विदेशी पूँजी की भूमिका/ महत्व|Role/Importance of Foreign Capital
विदेशी पूँजी की भूमिका/ महत्व
विदेशी पूँजी की भूमिका- सामान्य परिचय
- प्रौद्योगिकी के प्रसार एवं हाल की प्रौद्योगिक प्रगति ने संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को खुला कर दिया है। अतः विदेशी पूँजी की भूमिका में वृद्धि हो गई है। एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए विदेशी पूँजी और भी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यह (1) विनियोग - बचत अंतराल (2) प्रौद्योगिकी- अंतराल तथा (3) विदेशी विनिमय अंतराल को पूरा करती है।
- आर्थिक वृद्धि के सबसे सरल माडल के अंतर्गत वृद्धि (growth) विनियोग अर्थात् पूँजी की मात्रा में वृद्धि पर निर्भर करती है। इसी क्रम में विनियोग बचतों की दर पर निर्भर करता है जो घरेलू बचतों एवं कंपनियों तथा उपक्रमों की संचित आयों पर निर्भर करती हैं। जब औसत प्रति व्यक्ति आय कम होती है तो बचतें सीमित होती हैं। न्यून आय के प्रभाव पर विजय प्राप्त करने का एक तरीका पूँजी का आयात करना होता है।
- आयातित या विदेशी पूँजी विनियोग में सहायता करती है तथा इस प्रकार अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर के वृद्धि करने में सहायता करती है। वास्तव में यह तथ्य, इस मान्यता पर आधारित है कि उत्पादन में उपयोग की जाने वाली विनियोजित पूँजी के लिए आवश्यक प्रकार का कुशल श्रम पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है ।
- एक विकासशील देश में विदेशी पूँजी तथा वृद्धि के बीच उपरोक्त संबंध में दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं। प्रथम बात यह है कि विदेशी पूँजी विनियोग के लिए उपलब्ध पूँजी में वृद्धि कर सकती हैं जो विकासशील देशों की सीमित बचतों पर विजय प्राप्त करने में सहायता करती है।
- दूसरी बात यह है कि विदेशी पूँजी धनराशि के रूप में ही नहीं आती है बल्कि यह अपने साथ उपकरणों में निहित कुछ तकनीक एवं उत्पादन की विधि भी लाती है। अतः दूसरी बात विदेशी विनियोग को तलाशने के तर्क को पूँजी की दुर्लभता से आगे नई तकनीक एवं उत्पादन विधि प्राप्त करने तक विस्तृत कर देती है। ये नई तकनीकें एवं उत्पादन विधियाँ हो सकता है कि वैश्विक अर्थ में नई न हों किंतु संबंधित विकासशील देश के लिए नई होती हैं।
- विदेशी पूँजी की भूमिका में एक तीसरी बात नए प्लांट एवं उपकरण खरीदने के लिए विदेशी विनिमय की मात्रा में वृद्धि करने की है। एक विकासशील राष्ट्र में सुविकसित मशीन एवं पूँजीगत वस्तु उत्पादक क्षेत्र का अभाव होता है। उदाहरण के लिए, यहाँ वस्त्र मिलें हो सकती हैं जो कताई एवं बुनाई मशीनों का उपयोग करती हैं। किंतु हो सकता है कि देश में ऐसे प्लांट न हों जो कताई एवं बुनाई मशीनों का उत्पादन करते हों। अतः उसे यदि उपलब्ध घरेलू बचतों को विनियोग में रूपांतरित करना है तो इस प्रकार के पूँजीगत उपकरणों का आयात करना होगा। सीमित निर्यात होने पर विदेशी पूँजी विनियोग के लिए आवश्यक विदेशी विनिमय प्रदान करने में सहायता कर सकती है।
विदेशी पूँजी का महत्त्व/ भूमिका Importance/Role of Foreign Capital
विदेशी पूँजी के पक्ष में उपरोक्त तर्कों को संक्षेप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है। विकासशील देश तीन अंतराल का सामना कर सकते हैं - बचत अंतराल, विदेशी विनिमय अंतराल एवं प्रौद्योगिक (तकनीक) अंतराल ये तीनों अंतराल विदेशी पूँजी द्वरा कम किए जा सकते हैं।
1 बचत अंतराल'
वांछित विनियोग एवं घरेलू बचतों के बीच अंतराल विदेशी पूँजी द्वारा पूरा किया जा सकता है। निम्न सरल बीजगणित यह प्रदर्शित करेगी कि यह कैसे होता है।
Y = C + 1 + (X - M) ....(1)
जिसमें Y = सकल राष्ट्रीय उत्पाद (कुल व्यय),
C = उपभोग,
I = विनियोग
X = वस्तुओं तथा सेवाओं का निर्यात एवं विदेशों से प्राप्त आय तथा
M = वस्तुओं एवं सेवाओं का आयात तथा विदेशों में भुगतान गई धनराशि कुल व्यय उपभोग, विनियोग एवं विदेशी व्यय के ऊपर विदेशी प्राप्तियों के आधिक्य तीनों के योगफल के समान होता है ।
कुल व्यय (Y) या तो उपभोग (C) पर
किया जाता है या बचत (S) कर लिया जाता है। अतः
चूँकि कुल व्यय कुल आय के समान होती है अतः (1) एवं (2) को जोड़ने पर
Y = C + 1 + (X - M) = C+ S या C + 1 + (X - M) = C + S ....(3)
उपरोक्त समीकरण (3) के दोनों पक्षों में से C को घटाने पर हमें निम्न समीकरणप्राप्त होता है।
अर्थात् C + 1 + (X - M) -C = C+ S - C
या 1+(X-M) = S
या I = S- ( X-M)
या I = S + M - X
- समीकरण (4) एक सरल संबंध को व्यक्त करता है। विनियोग घरेलू बचतों + विदेशों से विशुद्ध प्राप्तियों से सीमित होता है। चूँकि निर्यात प्राप्तियाँ सीमित (निर्यात निराशावाद) होती हैं अतः M - X के शून्य से अधिक होने का एक मात्र तरीका विदेशों से पूँजी का अंतप्रवाह माध्यम ही होता है।
- अतः उपरोक्त वह तरीका है जिसमें विदेशी पूँजी का अंतप्रवाह एक विकासशील देश में विनियोग को घरेलू बचतों द्वारा संभव किए गए तरीके की अपेक्षा और आगे बढ़ा सकता है। विदेशी पूँजी विनियोग के लिए उपलब्ध कुल वित्तीय संसाधनों में वृद्धि कर देगी।
- किंतु घरेलू बचतों की अपेक्षा विनियोग की दर में और अधिक वृद्धि करने का एक अन्य रास्ता भी है। यह विदेशों में कार्य करने वाले देश के श्रमिकों से प्रेषण धनराशियों का माध्यम होता है। उदाहरण के लिए भारत सामान्य रूप से खाड़ी के देशों पश्चिमी एशिया में रहने वाले भारतीय श्रमिकों की प्रेषण धनराशियों से अत्यधिक लाभान्वित हुआ है।
2 विदेशी विनिमय अंतराल
- विदेशी विनिमय अंतराल इसलिए उत्पन्न होता है कि निर्यात आय सीमित होती हैं। और वे विनियोग के लिए आवश्यक प्लांट एवं उपकरणों की आवश्यक खरीद की वित्त व्यवस्था करने में अपर्याप्त होती हैं।
- यहाँ इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि जब एक देश के निर्यातों की माँग की लोच बहुत कम होती है तो इस बात की संभावना होती है कि पूर्ति में वृद्धि के कारण निर्यातों में वृद्धि नहीं होती है।
- यह एक विकासशील देश की विकास प्रक्रिया के पूर्व की अवस्था में हो सकता है। किंतु जैसा कि अनुभव बताता है कि विकासशील देश या अब न्यूनतम विकसित (Least Developed Countries) नामक देश भी उदाहरण के लिए, सिले सिलाए वस्त्र विनिर्माण जैसे न्यून कुशलता एवं श्रम प्रधान उत्पादन का एक अंश प्राप्त कर सकते हैं।
3 प्रौद्योगिकी अंतराल
- विदेशी विनिमय अंतराल की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकी (तकनीक) अंतराल होता है। औद्योगीकृत देशों के पास विनिर्माण एवं कृषि के लिए भी विकसित तकनीक होती है। उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए विकासशील देशों को इन तकनीकों का आयात करना होता है। तथापि, यह अंतराल अनेक तरीकों से पूरा किया जा सकता है।
- एक तरीका यह है कि उन्हें बाजार से क्रय किया जाए। किंतु यह संभव है कि उस तकनीकी की स्वामी विदेशी कंपनी उसे बेचने के लिए इच्छुक न हो। इसे बेच देना उसे केवल एक बार लाभ प्रदान करेगी। किंतु यदि फर्म उस तकनीक का उपयोग एक विकासशील देश में बहु-राष्ट्रीय कंपनी के रूप में विनियोग कर सकती है तो लाभ का निरंतर प्रवाह हो सकता है। ऐसी स्थिति में बहु-राष्ट्रीय कंपनी (MNC) को पूँजी विनियोग की आवश्यकता हो सकती है ताकि वह विनियोजित कंपनी में अंशधारिता प्राप्त कर सके या प्रत्यक्ष विदेशी विनियोग (FDI) करे ।
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