भारत में ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय | Village and Urban Communities in India

 

भारत में ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय

भारत में ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय | Village and Urban Communities in India



भारत में ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय

भारत मूलत: गाँवों का देश है क्योंकि इसमें 6 लाख से अधिक गाँव हैं। भारत के सामाजिक जीवन की तीन निर्णायक संस्थाएँ - गाँवजाति और संयुक्त परिवार हैं। इन्होंने न केवल विदेशी आक्रमण और आन्तरिक विरोधाभासों से उत्पन्न आघातों को ही झेला है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों की ताकतों को आत्मसात किया है और सम्मुख आई हुई आवश्यकताओं तथा चेतावनियों के अनुसार अपने आपको ढाल भी लिया है। जाति व्यवस्था और संयुक्त परिवार के बारे में चर्चा बाद में की जाएगी। यहाँ पर हम ग्रामीण समुदाय की प्रमुख विशेषताओं के बारे में मोटे तौर पर वर्णन करेंगे।

प्राचीन भारत में ग्रामीण समुदाय

अपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार राजा नगरों और ग्रामों के लिए सुपरिभाषित अधिकार क्षेत्रों के साथ राज्य पदाधिकारियों ( अध्यक्ष या अधिपस) को नियुक्ति करते थे। विष्णु स्मृति में उल्लेख है कि राजा 1. 10 और 100 गाँवों और सम्पूर्ण ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अधिकारियों की एक श्रृंखला नियुक्त करता था। कौटिल्य के अनुसारग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों के लिए तीन श्रेणियों में अधिकारियों को उत्तरदायित्व सौंपा जाता था। समहर्त्त या प्रदेस्ता एक ग्रामीण क्षेत्र या जनपद का मुखिया होता था। जनपद में चार मण्डल होते थे और प्रत्येक मण्डल को सँभालने का उत्तरदायित्व एक स्थानिक पर रहता था। इन अधिकारियों का मुख्य कर्तव्य जनता के जान-माल की रक्षा करना था । यदि निम्न श्रेणी का अधिकारी अपना उत्तरदायित्व निभाने में सफल नहीं हुआ तो उसे अपने से उच्च अधिकारी को रिपोर्ट देनी पड़ती। थी। कौटिल्य के अनुसार यह अधिकारी व्यक्तिगत रूप से लोगों के जीवन की रक्षाराजस्व बकाया और घाटे सम्बन्धी आँकड़े रखने और 800, 400 और 10 गाँवों की इकाइयों के मुख्यालयों पर सिविल और फौजदारी मुकदमे निपटाने के लिए उत्तरदायी थे।

धर्मसूत्रों के अनुसारमुखिया की नियुक्ति राजा करता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मुखिया का पद वंशानुगत थापरन्तु राजा द्वारा उसकी पुष्टि होनी आवश्यक थी। एक जातक कथा में वर्णन मिलता है कि गाँवों के कामों के प्रबन्ध करने के लिए ग्राम सभाएँ होती थीं। पण्ड्या और चोल शासन के अन्तर्गत एक कार्यकारिणी या विभिन्न कार्यकारी समितियों की मदद से सुगठित ग्राम सभाएँ होती थीं जिनको स्वशासन के लिए व्यापक अधिकार प्राप्त थे। कार्यकारिणी या कार्यकारी समितियाँ जनता द्वारा निर्मित नियमों के अनुसार जनता द्वारा ही निर्वाचित की जाती थीं। इन सभाओं की प्रतिष्ठा इनकी न्यायनिष्ठा और ईमानदारी के कारण बहुत अधिक थी। इनको राजा का संरक्षण प्राप्त था। मंदिरों के कोषों का प्रबन्ध भी इन सभाओं द्वारा किया जाता था। झगड़ों का निपटाराभूमि दानअस्पतालों की स्थापना और प्रबन्धदानशील संस्थाओं की देखभाल और करों का नियन्त्रण आदि अनेक कार्य इन सभाओं को करने पड़ते थे।

बुद्ध के समय (ईसा पूर्व छठी सदी) गाँव सामूहिक जीवन की एक स्वायत्त इकाई थी जिसमें कर शिक्षाझगड़ों का निपटारा और सार्वजनिक कार्य किए जाते थे। इस काल में ग्रामीण समुदाय में अनेक परिवर्तन हुए। पाली भाषा के ग्रंथों में गामाभोजक (शाही फरमान द्वारा गाँव में राजस्व प्राप्तकर्ता) को निर्दयी कहा गया हैक्योंकि वह मनमानी माँगें पूरी करके लोगों को लूटता था और कभी-कभी लोगों के स्वायत्त और सहायक जीवन में भी हस्तक्षेप करता था । इस काल में लोगों ने मेलों और आनंदोत्सवों में भाग लेकर अपना मनोरंजन किया। पशुओं की लड़ाईनटबाजीजादू के खेलनाच और नाटक आदि का प्रबन्ध किया जाता था। वेश्यावृत्ति मदिरापान और जुआ सामान्य बुराइयाँ थीं। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ग्वालेशिकारीकारीगरसिपाहीगुप्तचर और पार्षद (राजा के पदाधिकारी) नाम की सात जातियों के पाए जाने का उल्लेख है। वास्तव में ये व्यावसायिक समूह थे न कि वंशानुक्रमण पर आधारित जातियाँ। अन्तर्जातीय विवाह आम रिवाज था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में सामाजिक और सांस्कृतिक विभेदों की शुरुआत हुई थी। इससे पूर्व गाँव में शासक और शासित के रूप में भेदभाव पाए जाते थे। गाँवों के बीच सम्बन्ध पाए जाते थे। गाँवों के राजा और शहरवासियों से सम्बन्ध थे। दोनों पर ही राजा और उसके द्वारा नियुक्त अधिकारियों का शासन था।


मध्यकालीन भारत में ग्रामीण समुदाय


मध्यकाल में गाँव के दृश्यपटल में परिवर्तन को आया। मंदिर और ग्राम पंचायत अत्यधिक प्रभावकारी संस्थाओं के रूप में उभरी। मध्यकालीन हिन्दू शासकों ने अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्य निभाने में उदासीनता और उपेक्षा दिखाई। लोगों के पास अपने आप साधन जुटाने के अलावा कोई चारा न रहा। मंदिर और पंचायत ने लोगों को एक सुखीस्वस्थ और लाभकारी जीवन प्रदान करने में अगुवाई की। पंचायत ने लोगों की राजा द्वारा शोषण के विरुद्ध रक्षा की। मंदिरों में अनेक लोगों को रोजगार दिया गया और विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया गया। मंदिर उच्च ज्ञान और ललित कला के शिक्षणालय के रूप में काम करने लगे। इसके द्वारा बैंकों और किसानों का कार्य भी किया गया। हजारों लोगों को रोजाना भोजन इन मन्दिरों में मिलता था। विभिन्न प्रकार के धार्मिकशैक्षणिक और सांस्कृतिक कार्य भी सम्पन्न किए जाते थे। अनेक मस्जिदें भी शिक्षणालयों के रूप में कार्य करती थीं और उन्हें भी सरकारी संरक्षण प्राप्त था। निःसन्देह मंदिरों व पंचायतों ने राजाओं द्वारा उत्पन्न सामाजिकसांस्कृतिक रिक्त स्थान की पूर्ति की परन्तु उन्होंने भारत में एक स्थिर संस्कृति की भी रचना की। समाज की प्रगति के लिए कोई नए परिवर्तननवाचार और उपाय नहीं लाए गए।

प्रारम्भिक मध्यकाल में अधिकतर लोग गाँवों में रहते थे और कृषि उनका मुख्य व्यवसाय था। विभिन्न प्रकार के मध्यस्थों द्वारा कृषक राज्य को भू-राजस्व देते थे। भूमि मनुष्य अनुपात निम्न था। भोजन सामग्री की बाहुलता थी और यह सस्ती भी थी। गाँवों में जीवन प्रायः विलगअप्रगतिशील बहुत ही साधारण और स्थिर था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था स्वावलम्बी थी । कारीगरनौकरपुजारी और साहूकार गाँव की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। ग्रामवासियों को संयुक्त परिवार से सुरक्षा प्राप्त थी और ग्राम पंचायत द्वारा उनकी छोटी-मोटी शिकायतों के बारे में न्याय सुलभ था। जाति पंचायत और मुखिया समेत गाँव राज्य की स्वायत्त इकाई थी और केन्द्रीय सरकार के बारे में सोचे बिना अपना कार्य सम्पन्न करती थीं। इस प्रकार मध्यकालीन भारत का खाका प्राचीन भारत की तुलना में भिन्न था। मध्यकालीन भारत की निश्चल अर्थव्यवस्था के कारण ब्रिटिश प्रशासकों और नृजाति वैज्ञानिकों में अनेक भ्रान्तियां उत्पन्न हुई।

आधुनिक भारत में ग्रामीण समुदाय

भू-स्वामित्व के बारे में गहन सर्वेक्षण कार्य की शुरुआत के साथ ही 18वीं शताब्दी में भारतीय गाँव का अध्ययन भी प्रारम्भ हुआ। ग्रामीण सामाजिक जीवन का गहन आनुभाविक अध्ययन वर्तमान सदी में प्रचलित हुआ। मुनरोमैटकॉफ मैनमार्क्स और बैडेन पोवेल द्वारा किए गए अध्ययनों में भारतीय ग्राम को बंद और पृथक व्यवस्था की संज्ञा दी गई। सर चार्ल्स मैटकॉफ ने भारतीय ग्राम को अखण्डितपरमाणुक और अपरिवर्तनीय इकाई कहा। मैटकॉफ लिखते हैं- " ग्रामीण समुदाय लघु गणतंत्र हैंउनमें उनकी आवश्यकताओं की लगभग सभी वस्तुएँ पाई जाती हैंऔर वे सभी विदेशी संबंधों से लगभग स्वतंत्र हैं। " मैटकॉफ ने यह भी लिखा कि युद्ध होते हैंसाम्राज्य बनते और बिगड़ते हैं परन्तु गाँव समाज के रूप में अपरिवर्तनीय स्थिर और स्वावलम्बी होकर उभरते रहते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या भारतीय ग्राम का यह चित्रण उचित और सही हैअनेक मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने इस मत का जोरदार खण्डन किया है। इस मान्यता को ध्यान में रखते हुए कि भारतीय गाँव स्थिरपृथक और सदृश नहीं थेइसमें परिवर्तन हो रहे थे। गाँव वृहद समाज से जुड़े हुए थे और इनमें सामाजिक विभेदीकरण भी था । अनेक अध्ययन इस सदी के पाँचवे दशक में किए गए वृहद् संसार से अलगाव और विलगता को हटाने में प्रवसनग्राम बहिर्विवाहजजमानी निहित अन्तरग्रामीण आर्थिक संबंधबाजारों के लिए शहरों पर निर्भरताश्रम विभाजन और धार्मिक स्थानों के दर्शन आदि भारतीय ग्राम की मुख्य विशेषताएँ रही हैं। जजमानी प्रथा विभिन्न जातियों के बीच सामाजिकसांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों की व्यवस्था रही है। इस प्रथा के अंतर्गत कुछ जातियाँ संरक्षक या मालिक की भूमिका निभाती हैं और कुछ सेवा करने वाली जातियाँ होती हैं। सेवक जातियाँ प्रायः उच्च भूस्वामी जातियों की सेवा करती हैं और उसके बदले नकद व अन्य किस्म के रूप में प्रतिफल प्राप्त करती हैं। इन जातियों को मालिक जातियों और उनके परिवारों की सेवा करने के लिए प्रायः बाध्य भी किया जाता है। कभी-कभी विशेषकर त्यौहारों और अन्य पवित्र अवसरों पर जजमान उन्हें इनाम तथा उपहार भी देते हैं। प्रतियोगिताशहरों के साथ सम्पर्कप्रवसनशिक्षा और सेवक जातियों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के कारण जजमानी कमजोर पड़ रही है। आज ग्रामीण जनता उन सेवाओं के लिए शहरों और कस्बों पर निर्भर है जो पहले सेवक जातियों द्वारा प्रदान की जाती थीं।

विभिन्न गाँव अन्य गाँवोंकस्बों व शहरों से अनेक संबंधों द्वारा जुड़े हुए हैं। मैंडेलबॉम के कथनानुसार गाँव साफ तौर पर अलग किया जा सकने वाला सामाजिक अथवा अवधारणात्मक बण्डल नहीं हैवरन् यह एक आधारभूत इकाई है। गाँव दिन-प्रतिदिन वृहद् समाज का अंग बन रहे हैं।


गाँव एक सामाजिक इकाई के रूप में


फ्रांसीसी समाजशास्त्री लुई ड्यूमो ने ग्रामीण समुदाय शब्द के तीन अर्थ बतलाए हैं- (1) एक राजनैतिक समाज के रूप में, (2) भूमि के सह स्वामियों की एक इकाई के रूप मेंऔर (3) परम्परात्मक अर्थव्यवस्था और राजनैतिक + व्यवस्था के प्रतीक ( भारतीय देशभक्ति का आदर्श वाक्य) के रूप में इस मत के अनुसार भारत में ग्रामीण समुदाय राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था का अंग रहा है। एक गाँव मात्र एक स्थान घरोंगलियों और खेतों का पूँज ही . नहीं है। ये प्रतिक्रियाएँ इसलिए उभरकर आई क्योंकि भारतीय गाँवों की स्वतन्त्रता व स्वावलम्बन को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया। आज भी गाँव एक संबद्ध क्षेत्रीय इकाई के रूप में हैं। परन्तु गाँवों में ग्रामीण पहचानएकता और निष्ठा की भावनाजाति और समुदाय की भावना से कहीं ऊपर हैं। गाँव के अन्दर और अन्य गाँवों के साथ गुटबन्दी तथा संघर्ष आम बात है। भूमि सुधारोंपंचायती राज संस्कृतिकरण और अन्य रचनात्मक तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों द्वारा गाँव की सामाजिक संरचना और गाँव के वृहद् संसार के साथ संबंधों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। मैंडेलबॉम ने कहा है कि एक गाँव स्पष्ट रूप से इसके निवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण और व्यावहारिक सामाजिक इकाइ हैं। ये लोग वृहद् समाज की गतिविधियों में भाग लेते हैं और सभ्यता के प्रतिमान में भागीदार हैं। अध्ययनों के उद्देश्य से कुछ हालातों में गाँव को विलग किया जा सकता है परन्तु अन्य हालातों में हम ऐसा नहीं कर सकते । इसीलिए गाँव का अध्ययन इसके परिवेश और वृहद् परिप्रेक्ष्य दोनों ही दृष्टिकोण से करने की आवश्यकता है।

स्वयं अंग्रेजों ने भू-धारण की जमींदारी और रैयतवाड़ी व्यवस्थाओं को लागू कर सामाजिक विभेदीकरण का एक नया प्रतिमान स्थापित किया। जमींदार प्रायः उच्च जाति से सम्बद्ध थे। उन्हें ब्रिटिश सरकार के लिए लगान वसूल करने का कार्य सौंपा गया। इस कार्य के लिए उन्हें कमीशन दिया जाता था। उनकी सामाजिक प्रस्थिति असमान थी क्योंकि उन्हें इस कार्य के लिए सौंपी गई जमींदारियां समान नहीं थीं। रैयत भूमिधारी कृषक थे जिनको एक निश्चित राशि के भुगतान के बाद जमीन पर दखल अधिग्रहण का अधिकार मिलता था। वे जमींदारों के अधिकार क्षेत्र में नहीं थे क्योंकि अधिग्रहण के नियमों के अन्तर्गत उनका सम्बन्ध सीधा ब्रिटिश सरकार से था। जमींदारी और रैयतवाड़ी प्रथाओं के उन्मूलन के कारण 1950 और 1960 के दशकों में असमानताओं के इस परम्परात्मक प्रतिमान में दरारें पड़ने लगीं। गाँव में प्रशासन और सरकारी राजस्व कर्मियों के साथ संबंधों का एक नया स्वरूप उभर कर आया ।

ग्रामीण समुदायों में परिवर्तन

1950 के दशक में भारतीय ग्रामीण समुदाय के बारे में अनेक अध्ययन प्रकाशित हुए। 1955 में श्यामाचरण दुबे का इंडियन विलेजएम. एन. श्रीनिवास का ( सम्पादित) इंडियाज विलेजेजडी. एन. मजूमदार द्वारा (सम्पादित) रूरल प्रोफाइल्स और मैक्किम मैरियट द्वारा (सम्पादित) विलेज इंडिया प्रकाशित हुए थे। इन सब अध्ययनों में ग्रामीण भारत में संरचना एवं प्रक्रिया की व्याख्या की गई है। इन अध्ययनों में मुख्य पहलू जाति व्यवस्थापरिवारजजमानी प्रथाधार्मिक व्यवहार और संस्कारकृत्यस्वास्थ्य अवस्थाएँग्राम व जाति पंचायतें विभिन्न जाति समूहों में सामाजिक गतिशीलता और वयस्क मताधिकारशिक्षाविकास ग्रामीण जनता पर प्रभाव थे। विभिन्न गाँवों और एक ही गाँव में विभिन्न जातियोंसमुदायों और परिवारों पर यह प्रभाव असमान है। ब्रजराज चौहान ने चार अवस्थाओं का उल्लेख किया है- (1) एक गाँव और एक जाति, (2) एक गाँव और अनेक जाति, (3) एक जाति और अनेक गाँवऔर (4) अनेक जाति और अनेक गाँव। इस प्रकार ग्रामीण जीवन में अत्यधिक विभिन्नता और जटिलता है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विभेदों के कारण भारत के गाँवों का वर्गीकरण करना सरल कार्य नहीं है।

स्वतन्त्रता के बाद भारतीय गाँव में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। जाति व्यवस्था जजमानी पर आधारित सामाजिक और आर्थिक संबंधों तक ही सीमित नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि शहरों के साथ सम्पर्क में वृद्धि और कृषि के क्षेत्र में तकनीकी उपायों के आगमन के कारण जजमानी प्रथा कमजोर पड़ गई है। पारम्परिक व्यवस्था बाजार अर्थव्यवस्था के कारण हिल चुकी है। परन्तु जन्मविवाहमृत्यु और अन्य सामाजिक अवसरों पर सामाजिक-सांस्कृतिक समूहीकरण का मुख्य स्रोत आजभी जाति ही है। विवाहों के बारे में निर्णय लेने में जाति अन्तर्विवाहगोत्र बहिर्विवाह और अन्य सम्बन्धित नियम ही आधार हैं। जाति अन्तर्विवाह के अनुसार एक व्यक्ति अपनी जाति में ही विवाह कर सकता है। एक जाति या उपजाति में अनेक गोत्र होते हैं। वे लोग जो स्वयं के गोत्र से जुड़े हुए हैं और वे लोग जो मातृपक्ष के गोत्र से जुड़े हुए हैंविवाह के घेरे से बाहर समझे जाते हैं।

उपरोक्त जाति निरंतरताओं के प्रतिमानों के उपरांत भी अन्तर्जातीय संबंध अब खण्डित हो चुके हैंअर्थात् अन्तर्जातीय अन्तर्निर्भरता घट गई हैतनाव बढ़ गए हैं और गाँव के साधनों में अधिकतम हिस्सा प्राप्त करने के लिए विभिन्न जातियों में प्रतियोगिता बढ़ चुकी है। जातियों और यहाँ तक कि विभिन्न गोत्र और वंश भी विशिष्ट जातियों में कभी-कभी गुटबन्दी और प्रतिद्वन्द्वी समूहों की तरह व्यवहार करते हैं। जाति को ध्यान में रखते हुए पंचायत चुनावों में लोग मतदान करते हैं। जातियाँ एक प्रकार से स्वार्थ समूह बन गई हैं।

जाति सदस्यों के रोजमर्रा के कार्यों में जाति पँचायतें लगभग प्रभावहीन हो चुकी हैं। फिर भी सम्पूर्ण जाति के लिए कुछ गंभीर परिणामों के मामलों और पारस्परिक विरोधी तथा विवादास्पद मामलों पर जाति पंचायत प्रभु सदस्यों की एक अनौपचारिक समिति निर्णय लेती है। ऐसे अवसर प्रायः बहुत कम आते हैं। गाँव के बुजुर्ग रोजमर्रा के मामलों को अनौपचारिक तौर पर निपटाते हैं। यदि ग्राम पंचायत को कोई मामला सौंपा जाता है तो इससे पहले एक विशिष्ट जाति के लोग व अन्य जातियों के कुछ लोग अनौपचारिक रूप से उस मामले की जाँच कर लेते हैं। इन्हीं झगड़ोंनिर्णय प्रक्रिया और मतदान के तरीकों के सन्दर्भ में ही आज गाँव में सत्ता के दाँव पेंचों को समझने की आवश्यकता है।

शिक्षा प्रवसनकृषि उपजों में परिवर्तन. विद्युतीकरणसिंचाई और कस्बों तथा शहरों के साथ सम्पर्क के कारण आज गाँव का आर्थिक स्वरूप पहले से बहुत भिन्न है। कर्ज के नए साधन उपलब्ध होने के कारण पारम्परिक साहूकारी प्रथा प्रायः समाप्त हो चुकी है। कृषि श्रमिकों का पारिश्रमिक बढ़ चुका है। आज उनकी सौदा करने की शक्ति में भी वृद्धि हुई है। भूमि सुधार और हरित क्रांति के कारण जाटअहीरकुर्मी रेड्डीपटेल आदि मध्यम श्रेणी की जातियों का आर्थिक प्रभुत्व बढ़ गया है। हरित क्रांति का अभिप्राय नई तकनीकबीज और खाद आदि के प्रयोग से कृषि के क्षेत्र में ठोस परिवर्तनों के लाने से है।

संख्या में बड़ी होने के कारण नई परिस्थितियों में उपरोक्त मध्यम जातियाँ राजनीति के क्षेत्र में भी मजबूत हो गई हैं। निम्न जातियाँ भी गाँव में अन्य जातियों के समीप आई हैं। अस्पृश्यता आज उतनी अधिक कठोर नहीं हैजितनी 50 वर्ष पहले थी। स्वतंत्र भारत में 'अछूतअपनी प्रस्थिति के बारे में जागरूक हो गए हैं। बेहतर रोजगार के लिए इन पिछड़े लोगों में से बहुत से लोग शहरों में चले गए हैं। गाँव की संरचना और अर्थव्यवस्था में इन परिवर्तनों के बावजूद गाँव आज शहर व कस्बे से लोकाचारजीवन शैली और पारस्परिक संबंधों में कुछ सीमा तक भिन्न हैं। वास्तव में शहरों की तुलना में गाँव एक भिन्न संरचनात्मक प्रतिमान का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भारत में नगरीय जीवन

नगर के बारे में कम से कम दो प्रवृत्तियाँ स्पष्ट हैं- (1) जीविका के लिए कृषि पर निर्भरता धीरे-धीरे कम हो गई हैऔर (2) गत कुछ वर्षों में कस्बों और शहरों की जनसंख्या बढ़ गई है। इन दोनों प्रवृत्तियों से औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रियाओं में वृद्धि हुई है। शहरों में नौकरियों और बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध हैं जबकि गाँवा में जीवनयापन कठिन है। नगरीकरण के कारण गाँवों में धर्मजाति और परिवार के बंधन कमजोर पड़ चुके हैं। शहरों की तरह गुमनामी ग्रामीण क्षेत्रों में अनुपस्थित है। शहरी जीवन का अपना एक अलग व्यक्तित्व है।

कस्बों और शहरों की संरचना


एक लाख या अधिक जनसंख्या वाले स्थान को एक शहर के नाम से परिभाषित किया गया है। पाँच हजार या अधि क जनसंख्या वाले स्थानों को कस्बों का नाम दिया गया है। निम्न तीन अवस्थाओं के पाए जाने पर एक स्थान को कस्बा कहा जाता है- (1) पाँच हजार से अधिक जनसंख्या होने पर (2) जनसंख्या का घनत्व प्रतिवर्ग किलोमीटर 400 व्यक्तियों से कम घनत्व न होने परऔर (3) 75 प्रतिशत वयस्क पुरुष जनसंख्या गैर कृषि कार्यों में संलग्न होने पर।

1901 से अब तक ग्रामीण जनसंख्या और शहरी जनसंख्या के अनुपात में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। इसमें धीमी गति से परिवर्तन हो रहा है। आज शहरों में भीड़ पाई जाती है। शहरों में जितने लोगों के लिए सुविधाएँ उपलब्ध हैंउनसे कहीं अधिक लोग रहते हैं। राजधानियों वाले शहरों पर जनसंख्या का अत्यधिक भार है। गत दो दशकों में दिल्लीबंगलौर और जयपुर की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। सब शहरों और कस्बों की जनसंख्या वृद्धि तथा विकास की गति समान नहीं है।

1981 की जनगणना के अनुसार भारत में एक लाख व अधिक जनसंख्या वाले (श्रेणी एक) 216 शहर थे जिनकी जनसंख्या करोड़ 40 लाख थी। इनमें से 27 प्रतिशत लोग 12 बड़े शहरों में थे जिनकी जनसंख्या 10 लाख या उससे अधिक थी। इन 12 शहरों में सभी में वृद्धि 48 प्रतिशत से कम थी। की ठीक 48 प्रतिशत थी, 2 की 55 और 65 प्रतिशत के बीच में थी और सिर्फ बंगलौर शहर की वृद्धि बहुत तेज थी। कुछ अन्य आंकड़ों से भी वृद्धि की असमानता समझी जा सकती है। शहरों की वृद्धि शहरी औसत वृद्धि से कम थी और की वृद्धि बहुत तेज थी। कुछ अन्य आंकड़ों से भी वृद्धि की असमानता समझी जा सकती है। तीन शहर जो 10 लाख से ऊपर की श्रेणी में प्रवेश कर गएउनमें से जयपुर की वृद्धि अन्य प्रथम श्रेणी के शहरों से कुछ अधिक थी और नागपुर की कुछ धीमी । लखनऊ की वृद्धि भारत की औसत वृद्धि दर से कम रही।

1971 से 1981 के दशक में 50 प्रथम श्रेणी के शहरों में वृद्धि बहुत तेजी से हुई। केवल बहुत बड़े शहर थे और 38 नगरों में जनसंख्या लाख या इससे कम थी। एक मत के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास के कारण शहरों की जनसंख्या में वृद्धि अमेरिका में शहरों की वृद्धि से बहुत कम हुई है। अमेरिका की जनसंख्या भारत की जनसंख्या की एक तिहाई है और इसमें से 16 करोड़ 60 लाख लोग 290 प्रथम श्रेणी के शहरों में रहते हैं। करोड़ 50 लाख लोग 38 बड़े शहरों में रहते हैं। इस दृष्टि से भारत में नगरीकरण की गति बहुत धीमी है। नगरीय वृद्धि मुख्यतः नगरों की स्वाभाविक वृद्धि के कारण ही है और यही वृद्धि की असमानता का वास्तविक कारण भी है।

जनसंख्या आकार के आधार पर शहरी केन्द्रों को 6 श्रेणियों में विभक्त किया गया है। ये श्रेणियाँ हैं- (1) 1,00,000 या अधिक, (2) 50,000 से 1,00,000 तक, (3) 20,000 से 50,000 तक, (4) 10,000 से 20,000 तक, (5) 5,000 से 10,000 तकऔर (6) 5,000 से कम। इसके अलावा दिल्लीकलकत्ताबम्बईमद्रासअहमदाबादहैदाराबादबंगलौर और कानपुर आदि महानगर हैं। स्वतंत्रता के पश्चात पाँचवीं और चौथी श्रेणियों के शहरों की वृद्धि बहुत कम हुई है। औद्योगिक नगरों की वृद्धि विशेषकर बंगालबिहार और उड़ीसा में हुई है।

भारत में कब और शहर औद्योगीकरण के परिणाम नहीं हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता मूलतः नगरीय सभ्यता थी । पूर्व औद्योगिक भारत में तीर्थ-स्थानराजधानियाँव्यापारिक केन्द्र और बौद्धिक विकास केन्द्र तथा विश्वविद्यालय शहरों में केन्द्रित थे। औद्योगीकरण के पहले वाराणसीइलाहाबादतिरुपतिअमृतसरअजमेरहरिद्वारदिल्लीआगराहैदराबादपुणेढाकानालंदा और तक्षशिला प्रसिद्ध थे। आज तीर्थ स्थानों वाले शहर व्यापार के केन्द्र बन गए हैं। राजधानियों वाले शहरों में सेनापुलिस अधिकारी तंत्र और बुद्धिजीवी लोग रहते हैं। इन शहरों में कलाकारसंगीतकारगायक और विद्वान भी रहते हैं। अंग्रेजों के आगमन के कारण बंदरगाह वाले शहर व्यापारिक केन्द्र बन गए। बाद में ये ही शहरअर्थात् कलकत्ताबम्बई और मद्रास उच्च शिक्षा और विधि व्यवसाय के केन्द्र भी बन गए। ये पूर्व औद्योगिक नगर अपनी क्षमता और उपलब्ध संसाधनों की तुलना में आज बहुत कड़े बन गए हैं।

नगरीकरण की अवधारणा


नगरीकरण का अभिप्राय परम्परागत सामाजिक संस्थाओं और मूल्यों के भंग या बिगाड़ होने से है। नगरीकरण के परिणामस्वरूप भारत में जाति प्रथा वर्ग व्यवस्था मेंसंयुक्त परिवार एकाकी परिवार में और धार्मिक मूल्यों में परिवर्तन नहीं हुए हैं। एम. एस. ए. राव का मत है कि बिगाड़ की परिकल्पना की उत्पत्ति पश्चिमी संसार के अनुभव से हुई है और इसलिए भारत में परम्परागत नगरीकरण के तथ्यों को नजरअंदाज किया जाता है। यह भी सही है कि आधुनिक नगरीकरण परम्परागत नगरीकरण से भिन्न है।

प्राचीन भारत में शहर पूजावार्षिक धार्मिक सम्मूलनों और व्यापार व जहाजरानी के महत्वपूर्ण केन्द्र थे। इन शहरों की जनसंख्या स्थिर थी। आज शहर औद्योगिक केन्द्रजिलेराज्य के मुख्यालय या उच्च शिक्षा के केन्द्र बने हुए हैं। नगरों में विविध प्रकार की जनसंख्या है। नए शहरों में चण्डीगढ़गाँधीनगरबोकारोभिलाई और सिंदरी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। कुछ शहरों का परम्परागत महत्व समाप्त हो गया है जबकि आर्थिक और राजनीतिक कारणों से कुछ शहरों का महत्व अधिक बढ़ गया है।

नगरों के अध्ययनों को राव ने तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया है- (1) संस्थात्मक उपागमों से सम्बन्धित अध्ययन, (2) सभ्यताओं के इतिहास के सामान्य संदर्भों में शहरों और उनके विकास का अध्ययनऔर (3) दीर्घ परम्परा के सामाजिक संगठन के संदर्भ में शहरों की संस्कृति व भूमिका के बारे में व्याख्या करने वाले अध्ययन प्रथम अभिमत के अनुसार हम आर्थिक संस्थाओं उदाहरणार्थमध्यम वर्ग और व्यापारिक संगठन का प्रादुर्भाव व धर्म की भूमिका का उल्लेख कर सकते हैं। पिरेन्ने के अनुसार व्यापार और लेन-देन में व्यस्त मध्यम वर्ग और समूह शहरों में पाए जाते हैं। कुलांगे ने प्राचीन नगरों की तुलना धार्मिक समुदायों से की है। मैक्स वेबर ने सामाजिक क्रिया और स्वायत्त नगरीय सरकार पर जोर दिया। इस प्रकार संस्थात्मक उपागमों के समर्थकों ने शहरों के विकास की विशिष्ट अवस्थाओं और कारणों को विभिन्न सन्दर्भों में देखा। स्पैन्गलरटॉयनबीगेड्डेसघुयेंममफोर्ड और विर्थ ने सभ्यता के विकास के समानान्तर ही नगर के विकास का उल्लेख किया है। विश्व इतिहास को वे नगर इतिहास की तरह ही देखते हैं। शहर सभ्यता का दर्पण है। शहर सभ्यता का प्रतीक है। रोबर्ट रेडफील्ड ने परम्परा और संस्कृति के संगठन में विषमजातीय और नियत विकासीय परिवर्तन की प्रक्रियाओं की दृष्टि से शहरों का वर्गीकरण किया है। मिल्टन सिंगर का मत है कि दीर्घ परम्परा मूलतः एक शहरी प्रघटना है और लघु परम्परा का दीर्घ परम्परा में परिवर्तन नगरीकरण की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। फिर भी दीर्घ परम्परा में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहा है और इसलिए व्यक्तिवादस्वतंत्रतापरम्परागत मानकों और मूल्यों में लचीलापन दिखाई देता है।

जी. जोबर्ग ने शहर को पूर्व-औद्योगिक और औद्योगिक की श्रेणियों में विभक्त किया है। पूर्व औद्योगिक शहर सामन्ती थे। इस उपागम की दो सीमाएँ हैं- (1) सामन्तवाद ही शहर निर्माण का एकमात्र आधार नहीं था, ( 2 ) औद्योगीकरण के अलावा आज आधुनिक शहर की रचना में अन्य कारक पी पाए जाते हैं। यहाँ तक कि कुछ बहुत महत्वपूर्ण कस्बों और शहरों में औद्योगीकरण नहीं है जैसा कि बोकारोंभिलाईजमशेदपुरराँचीफरीदाबादअहमदाबादबम्बई और पुणे आदि में है।

भारत में नगरीकरण

भारत में नगरीकरण की प्रकृति के बारे में निम्न प्रश्न उठाए गए हैं-

1. क्या नगरीकरण की प्रकृति पश्चिमीकरण के साथ जुड़ी हुई है?

2. क्या गाँवों और शहरों में वैध अन्तर किया जा सकता है?

3. नगरीकरण का सन्दर्भ सामाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ा जा सकता है। अतः नगरीकरण सामाजिक परिवर्तन का एक स्वतन्त्र चर नहीं है।

4. नगरीकरण के परिणामस्वरूप सामाजिक व्यवस्था और संगठन के नए स्वरूप उभर कर आए हैं। 


हमारा विचार है कि क्योंकि जाति संयुक्त परिवार और जन-संस्कृति भारत के कस्बों और शहरों में विद्यमान हैंनगरीकरण पश्चिमीकरण के साथ जुड़ा हुआ नहीं है। पूर्व-पश्चिमीकरण काल में भी भारत के विभिन्न भागों में अनेक शहर थे जहाँ पर लोग गाँवों में जाते थे। जीवन के लोकाचारसांस्कृतिक प्रतिमानोंसामाजिक-सांस्कृतिक समूहकरण और जीविकायापन के तरीकों के सन्दर्भ में गाँव और शहर के बीच अन्तर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। परन्तु जातिबंधुताविवाह के नियम और धार्मिक व्यवहारों के अनुपालन आदि के सम्बन्ध में गाँवों और शहरों में संरचनात्मक समानताएँ पाई जाती हैं। गाँवों और शहरों के बीच अन्य संस्थागत कड़ियाँ प्रवसनशैक्षिक संस्थाएँरोजगार के अवसर और प्रशासन हैं।


गाँवों और शहरों को सिर्फ द्विभाजीय इकाइयाँ नहीं माना जा सकता। ये दोनों अंतर्संबंधित हैं और एक-दूसरे से अलग भी हैं। यह सत्य है कि नगरीकरण स्वयं में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में प्रगति और अन्य कारणों का परिणाम है। जब एक बार नगरीकरण एक तथ्य के रूप में घटित होता है तो औपचारिक संगठनसंस्थाएँयातायात और संचार के साधनगंदी बस्तियाँभीड़-भाड़ और अपराध आदि कई परिस्थितियाँ और समस्याएँ उभर आती हैं। वास्तव मेंप्रारम्भ में नगरीकरण एक आश्रित चर हैंपरन्तु तदुपरान्त नगरीकरण एक निर्णयात्मक कारक बन गया है। नगरीकरण की प्रक्रिया में एक प्रकार का वृत्ताकार कार्योत्पादन पाया जाता है।

जी. एस. धुर्ये ने नगरीकरण की एक व्यावहारिक परिभाषा दी है। नगरीकरण का अर्थ गाँव से शहर के लोगों के प्रवसन और इस प्रवृत्ति का प्रवासियोंउनके परिवारों तथा गाँवों में उनके सहवासियों पर पड़ने वाले प्रभाव से है। डी. एफ. पोकोक का अवलोकन बहुत उचित प्रतीत होता है। उनके अनुसार “भारतीय शहरप्राचीन या आधुनिकभारतीय हैंठीक उसी प्रकार जैसे एक अमेरिकन शहर अमेरिकन है। इस कल्पना से कोई लाभ नहीं कि शब्द 'शहरमें स्वतः ही कुछ तुलनात्मक विशेषताएँ निहित रहती हैं।" आवश्यकता यह है कि भारतीय नगरीय परिस्थितियों का अध्ययन विशिष्ट सन्दर्भों और ऐतिहासिकता को दृष्टिगत रखकर किया जाए। रामकृष्ण मुखर्जी ने गाँव और नगर के विभाजन की धारणा को नकारा है। उन्होंने इस दृष्टि को भी स्वीकार नहीं किया है कि नगरीकरण कोई स्वतंत्र चर है। उन्होंने नगरीकरण के अंश की धारणा को ग्राम नगर सम्बन्धों को समझने के लिए एक लाभदायक अवधारणात्मक यंत्र माना है। इसलिए उन्होंने ग्राम-नगर निरन्तरता की अवधारणा को महत्व दिया है।

नगरीकरण की अवधारणा को नगरीयता और नगरीयवाद की अवधारणाओं से अलग करना आवश्यक है। नगरीकरण का सन्दर्भ ग्रामों से नगरों में प्रवासित लोगों के मूल्यों मनोवृत्तियों और जीवन प्रणालियों में परिवर्तन की प्रक्रिया से है। नगरीकरण का अभिप्राय ऐसे नगरवासियों द्वारा ग्राम के लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव से भी है। नगरीयता नगरवासियों की वह स्थिति है जो ग्रामवासियों की स्थिति से भिन्न है। नगरीयता का सन्दर्भ नगर में रहने वाले लोगों की कार्य स्थितिभोजन की आदतोंतनाव के प्रतिमान और जीवन दृष्टिकोण के जीवन प्रतिमानों से है। नगरबाद मानकों और मनोवृत्तियों की वह व्यवस्था है जो अन्तर्व्यक्ति संबंधों के अन्तर्गत औपचारिकवादव्यक्तिवाद और गुमनामी के रूप में है।


10 नगरीय सामाजिक संरचना और स्तरीकरण


नगरीय सामाजिक संरचना और स्तरीकरण को समझने के लिए अनेक कसौटियों का उपयोग किया गया है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण मापदण्ड बंद या खुलेपन की सीमावंचनाओं तथा पारितोषिकों की प्रकृति है। ये मापदण्ड विशिष्ट समूहों और समुदायों पर लागू होते हैं क्योंकि उनमें से कुछ को अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार करने के अवसर प्राप्त होते हैं जबकि अन्य इनसे वंचित रहते हैं। उद्देश्यों की प्राप्ति करने में अभिप्रेरणात्मक संरचनाउपलब्ध अवसरों और संचार के साधनों के उपयोग में आधार व्यक्ति है। अतः सैद्धान्तिक दृष्टि से नगरीय सामाजिक संरचना को खुलेपनगुणात्मक आधारों (व्यवसायशिक्षाआय इत्यादि)गतिशीलता और व्यक्तिगत श्रेणीकरण की विशेषताओं द्वारा चित्रित किया जा सकता है।


विक्टर एस. डिसूजा ने चण्डीगढ़ शहर के अध्ययन में बंधुताजातिवर्गधर्म और विस्थापित अवस्थाओं के आधार के आधार पर की गई है। मान्यता यह है कि यदि कोई विशिष्ट प्रकार का समूहीकरण शिक्षाव्यवसाय और आय के सन्दर्भ में समान है तो सिद्धान्तों पर वे निर्मित हुए हैं वे सामाजिक संगठन के लिए महत्वपूर्ण कहलाने के लिए प्रत्येक समूह के सदस्य समरूपी होने चाहिए जबकि विभिन्न समूह विषम ।

डिसूजा के अवलोकन के अनुसार शैक्षिकव्यावसायिक और आय के सोपान एक दूसरे से सहसंबंधित हैं परन्तु इनमें से प्रत्येक का व्यवहृत जाति सोपान से सहसंबंध महत्वपूर्ण नहीं है। सामाजिक वर्ग स्थिति (व्यावसायिक प्रस्थिति ) निश्चय की शिक्षा और पारिवारिक आय से सहसंबंधित है। चण्डीगढ़ के लिए सामाजिक प्रस्थिति एक आधारभूत मूल्य है जो कि शिक्षाव्यावसायिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक आय पर आधारित है।

डिसूजा लिखते हैं कि सामाजिक वर्ग को व्यक्तियों की एक श्रेणी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। डिसूजा के अनुसार व्यावसायिक प्रतिष्ठा वर्ग स्थिति का सबसे अधिक विश्वसनीय सूचक है। विभिन्न श्रेणियों के उत्तरदाताओं की आत्म - पहचान को भी वर्ग स्थिति को समझने के लिए उपयोग में लिया गया है। वस्तुपरक कसौटियों का व्यक्तिगत वर्ग पहचान के साथ सहसंबंध है। मुख्य वर्ग हैं- (1) उच्च वर्ग, (2) मध्यम वर्ग, (3) श्रमिक वर्गऔर (4) निम्न वर्ग । डिसूजा ने सात व्यावसायिक श्रेणियों का भी उल्लेख किया है जो व्यक्तियों के पदों के आधार पर विभिन्न वर्गों से विभिन्न प्रकार से संबंधित हैं। शहरों में अनेक प्रकार के व्यावसायिक वर्ग हैं। ये वर्ग अध्यापनचिकित्सा और कानूनी सेवा आदि प्रशिक्षित कार्य करते हैं। व्यवसायियों को सामाजिक मूल्य के अध्ययन द्वारा सामाजिक स्तरीकरण और गतिशीलता की प्रक्रिया के बारे में महत्त्वपूर्ण अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो सकती है। एशिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में व्यवसायी वर्गों का अनुपात तमाम कर्मियों के संदर्भ में बहुत कम है। प्रति 10,000 कर्मियों के पीछे भारत में 171 व्यवसायी कार्यकर्ता हैं। जापान में 489, चीन में 349, श्रीलंका में 446, मलेशिया में 314 और फिलीपीन में 294 प्रति दस हजार हैं। यह तथ्य भी स्पष्ट हुआ है कि उच्च जातियों के सदस्य और शहरी लोग व्यवसायों में अधिक हैं।

अत: उच्चउच्च-मध्यम और मध्यम वर्गों के सदस्य व्यवसायों में अधिकतर अवसरों और पदों पर प्रभुत्व जमाए हुए हैं। उच्च स्तरीय राजनैतिक अभिजात भी उच्च और उच्च-मध्यम जाति और वर्ग के हैं। यह तथ्य कुछ विशेष व्यक्तियों के अलावा सभी राजनैतिक दलों के बारे में भी सत्य है परन्तु हाल ही के कुछ वर्षों में राजनीति में शहरी धनी लोगों का वर्चस्व बढ़ा है। अखिल भारतीय और केन्द्रीय सेवाओंमेडिकल व इंजीनियरिंग व्यवसायों में भी कुछ परिवर्तन दिखाई देता है। पंजीकृत उद्योगों के लगभग 70 प्रतिशत कर्मचारी शहरों में रहते हैं। कार्यालयों में कार्य करने वालों में से भी अधिकांश कस्बों और शहरों में रहते हैं।

कस्बों और शहरों की सामाजिक संरचना में निम्नलिखित वर्ग पाए जाते हैं- 

(1) सर्वोच्च स्तरीय व्यापारीउद्योगपति और नौकरशाह
(2) उच्च आय वाले व्यवसायीवैज्ञानिक और तकनीकज्ञउद्योग में व्यावसायिक प्रबंधक और बड़े सौदागर
(3) सरकारी कार्यालयों और निजी फर्मों में कार्यरत लिपिक एवं निम्न स्तरीय अधिकारीस्कूल के अध्यापककार्यरत पत्रकारसंघर्षरत व्यवसायीछोटे दुकानदार और छोटे स्तर के उद्यमीतथा 
(4) श्रमिक वर्गउदाहरण के लिए प्रचालक और कारीगरघरेलू उद्योगों के श्रमिकसेवा करने वाले श्रमिक फेरी और घड़ीवालेमकान निर्माण और अप्रशिक्षित मजदूर।

हम यह कह सकते हैं कि नगरीकरण का अभिप्राय ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर लोगों के प्रवसन से है। 20वीं सदी में नगरीकरण की दर पहले की अपेक्षा काफी तेज रही है। नगरीकरण और नगरीय विकास की गति असमान रही है। सामान्य रूप में इसने सम्पूर्ण भारत और कतिपय क्षेत्रों पर गंभीर रूप से प्रभाव डाला है। किसी क्षेत्र के विकास में कस्बों और शहरों की स्थिति उस क्षेत्र की आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण तथ्य रहा है। अंतरालन के अलावा शहरों के आकार का भी बहुत महत्व रहा है। इन दोनों कारणोंआकार और स्थिति से ग्रामीण नगरीय अन्तःक्रिया जैसे प्रवसनशहरी बाजार को सामान की आपूर्ति और शहरों से उपभोक्ता वस्तुओं का क्रय आदि बहुत हद तक प्रभावित होती रही है। इस अनुभाग में हमने ग्रामीण और नगरीय समुदायों में अन्तर नगरीकरण की प्रक्रिया की प्रकृति और वर्ग की रचना के संदर्भ में नगरीय सामाजिक संरचना की व्याख्या की है।
भारत की सामाजिक रचना के तीन प्रमुख अंग हैं-जनजातीय आवासग्राम और कस्बे व शहर जनजाति और गाँवऔर कस्बे के बीच सुस्पष्ट अन्तर आसानी से नहीं किया जा सकता क्योंकि इन सबमें कुछ-न-कुछ समान लक्षण पाए जाते हैं। देश के कुछ भागों में बड़े आदिवासी गाँव हैं और ये गैर- जनजातीयबहुजातीय गाँवों से बहुत भिन्न नहीं हैं। कुछ जनजातियों में नातेदारी सम्पत्ति और सत्ता पर आधारित विभेद उतने ही स्पष्ट हैं जितने गैर जनजातीय संगठन का अंग नहीं है परन्तु वे हमेशा वृहद समाज के सम्पर्क में रही हैं। जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले गैर आदिवासियों ने उनका आर्थिक और सामाजिक शोषण किया है। अनेक जनजातियों ने इस शोषण के विरुद्ध विद्रोह किए हैं।

ग्राम और नगर की कुछ समान विशेषताएँ हैं। दोनों ही एक-दूसरे पर आश्रित हैंविशेषकर अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में। गाँव से लोग नगरों में प्रवसन करते हैं और नगरीय लोग उनके शारीरिक श्रम और खाद्यान्नदूध तथा कच्चे माल आदि के उत्पादन पर निर्भर हैं। दोनों में इन समानताओं के होते हुए भी उनकी कुछ विशिष्टताएँ हैंजिनके कारण वे सांस्कृतिक प्रतिमानोंजीवन प्रणालीअर्थव्यवस्थारोजगार और सामाजिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में एक-दूसरे से भिन्न है। इस अध्याय में हमने ग्रामीण व नगरीय सामाजिक संरचनाउनके पारस्परिक सम्बन्धग्रामीण समुदाय में परिवर्तनों और नगरीकरण की व्याख्या की है।

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