विवाह किये और उनके बच्चे वैधानिक माने गये तथा बहुधा राज सिंहासन पर भी आरुढ हुए। ऐसे विवाहों को निषिद्ध करने का एकमात्र उद्देश्य यह था कि मूर्ति पूजा को इस्लामी राजनीति से बाहर रखा जा सके। लेकिन एक मुस्लिम महिला को एक "किताबिया" पुरुष से विवाह की किसी भी परिस्थिति में अनुमति नहीं दी गई है। उसके लिए ऐसा विवाह बातिल " विवाह होगा। " बातिल " विवाह के अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं- बहुपति विवाह (polyandry) या निकटस्थ रिश्तेदारों से विवाह का चलन (जैसे माँमाँ की माँबहिनबहिन की लड़कीमाँ की बहिनपिता की बहिनलड़की की लड़की) या फिर एक विवाहमूलक नातेदार (affinal kin) से (जैसे पत्नी की माँपत्नी की बेटीबेटे की पत्नी) । " बातिल " विवाह का एक और उदाहरण है। एक व्यक्ति का एक ही समय में दो ऐसी महिलाओं से विवाह जो आपस में इस प्रकार सम्बन्धित हों कि यदि इनमें से एक पुरुष होती तो विवाह सम्भव ही न होता। इसका सरल शब्दों में यह अर्थ है कि एक पुरुष अपनी पत्नी के जीवित रहते उसकी बहिन यानि अपनी साली से विवाह नहीं कर सकता। " बातिल" विवाह दोनों पक्षों के बीच किसी भी प्रकार का अधिकार या कर्त्तव्य नहीं दर्शाता । ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान भी अवैध ( illegitimate) मानी जाती है। केवल "सही" या वैध (valid) विवाह ही पत्नी को पति के घर में रहनेगुजर करने (maintenance) एवं मेहर (dower) आदि का अधिकार प्रदान करता है। "फासिद" या अनियमित विवाह सहवास (consummation) से पूर्व या पश्चात् दोनों में से किसी एक भी पक्ष के द्वारा भंग किया जा सकता है। यदि विवाह में सहवास हो चुका है तो सन्तान वैध होगी और उन्हें सम्पत्ति की विरासत का अधिकार होगाइसी प्रकार पत्नी को "मेहर" (dower) का अधि कार भी प्राप्त होता है।

 

मुस्लिम विवाह का दूसरा लक्षण यह है कि व्यक्ति में विवाह समझौता करने की योग्यता (capacity) होनी चाहिए। क्योंकि केवल वयस्क एवं समझदार व्यक्ति ही समझौते को समझ व कर सकता हैइसलिए बाल विवाह एवं अस्वस्थ मस्तिष्क के लोगों के विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं होती। अतः केवल यौन परिपक्वता प्राप्त (puberty) व स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति ही विवाह संविदा में प्रवेश कर सकता है। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि यदि अल्प वयस्क के विवाह का संविदा (contract) हो चुका है तो वह अवैध (void) है। अल्पवयस्क के विवाह का संविदा उसके माता-पिता या संरक्षक द्वारा किया जा सकता है। "शिया" नियमों के अन्तर्गत अल्प वयस्क के मामले में विवाह संविदा करने का अधिकार क्रमशः पितादादाभाईअथवा वंशानुक्रम में किसी अन्य पुरुष रिश्तेदार को प्रदान किया गया है। यदि पितृ पक्ष में कोई रिश्तेदार न हो तो मातृ पक्ष में मातामामाया मौसी को यह अधिकार प्रदान किया गया है। इनके अतिरिक्त अन्य सभी व्यक्ति अनाधिकृत ( unauthorised) अथवा "फजूली" समझे जाते हैं और उनके द्वारा किया गया विवाह समझौता कानूनी सीमाओं में निष्प्रभावी होता हैजब तक कि यौन परिपक्वता प्राप्त होने के बाद सम्बद्ध पक्षों द्वारा ही उसे अनुमोदित (ratify) न किया जाये। अनुमोदन अथवा अस्वीकृति के इस अधिकार को " खैरुल बालिग" कहते हैं। अल्पवयस्क विवाह को अस्वीकार (repudiate) कर सकता है यदि वह यह सिद्ध कर सके कि उसके संरक्षकों ने लापरवाही या धोखाधड़ी से संविदा को किया था। उदाहरणार्थउसका विवाह पागल लड़की से जानबूझ कर किया गया थाअथवा मेहर उसके अहित में तय हुआआदि । विवाह की अस्वीकृति के लिए लड़के के लिए कोई समय सीमा नहीं हैलेकिन लड़की के मामले में युक्तिसंगत ( reasonable) समय दिया जाता है तथा उसे बता दिया जाता है कि उसे विवाह को अस्वीकार करने का अधिकार है। लड़का या तो मौखिक अभिव्यक्ति द्वारा या मेहर की रकम अदा करके या फिर यौन संसर्ग से विवाह भंग कर सकता है। 1938 के मुस्लिम विवाह भंग अधिनियम के अन्तर्गत विवाह भंग का वरण ( option) करने में सुधार कर लिया गया था जिसके अन्तर्गत महिला को यौन परिपक्वता प्राप्त करने के तीन वर्ष बाद तक विवाह विच्छेद के लिए समय प्रदान किया गया हैंयानि कि 18 वर्ष की आयु तक अगर यौन संबंध स्थापित नहीं किया हो।

 

मुस्लिम विवाह का तीसरा लक्षण यह है कि समानता के सिद्धान्त" (doctrine of equality) का पालन अवश्य किया जाना चाहिए। यद्यपि निम्न स्तर के व्यक्ति के साथ विवाह संविदा करने का कोई कानूनी निषेध नहीं हैफिर भी इस प्रकार के विवाह को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसी प्रकार भाग कर किए गए विवाह (किफ - Kifa) को मान्यता प्राप्त नहीं हैफिर भी लड़कियां घर से भाग कर तथा निम्न या उच्च स्तर पर विचार किए बिना अपनी पसन्द के लड़कों से विवाह कर ही लेती हैं। "सुन्नियों" में वर के पक्ष में सामाजिक हीनता का प्रश्न विवाह रद्द करने के लिए पर्याप्त कारण हो सकता है किन्तु शिया" लोगों में नहीं है। मुस्लिम विवाह का चौथा लक्षण है " अधिमान्य व्यवस्था" (preferential system) जीवन-साथी के चुनाव मेंपहली अधिमान्यता सलिंग सहोदरज (parallel cousin ) को और उसके बाद विलिंग सहोदरज (cross cousin ) को दी जाती है। यद्यपि दोनों प्रकार के सलिंग सहोदरज विवाह ( चचेरा और मौसेरा) का चलन (practice) मिलता हैतथापि सहोदरज विवाह में फुफेरा विवाह को मान्यता नहीं दी गयी है (S.C. Misra, 1956 : 153 ) । परन्तु आजकल किसी भी सहोदरज विवाह को वरीयता नहीं दी जाती है। 1986 में जयपुर राजस्थान में 136 मुस्लिमों पर किए गए एक समाजशास्त्रीय अध्ययन से पता चलता है कि केवल 11% अर्थात 15 मुसलमानों ने ही अपने सहोदरजों (cousins) से विवाह किए। इनमें से भी ( पुरुष को इगो मानकर ) चार ने अपनी चचेरी बहनों से 6 ने ममेरी बहनों सेऔर 5 मौसेरी बहनों से विवाह किया था। आजकल जो सहोदरजों को वरीयता प्रदान नहीं की जा रही है सम्भवतः उसके कई कारणों में से कुछ यह भी हो सकते हैं परिवार से बाहर अधिक दहेज मिलने की सम्भावनानये व्यक्तियों से - रिश्तेदारी का बढ़ना तथा सहोदरजों का एक दूसरे से बहुत दूर रहना।

 

हिन्दुओं में कुछ जातियों में पाई जाने वाली प्रथा के विपरीत विधवा यदि पुर्नविवाह करने की इच्छुक है तो वह अपने मृत पति के भाई को वरीयता प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है। इस प्रकार मुस्लिमों में भाभी विवाह (Levirate) का प्रचलन नहीं है। इनके समाज में साली विवाह ( Sororate) को भी मान्यता प्राप्त नहीं है। किन्तु मृत या तलाकशुदा पत्नी की बहिन से विवाह की अनुमति है।

 

मेहर (Dower) क्या होती है ? 

मेहर वह धन या सम्पत्ति है जो विवाह के प्रतिफल के रूप में पत्नी अपने पति से लेने की अधिकारिणी होती है। यहां "विवाह का प्रतिफल" का प्रयोग भारतीय समझौता अधिनियम के अनुरूप नहीं किया गया है। मुस्लिम नियमों के अन्तर्गत " मेहर" पति पर एक कर्त्तव्य ( obligation) है जो कि पत्नी के पति आदर का सूचक होता है। इस प्रकार यह वधू- मूल्य (bride price) नहीं है। इसके मुख्य उद्देश्य हैं-पति पर पत्नी को तलाक देने सम्बन्धी नियंत्रण करना तथा पति की मृत्यु अथवा तलाक के पश्चात् महिला को अपने भरण पोषण के योग्य बनाना । मेहर की धन राशि विवाह से पहलेबाद मेंया फिर विवाह के समय निश्चित की जा सकती है। यद्यपि यह धन राशि कम नहीं की जा सकती हैफिर भी पति की इच्छा से इसमें वृद्धि की जा सकती है। पत्नि चाहे तो इस धनराशि को घटाने के लिए सहमत हो सकती है या फिर इस समस्त धनराशि को अपने पति या उसके उत्तराधिकारियों को भेंट स्वरूप प्रदान कर सकती है। दोनों पक्षों में निश्चित की गई मेहर की धनराशि को "निर्दिष्ट" (Specified) कहते हैं। मेहर की कम से कम धन राशि 10 दरहम (Dirham ) होती हैलेकिन अधिकतम की कोई सीमा निश्चित नहीं है। जब मेहर की राशि निश्चित न करके जो उचित समझते हैं वह देते हैं तो इस राशि को " उचित" (मुनासिब ) मेहर कहते हैं। उचित मेहर राशि निश्चित करते समय पति और उसके परिवार के आर्थिक स्तर का सम्मान करना पड़ता है या फिर महिला के पिता के परिवार में दूसरी स्त्रियों पर निश्चित किए गए मेहर को भी ध्यान देना पड़ता है (जैसे उसकी बहिन या बुआ)या फिर पति के परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा निश्चित किए गए मेहर को भी ध्यान देना पड़ता है। मेहर की राशि मुख्य रूप से पति की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर निश्चित की जाती है। यह तथ्य 1986 में जयपुर में 136 मुसलमानों के अध्ययन से प्रकाश में आया । 136 उत्तरदाताओं को क्रमश: 500 रुपये तक 500 से 1000 रुपये, 1000 से 5000 रुपये तथा 5000 से ऊपर रुपये मासिक आय के चार समूहों में बाँटा गया था। प्रथम समूह में लगभग 14% लोग थेदूसरे में 77% तीसरे में 7% तथा चौथे में 2% व्यक्ति थे। उन सूचना दाताओं को जिन्होंने मेहर - राशि दी थीयह संख्या क्रमशः प्रथम समूह में 50% दूसरे में 27% तीसरे में 16% तथा चौथे में 7% थी। इससे स्पष्ट है कि तीनों समूहों में निश्चित की गयी मेहर की राशि व्यक्ति की आर्थिक क्षमता से कुछ अधिक ही थी जिससे लगता है कि शायद पति अपनी पत्नी व उसके माता पिता को आश्वासन देना चाहता है कि वह पत्नी को आसानी से तलाक नहीं देगा।

 

माँगे जाने पर दी जानी वाली मेहर की राशि को (फोरी ) " तुरंत " (Prompt ) मेहर कहते हैं और जो मेहर विवाह विच्छेद के बाद दिया जायेउसे स्थगित" (Deferred ) मेहर कहते हैं। शिया लोगों में जब कोई अनुबन्ध (stipulation) नहीं होता तो मेहर "फोरी" माना जाता हैलेकिन सुन्नियों में कोई इस प्रकार की मान्यता नहीं होती है।

 

मेहर का सम्बन्ध विवाह के 'उपभक्त' (सहवास) होने से भी होता है। विवाह के उपभक्त (consummaption) होने पर स्त्री का मेहर पर अधिकार पूरा हो जाता है। यह उपभक्ति या तो वास्तविक सम्बन्ध स्थापित करके हो सकती है या उस प्रकार जिसे कानून ऐसा मानता हैजैसे पति या पत्नि की मृत्यु हो जाये या ठोस आधार पर अलग हो जायें। पति द्वारा विवाह समाप्त किये जाने पर या लांछित आदि किये जाने के पश्चात अलग होने की स्थिति में पनि आधे 'निर्दिष्ट' (Specific) मेहर की अधिकारी हो जाती है। यदि मेहर का उल्लेख न किया गया हो तो वह "मुतात" मेहर (Mutat) के लिए अधिकारी होती है। यदि पति-पत्नि पनि की पहल (initiative) पर अलग हुए . हैं तो वह किसी भी प्रकार के मेहर की अधिकार नहीं होती है (यदि विवाह की उपभक्ति नहीं हुई है ) मुस्लिम कानून के अन्तर्गत मेहर के लिए विधवा का दावा अपने पति की भूसम्पत्ति के विरुद्ध एक कर्ज है। पति की सम्पत्ति में पत्नि का उतना ही अधिकार है जितना अन्य देनदारों का है। वह मेहर की रकम अदा किए जाने तक पूरी सम्पत्ति को अपने पास रोक सकती है। सम्पत्ति को अपने अधिकार में करने के लिए उसे अन्य किसी वारिसों से अनुमति नहीं लेनी होती। परन्तु यदि तलाक " खुला" या "मुबारत" हुआ हैतो महिला का मेहर का अधिकार खत्म हो जाता हैक्योंकि दोनों ही मामलों में पति-पत्नि मिलकर विवाह भंग के लिए सहमत होते हैं।

 

"मुता" विवाह क्या होता है ? 

मुसलमानों में भी अस्थाई प्रकार के विवाह का प्रचलन हैं जिसे "मुता" विवाह कहते हैं। यह विवाह स्त्री व पुरुष के आपसी समझौते से होता है और इसमें कोई भी रिश्तेदार हस्तक्षेप नहीं करता। पुरुष को एक मुस्लिम या यहूदी या ईसाई स्त्री से मुता" विवाह के संविदा का अधिकार हैंकिन्तु एक स्त्री एक गैर-मुस्लिम से " मुता" संविदा नहीं कर सकती है। "मुता" विवाह से प्राप्त पत्नी को " सिघा" (Sigha) नाम से जाना जाता है। आजकल भारत और पाकिस्तान में इस विवाह का प्रचलन नहीं है। यह केवल अरब देशों में ही प्रचलित है। इसके अतिरिक्त यह विवाह शिया लोगों में ही वैध माना जाता है और सुन्नियों में नहीं इस प्रकार के विवाह की वैधता के लिए दो बातें आवश्यक हैं- (i) सहवास (cohabitation) की अवधि पहले ही निश्चित होनी चाहिए (ii) मेहर की राशि भी पहले ही निश्चित होनी चाहिए। यदि अवधि निश्चित नहीं है और मेहर निश्चित है तो विवाह स्थाई माना जाता हैकिन्तु यदि अवधि निश्चित है और मेहर निश्चित नहीं है तो विवाह अवैध (void) माना जाता है। यदि अवधि निश्चित है और सहवास अवधि समाप्ति के बाद भी चलता रहता है तो यह मान लिया जाता है कि अवधि बढ़ा दी गई हैऔर इस बीच उत्पन्न हुई सन्तान भी वैध मानी जाती हैऔर स्त्री के सगे रिश्तेदारों को उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। परन्तु " मुता" विवाह स्त्री-पुरुष के बीच विरासत ( inheritance) के अधिकार प्रदान नहीं करता है। "सिघा" पनि भरण-पोषण की राशि (maintenance amount ) का दावा नहीं कर सकती है और न ही उसे अपने पति की सम्पत्ति से विरासत में ही कुछ हिस्सा मिलेगा। लेकिन सन्तान वैध होने के कारणपिता की सम्पत्ति में से अपना हिस्सा पाने की अधिकारी है। मुता विवाह में तलाक भी मान्य नहीं हैंकिन्तु पति अपनी पत्नि को बचे हुए समय की " भेंट " (gift) देकर समझौते (contract) को समाप्त कर सकता है। यदि विवाह उपभक्त (consummate) नहीं हुआ है तो पूर्व निर्धारित मेहर का आधा भाग ही देय होता हैकिन्तु विवाह के उपभक्ति पर मेहर की पूर्ण राशि देय होती है।

 

मुस्लिम कानून में " मुता" विवाह को हेय (condemned) माना जाता है। यह न केवल इसलिए कि विवाह अस्थाई होता है और "वली" (Wali) या दो साक्षियों की सहमति के बिना व्यक्तिगत रूप से किया गया समझौता होता हैबल्कि इसलिए भी कि स्त्री ने अपना घर नहीं छोड़ा तथा उसके रिश्तेदारों ने उस पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा और सन्तान पिता की न हो सकी और उसके वंश से सम्बन्धित न हो सकी। अतः इस विवाह के प्रति विरोधी रुख इसलिए अपनाया गया क्योंकि इस विवाह में पायी जाने वाली मातृ स्थानीयता व मातृवंशीयता इस्लाम द्वारा स्वीकृत पितृस्थानीयता व पितृवंशीयता से संघर्ष में आती थी। इस्लाम भी विवाह के स्थायित्व को मानता है और कोई भी बात जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्थायित्व को बढ़ावा देती हो उसको मान्यता प्रदान नहीं की गई।

 

विवाह विच्छेद 

मुस्लिम कानून के अन्तर्गत विवाह समझौता (contract) या तो अदालती कार्यवाही द्वारा समाप्त किया जा सकता है या बिना अदालत के हस्तक्षेप के भी न्यायिक प्रक्रिया द्वारा मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत या 'मुस्लिम कानून" के अन्तर्गत तलाक प्राप्त किया जा सकता है। न्यायिक हस्तक्षेप के बिना भी पति की इच्छा से 44 तलाक हो सकता है या फिर पति और पत्नि के आपसी सहमति से भी हो सकता हैजिसे "खुला" या "मुबारत" कहते हैं। "खुला" और " मुबारत" में अन्तर यह है कि खुला " तलाक में पहल पत्नि की होती है और "मुबारत " में पहल किसी की भी हो सकती है क्योंकि दोनों ही पक्ष तलाक के इच्छुक होते हैं। तलाक की प्रक्रिया को या तो मुंह जबानी (oral) कुछ उद्घोषणा (pronouncement) करके या तलाकनामा लिखकर पूर्ण किया जा सकता है। तलाक की उद्घोषणा या तो निरसनीय ( रद्द करने योग्य - revocable ) या अनिरसनीय (Irrevocable) हो सकती है। अनिरसनीय घोषणा से विवाह विच्छेद तुरन्त होता है जबकि निरसनीय घोषणा से " इद्दत" की अवधि समाप्त होने तक विवाह विच्छेद नहीं होता। इस अवधि में घोषणा का निरसन या तो अभिव्यक्ति द्वारा या विवाहित संबंध आरम्भ कर बिना अभिव्यक्ति के किया जा सकता है। 

तलाक निम्नलिखित तीन तरह से दिया जा सकता है।

 

1. तलाक-ए-अहसन- इसके अन्तर्गत "तलाक" की अधिघोषणा मासिक धर्म की अवधि "तुहर" में एक ही बार की जाती है और इद्दत की अवधि तक यौन सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जाता है। शियाओं में इस तलाक को मान्यता नहीं दी जाती है। सुन्नियों में भी नशे की हालत में या गम्भीर धमकी की अवस्था में की गयी "तलाक" की घोषणा निरर्थक होती है।

 

2तलाक-ए-हसन-इसमें तीन घोषणाएँ सम्मिलित होती हैं जो लगातार तीन मासिक धर्म " तुहर” की अवधि में की जाती हैंऔर इस अवधि में किसी भी प्रकार का यौन सम्पर्क नहीं किया जाता है।

 

3. तलाक-ए-उल-बिदत- इसके अन्तर्गत एक ही "तुहर" की अवधि में एक ही वाक्य में तीन घोषणाएं करने से (मैं तुम्हें तीन बार तलाक देता हूँ)या तीन बार तीन वाक्यों में दोहरा कर (मैं तुम्हें तलाक देता हूँमैं तुम्हें तलाक देता हूँमैं तुम्हें तलाक देता हूँ) तलाक हो जाता हैया फिर एक ही तुहर में उक्त वाक्य को एक ही बार कहने परजिसमें विवाह समाप्त करने की अनिरसनीय इच्छा प्रकट की गयी हो (जैसेमैं तुम्हें अनिरसनीय आधार पर तलाक देता हूँ) तलाक हो जाता है।

 

इस प्रकार प्रथम दो प्रकार ( अहसन और हसन) के तलाक के अंतर्गत दोनों ही पक्षों में समझौते के अवसर होते. हैंलेकिन तीसरे में नहीं। तलाके अहसन को अधिक मान्यता प्राप्त है। इन तीन प्रकार के तलाकों के साथ-साथ 1937 के शरियत कानून के अनुसार निम्नलिखित प्रकार के तलाकों का भी उल्लेख है-

 

1इला- 

यदि पति यौन परिपक्वता प्राप्त करने के बाद चार माह तक या निश्चित अवधि तक यौन सम्पर्क से अलग रहने की सौगन्ध लेता हैतो वह "इला" करता है। यदि वह इस अवधि में यौन समागम नहीं करता है तो विवाह विच्छेद वैध मान लिया जाता हैजैसा कि तलाके-उल-बिदत के अन्तर्गत होता है जिसमें पति एक ही बार तलाक की घोषणा करता है। "हनाफी" सम्प्रदाय के सुन्नियों में "इला" तलाक का मान्य रूप हैलेकिन "शफाई" सम्प्रदाय के सुन्नियों में "इला" तलाक लेने का केवल एक आधार होता है।

 

2. "ज़िहर " - 

परिपक्वता प्राप्त पति दो साक्षियों के समक्ष अपने पूरे होशो हवास में यह घोषणा करता है कि उसकी पत्नि उसके माँ की पीठ (back) (अथवा किसी अन्य की पीठ जिसके साथ उसका विवाह निषेधित है) के समान है तो वह "ज़िहर " तलाक होता है। परन्तु "ज़िहर " विवाह विच्छेद नहीं होताबल्कि यह पत्नि के लिए पति से तलाक लेने के लिए एक आधार तैयार करता है।

 

3. “लियान”- 

इसके अन्तर्गत पति अपनी पत्नि पर व्यभिचार ( adultery) का लांछन लगाता है। इस प्रकार पत्नि को अदालत को अपील करने का आधार मिल जाता है कि या तो उसका पति आरोप वापस ले या फिर ईश्वर की सौगन्ध लेकर कहे कि उसके द्वारा लगाया गया लांछन सत्य है। यदि पति अपना आरोप वापस नहीं लेता बल्कि ईश्वर की सौगन्ध लेता है तो पत्नि को भी एक विकल्प (option) मिलता है कि या तो वह अपने ऊपर लगाया गया लांछन स्वीकार कर ले या फिर पति की ही तरह ईश्वर की सौगन्ध ले कि वह निर्दोष है। इस प्रकार शपथ लेने को "लियान" कहते हैं। पति-पत्नि के इस प्रकार सौगन्ध लेने के बाद पति को यह विकल्प मिलता है कि वह न्यायालय के माध्यम से तलाक ले ले।

 

1939 के मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम के अन्तर्गत न्यायालय से न्यायिक व्यवस्थ द्वारा भी तलाक लिया जा सकता है। इस अधिनियम के आधार पर महिला को यह अधिकार प्राप्त है कि वह निम्नलिखित अवस्थाओं में पति को तलाक दे सकती है जब पति दो वर्ष तक पत्नि का भरण-पोषण न कर सकेयदि पति को सात या सात वर्ष से अधिक की जेल हो जायेयदि चार या अधिक वर्षों से पति ने पत्नि का परित्याग किया होपति तीन साल तक यौन सम्पर्क न करेयदि पति नपुंसक होयदि दो साल तक पति पागल होयदि पति किसी असाध्य रोग (कोढ़ या वी.डी.) से पीड़ित होयदि पति क्रूर होया पत्नि के अठारह वर्ष पूर्ण होने से पहले यौन परिपक्वता धारण करने का विकल्प रखता हो।

 

मुस्लिम कानून के क्रियान्वयन के अन्तर्गत जीवन साथी के धर्म परिवर्तन के कारण भी विवाह विच्छेद लिया जा सकता है। पति के धर्म परिवर्तन के कारण विवाह विच्छेद तुरन्त हो सकता है। अतः यदि एक पुरुष ईसाई धर्म में परिवर्तन कर लेता है और उसकी पत्नी इद्दत की अवधि पूर्ण होने से पूर्व ही किसी दूसरे पुरुष से विवाह कर लेती है तो वह द्वि-विवाह (bigamy) की दोषी नहीं होगी क्योंकि धर्म परिवर्तन तुरन्त विवाह विच्छेद का कार्य करता है। 1939 के अधिनियम के पूर्व पत्नी के धर्म परिवर्तन करने पर भी विवाह विच्छेद तुरन्त लागू होता था पर अब नहीं। लेकिन यह तथ्य उन स्त्रियों पर लागू नहीं होता जो अन्य किसी धर्म से परिवर्तित होकर इस्लाम में आई हों। इस प्रकार यदि कोई हिन्दू लड़की इस्लाम स्वीकार कर लेती है और मुस्लिम कानून के अन्तर्गत विवाह करती है तो उसके इस्लाम त्यागने और हिन्दू धर्म पुनः अपनाने के तुरन्त बाद ही विवाह विच्छेद हो जायेगा। यदि वह अपने पुराने धर्म में वापस नहीं आती है और कोई दूसरा धर्म अपना लेती है (जैसे ईसाई हो जाती है) तो ऐसे परिवर्तन से तुरन्त विवाह विच्छेद नहीं होगा।

 

इन सभी मामलों में विवाह विच्छेद होने पर कानूनी प्रभाव इस प्रकार होंगे पत्नी इद्दत का पालन करने के लिए बाध्य होती हैइद्दत की अवधि में भरण पोषण की व्यवस्था करने के लिए पति ही जिम्मेदार होता है; " इद्दत" की अवधि से पूर्व पत्नी पुनविर्वाह के लिए समझौता नहीं कर सकतीतथा पत्नी स्थगित मेहर (Deferred Dower) की अधिकारी होगी।

 

कुछ वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने एक मुस्लिम महिला शाह बानो को पति से तलाक मिलने पर भरणपोषण भत्ता दिये जाने के आदेश किये थे। मुस्लिम नेताओं ने उच्चतम न्यायालय के इस कानूनी निर्णय को मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (Muslim Personal Law) में हस्तक्षेप बतायाजिस कारण सरकार को मुस्लिम महिला (Protection of Rights in Divorce ) ऐक्ट 1986 पास करना पड़ा। इसी प्रकार फरवरी 1993 में उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक तीस वर्षीय हमीदन नाम की महिला को तलाक मिलने पर उसके स्वयं के और दो बच्चों के लिए 32 वर्षीय पति से 600 रुपये महीने पोषण भत्ता दिये जाने के आदेश किये। मुस्लिम नेताओं ने इस निर्णय को भी "शरीयत " में हस्तक्षेप और मुस्लिम महिला तलाक एक्ट (Muslim Women's Divorce Act) के प्रावधानों का उल्लंघन बताया। अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ( The All India Muslim Personal Law Board) ने तो उच्च न्यायालय में इस निर्णय के विरुद्ध एक पुनर्निरीक्षण याचिका ( review petition ) भी दाखिल की।

 

तलाके - उलबिदत प्रथा (जिस में तीन बार घोषणा करने से तलाक हो जाता हैं) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अप्रैल 1994 में अवैध बताया। इस न्यायालय ने शरीयत (Muslim Personal Law) ऐक्ट, 1937 में पति के एक ही समय तीन बार तलाक कहने पर तलाक देने के अधिकार का पुनर्निरीक्षण किया और निर्णय दिया कि इस प्रकार का तलाक स्त्री की गरिमा के तथा हर नागरिक के मौलिक अधिकारों और कर्त्तव्यों के विरुद्ध है। जज महोदय की यह भी मान्यता थी कि एक ही बार में अनिरसनीय (irrevocable) घोषणा करके विवाह समाप्त करना इस्लाम सुन्नत ( Islam Sunnat ) के अन्तर्गत पाप (Sin) माना गया है। अतः न्यायाधीश का विचार था कि वर्तमान समय के अनुकूल मुस्लिम विवाह व तलाक आदि विषयों पर नया कानून बनाना चाहिए। मुस्लिम नेताओं ने इस मसले को भी अदालत के अधिक्षेत्र से परे माना और उच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने जुलाई 1994 में इलाहाबाद के न्यायाधीश तिलहारी के निर्णय को अस्वीकार कर दिया।

 

दूसरी ओर कुछ विद्वानों का विचार है कि अब समय आ गया है कि मुस्लिम महिलाओं को राजनैतिक आधार पर अपने को संगठित करके विवाहतलाकआदि कानूनों में संशोधन के लिएतथा कानूनी संरक्षणसामाजिक-आर्थिक संपालन व सम्पत्ति विरासत संबंधी अधिकार आदि प्राप्त करने के लिए लड़ना चाहिए। सरकार या रूढ़िवादी धार्मिक नेता मुस्लिम महिलाओ की प्रस्थिति ऊँचा करने में रूचि लेंगे इसकी सम्भावना नहीं है। अतः महिलाओं को ही अपने को राजनैतिक आधार पर संगठित करके अपने लिए आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों के लिए प्रयास करने होंगे।

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